सिंहगढ़ का नाम आते ही छत्रपति शिवाजी महाराज के वीर सेनानी तान्हाजी मालसुरे की याद आती है। तान्हाजी ने उस दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग को जीता, जो ‘वसंत पंचमी’ पर उनके बलिदान का अर्घ्य पाकर ‘सिंहगढ़’ कहलाया।
छत्रपति शिवाजी महाराज को एक बार सन्धिस्वरूप 23 किले मुगलों को देने पड़े थे। इनमें से कोण्डाणा सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। एक बार मां जीजाबाई ने शिवाजी महाराज को कहा कि प्रातःकाल सूर्य भगवान को अर्घ्य देते समय कोण्डाणा पर फहराता हरा झण्डा आँखों को बहुत चुभता है। शिवाजी महाराज ने सिर झुकाकर कहा – मां, आपकी इच्छा मैं समझ गया। शीघ्र ही आपका आदेश पूरा होगा।
कोण्डाणा को जीतना आसान न था; पर शिवाजी महाराज के शब्दकोष में असम्भव शब्द नहीं था। उनके पास एक से एक साहसी योद्धाओं की भरमार थी। वे इस बारे में सोच ही रहे थे कि उनमें से सिरमौर तान्हाजी मालसुरे दरबार में आये। शिवाजी महाराज ने उन्हें देखते ही कहा – तान्हाजी, आज सुबह ही मैं आपको याद कर रहा था। माता की इच्छा कोण्डाणा को फिर से अपने अधीन करने की है।
तान्हाजी ने ‘जो आज्ञा’ कहकर सिर झुका लिया। यद्यपि तान्हाजी उस समय अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण महाराज को देने के लिए आये थे; पर उन्होंने मन में कहा – पहले कोण्डाणा विजय, फिर रायबा का विवाह; पहले देश, फिर घर। वे योजना बनाने में जुट गये। 4 फरवरी, 1670 की रात्रि इसके लिए निश्चित की गयी।
कोण्डाणा पर मुगलों की ओर से राजपूत सेनानी उदयभानु 1,500 सैनिकों के साथ तैनात था। तान्हाजी ने अपने भाई सूर्याजी और 500 वीर सैनिकों को साथ लिया। दुर्ग के मुख्य द्वार पर कड़ा पहरा रहता था। पीछे बहुत घना जंगल और ऊँची पहाड़ी थी। पहाड़ी से गिरने का अर्थ था निश्चित मृत्यु। अतः इस ओर सुरक्षा बहुत कम रहती थी। तान्हाजी ने इसी मार्ग को चुना।
रात में वे सैनिकों के साथ पहाड़ी के नीचे पहुंच गये। उन्होंने ‘यशवान्ति’ नामक गोह को ऊपर फेंका। उसकी सहायता से कुछ सैनिक बुर्ज पर चढ़ गये। उन्होंने अपनी कमर में बंधे रस्से नीचे लटका दिये। इस प्रकार 300 सैनिक ऊपर आ गये। शेष 200 ने मुख्य द्वार पर मोर्चा लगा लिया।
ऊपर पहुंचते ही असावधान अवस्था में खड़े सुरक्षा सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया गया। इस पर शोर मच गया। उदयभानु और उसके साथी भी तलवारें लेकर भिड़ गये। इसी बीच सूर्याजी ने मुख्य द्वार को अन्दर से खोल दिया। इससे शेष सैनिक भी अन्दर आ गये और पूरी ताकत से युद्ध होने लगा।
यद्यपि तान्हाजी लड़ते-लड़ते बहुत घायल हो गये थे; पर उनकी इच्छा मुगलों के चाकर उदयभानु को अपने हाथों से दण्ड देने की थी। जैसे ही वह दिखायी दिया, तान्हाजी उस पर कूद पड़े। दोनों में भयानक संग्राम होने लगा। उदयभानु भी कम वीर नहीं था। उसकी तलवार के वार से तान्हाजी की ढाल कट गयी। इस पर तान्हाजी हाथ पर कपड़ा लपेट कर लड़ने लगे; पर अन्ततः तान्हाजी वीरगति को प्राप्त हुए। यह देख मामा शेलार ने अपनी तलवार के भीषण वार से उदयभानु को यमलोक पहुंचा दिया। तान्हाजी धरती माता की गोद में सो गये।
जब छत्रपति शिवाजी महाराज को यह समाचार मिला, तो उन्होंने भरे गले से कहा “गढ़ आला, पण सिंह गेला” याने – गढ़ तो आया; पर मेरा सिंह चला गया। तब से इस किले का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया। किले के द्वार पर तान्हाजी की भव्य मूर्ति तथा समाधि निजी कार्य से देशकार्य को अधिक महत्त्व देने वाले उस वीर की सदा याद दिलाती है।
संकलन – विजय कुमार