विकास मजबूरी – संतुलन जरूरी

कुछ न होने वाला, डराओ मत, हमेशा नकारात्मक ही क्यों सोचते व बोलते हो, प्रकृति के पास अपार संसाधन हैं इसलिए उनके उपयोग पर रोक टोक न लगाओ आदि आदि। प्रकृति प्रेमी और पर्यावरणविद् अधिकांश: इसी तरह के जुमले सुनने के आदि होते हैं। जब प्राकृतिक आपदाएं आती हैं और हादसे होते हैं तब कुछ समय के लिए उनकी बातो पर चर्चा होती है किंतु शीघ्र ही विकासवादी उतावलेपन का शिकार हो जाते हैं और संतुलन खो, अनियंत्रित विकास और आपाधापी का शिकार हो जाते हैं।

भौतिक जीवन के सुख पाने के लिए आवश्यक संसाधनों की होड़ के बीच आम आदमी तो उतावला हो ही जाता है । उसके इन उतावलेपन व ललक को नेता, नौकरशाह व कारपोरेट घराने भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते और अनियंत्रित व अनियोजित विकास का अंबार खड़ा कर देते हैं। बिना योजना व संवेदनशीलता से भरा यह नींव हीन विकास शेने शेने बिखरने लगता है और अंततः जोशीमठ के दरकने के रूप में सामने आता है।बस तबाही ही तबाही। बाज़ार और पूंजीवाद के अति स्वार्थ व अबाध लाभ के लालच ने व्यक्ति के जीवन से संतुलन व सहजता को समाप्त कर दिया है। जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भौतिक संसाधन एक सामान्य आवश्यकता होते हैं किंतु हौड़ व दौड़ में हम जीवन की शांति को प्राथमिकता देना भूल गए हैं और संसाधनों की होड़ में पड़ गए हैं।

इसी का परिणाम पूरे देश में अनियंत्रित विकास के रूप में सामने आता गया है। हमारे शहर अराजकता का नमूना हैं। बिना पर्याप्त जल प्रबंधन, जल निकासी,सीवर, कूड़ा संग्रहण , निस्तारण व सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के भयावह प्रदूषण युक्त बेतरतीब शहर भारत में आम हैं। टाउन प्लानिंग से इनका कोई वास्ता ही नहीं। क्षमता से कई गुना आबादी व हर दूसरा आदमी किसी न किसी बीमारी का शिकार। कोई भी बिल्डिंग व मकान ऐसा नहीं जिसमे नियमों के अनुसार निर्माण हुआ हो, हर ओर अतिक्रमण व अवैध क़ब्ज़े। हर नियम , कायदे व कानून की धज्जियाँ उड़ाते लोग व उड़वाता तंत्र। ऐसी स्थिति में देश का हर शहर, कस्बा व गांव जोशीमठ जैसी स्थिति का शिकार होना ही है। निश्चित रूप से सभी को अच्छी जीवन शैली व न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति हेतु संसाधन चाहिए पर इनको संयमित,योजनाबद्ध व विकेंद्रित करना अनिवार्य है। अन्यथा बस यह दस , बीस या तीस वर्षों की बात ही रह गई है जब जोशीमठ जैसे समाचार देश के हर भाग से हर रोज आया करेंगे वास्तव में आने भी लगे हैं।

हमारी अनियंत्रित जीवन शैली व सोच ने हमे ही एक अंधे कुएं में धकेल दिया है और जिस धरती पर हमने अनंत समय तक खुशहाल जीवन जीने की कल्पना की थी वह चंद दशकों में ही सिमट जाती दिख रही है। पेट्रोलियम पदार्थों, कोयले, मांसाहार व रसायनों के अंधाधुंध उपभोग ने इस धरती के पर्यावरण संतुलन को छिन्न भिन्न कर दिया है।इस कारण धरती का बढ़ता तापमान सब कुछ निगलने पर उतारू है। हज़ारो वर्षों से प्रकृति व हमारा शरीर जिस तापमान को झेलने का आदि हो चुका है अब वो बहुत तेज़ी से बदल रहा है। यह बढ़ती तपन धीरे धीरे सब कुछ झुलसा देगी। अगर जंगल,खेती व पेड़ सूख व सिमट गए तो कुछ भी नहीं बचेगा। पर्यावरणविद् कह रहे हैं कि बस अगले कुछ वर्षों में ही हम सामान्य जीवन जीने लायक नहीं रहेंगे और अगले कुछ दशकों में बड़ी मात्रा में सिमट जाएँगे। यह बहुत गंभीर व चिंतनीय स्थिति है। हम मानव, जीव जंतुओं व पशु पक्षियों को नित नई बीमारियों, महामारियों,कुपोषण, खाद्य व जल संकट का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

बाढ़, सूखा, लू, जंगलों में आग , भूकंप, चक्रवात, तूफ़ान आदि अब कई गुना होते जाएंगे जो हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर को तबाह व बर्बाद कर देंगे। समुद्र का बढ़ता जल स्तर तटो को निगलता जाएगा। हमे बड़ी मात्रा में लोगों के पलायन के लिए तैयार रहना होगा। ये सब बड़ी मात्रा में गृहयुद्ध, बड़े युद्ध, मंदी, महंगाई व बेरोजगारी को बढ़ाते जाएँगे।हम बड़ी मात्रा में संसाधनों की कमी से दो चार होते जाएँगे। संसाधनों के लिए संघर्ष व युद्ध मानव का इतिहास रहे हैं। इसीलिए रूस- यूक्रेन युद्ध के विश्व युद्ध में बदलने की संभावनाएं बहुत हैं। युद्ध व हथियारों की जिस होड़ में दुनिया पड़ गई है वो आत्मघाती हो चली है। ऐसे में सभ्यताओं का सिमटना तय है। विकास व बाज़ार एक अच्छे जीवन की अनिवार्य शर्त है किंतु यह अनियंत्रित न हो , ऐसा ध्यान सभी को रखना होगा।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ऑटोमेशन व आईटी ने जीवन को सरल व सुगम तो बनाया है किंतु अब ये रोजगार निगलती जा रही है। यह स्थिति देश व दुनिया को एक ख़तरनाक मोड़ की ओर धकेल रही है। यह अनिवार्य होना चाहिए की सरकार, राजनीतिक दल व सामाजिक संस्थान जनता में पर्यावरण अनुकूल विकास, संयमित, संस्कारित व न्यूनतम संसाधनों वाली जीवन शैली की योजनाओं को लेकर शिक्षा दें व उसको चुनावी मुद्दा व नीतियों का आधार बनाए और धर्म , जाति, भाषा व क्षेत्र की राजनीति से दूरी बनाए। अन्यथा अपेक्षित नुक़सान कई गुना हो सकता है और मानव जाती अस्तित्व के संकट का सामना भी कर सकती है। बाजार, लूट व शोषण से परे जीडीपी के चंगुल से मुक्त योजनाबद्ध विकास जिसमे वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो व पर्यावरणविदो की सहमति हो , जनसंख्या नियंत्रण,हरित ऊर्जा, जैविक व प्राकृतिक कृषि, नये तापमान में अनुरूप नई कृषि पद्धतियों की खोज , बढ़ते तापमान के साथ जीवन व सभी प्रकार के इंफ्रास्ट्रक्चर का अनुकूलन व तापमान वृद्धि को रोकने के हर संभव द्रुतगामी प्रयास हम सभी को युद्ध स्तर पर करने होंगे।

– अनुज अग्रवाल

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