खेल और व्यक्तित्व विकास

वर्तमान पीढ़ी पूरी तरह घरघुस्सू हो चुकी है। उनका जीवन मोबाइल के छोटे से डिब्बे में सिमटकर रह गया है। तीन पत्ती, पोकर, पेड लूडो जैसी जगहों पर खेल के नाम पर समय बिताते हैं। प्रत्येक परिवार के बड़ों को मैदानी खेलों और मैदानों से दूर भागते बच्चों और युवाओं को मैदानों की ओर लाने का प्रयास करना चाहिए ताकि उनका समुचित मानसिक और शारीरिक विकास हो सके।

जीवन के तीसरे दशक में भी खेल मन से निकल नहीं पाता। आज भी मौका मिलते ही अपन मैदान की राह पकड़ लेते हैं और घर आने के बाद मैया की हमेशा पड़ने वाली डांट राह जोह रही होती है कि, “घोड़े जैसे हो गए, कब सुधरोगे? अब तो खेलना छोड़ दो।” पर मुझे पता है कि वह ऊपरी मन से बोलती है। उसके अंतःकरण में मेरे खेलने को लेकर कोई मैल नहीं है क्योंकि उसके बाद धीरे से कुछ शब्द चुभला उठते हैं, “कुछ खा ले, भूख लग गई होगी। यदि मैं यह कहूं कि, खेल-खेल में मैंने अपनी पूरी जवानी निकाल दी, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जितना खेल हमारी पीढ़ी ने खेला है और जिस स्तर पर उन खेलों का मजा लिया है, उतना तो आज के बच्चे कभी सोच भी नहीं सकते। यदि इसी बात को थोड़ा तीखे तरीके से कहूं तो शायद उनके नसीब में नहीं हैं वे खेल। ऐसा कहने वाले हम लोग शायद आखिरी पीढ़ी हैं। सच में हम और हम जैसे लोग बहुत ही भाग्यशाली हैं जिन्होंने अपने बचपन में इतने प्रकार के खेलों का मजा लिया। लुकाछुपी खेलते या सड़क पर टायर दौड़ाते दिन कब बीत जाते थे, कुछ पता ही नहीं चलता था। पर आज लोग ‘इनडोर गेम’ का आनंद उठाते हैं। पोकर में पैसे गंवाते हैं। क्रिकेट का मैच देखते नहीं, बल्कि एमपीएल जैसे ऐप्स पर जुआ लगाकर उसे सही करवाने के लिए भगवान को लड्डुओं की रिश्वत देते हैं।

लंगड़ी, डुकर मुसंडी, साकली, पकड़ा-पकड़ी, गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, कंचे, लट्टू, नदी पर्वत, खो-खो, फिसलपट्टी, बकरी-शेर, चिड़िया उड़, आंख-मिचौली, कांदा-पुड़ी, आबादूबी, कबड्डी, क्रिकेट, कैरम, शतरंज, बैटमिंटन जैसे अनेकानेक खेल देशभर के गांवों के साथ ही साथ मुंबई-दिल्ली जैसे महानगरों की गलियों में भी खेले जाते थे। इनके अलावा भारत भर में बहुत सारे साहसिक मर्दाना खेल भी बहुत प्रसिद्ध हैं, जिनमें प्रमुख रूप से कुश्ती, पहलवानी, लाठी भांजना, नानचाकू, तलवारबाजी आदि खेल शामिल हैं। साथ ही इस बात का हमारी पीढ़ी को खेद भी है कि जिन खेलों का हमने आनंद लिया और जिन खेलों ने हमारे शरीर शौष्ठव को आकार लेने में सहयोग किया, उन खेलों को हम अपनी आनेवाली पीढ़ी में हस्तांतरित नहीं कर पाए। हमारी आंखों के सामने अगली पीढ़ी के नौनिहाल और युवा मोबाईल गेम और पबजी में व्यस्त हैं। अधिकतर बच्चे कार्टून देखने में ही अपना पूरा दिन गंवा देते हैं। अगर टीवी पर कार्टून नहीं चल रहा है तो ना तो वे खाने को हाथ लगाएंगे और न होमवर्क करेंगे।

घर का हर सदस्य साथ होकर भी अपनों से दूर है। सभी अपने-अपने मोबाईल में पूरी तरह से व्यस्त हैं। इस तरह के दृश्य देख कर हमें वहीं पुराने दिन याद आते हैं जब हम विद्यालय से आने के बाद अपना बस्ता फेंककर खेलनेे के लिए घर से भाग खड़े होते थे और केवल खाना खाने घर जाते थे। बड़ी मुश्किल से मां-पिताजी और दादाजी हमें खोजकर खाना खाने के लिए घर ले जाते थे। आज के बच्चे तो घर के बाहर ही नहीं जाना चाहते, केवल मोबाइल में ही दिमागी कसरत करते रह जाते हैं। उन्हें मैदानी और साहसिक खेलों का वह परम आनंद कहां मिलेगा? मैदानी एवं साहसिक खेलों के प्रति उदासीन रहनेवाली आधुनिक पीढ़ी को शायद उन खेलों का महत्त्व नहीं पता जो उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगाने के साथ ही साथ उनके जीवन का कायापलट कर सकते हैं। उन्हें सर्वश्रेष्ठ योद्धा व लीडर बना सकते हैं। बिजनेस एवं कार्यक्षेत्र में सफलता दिला सकते हैं। और भी बहुत कुछ… जिससे वे अनजान हैं।

ऑनलाइन खेलों ने उनके मन को विशुद्ध भौतिकवादी जुआरी बना दिया है। स्वस्थ तन-मन-मष्तिष्क के लिए स्वस्थ शरीर का होना आवश्यक है। केवल मष्तिष्क का एकांगी विकास काफी नहीं है, उसके साथ ही शारीरिक शक्ति-सामर्थ्य बहुत ही आवश्यक है जो मैदानी एवं साहसिक खेलों के माध्यम से सहज ही प्राप्त हो जाता है। उसके लिए अलग से व्यायाम, डायटिंग या योग करने की भी आवश्यकता नहीं होती। जिम, कसरत, जिम्नास्टिक से शरीर तो स्वस्थ हो सकता है लेकिन इनसे न तो मनोरंजन होता है और न ही मन को आनंद मिलता है। ये साधन जीवन को नीरस बना देते हैं। वहीं खेल मनोरंजन के साथ ही आपके तन-मन-मष्तिष्क को भी स्वस्थ बना देता है। खेलने के बाद रात को इतनी प्यारी शांत नींद आती है कि वैसी नींद डनलप के बिस्तर पर गोलियां खाने के बाद भी नहीं आती। तनाव का नामोनिशान नहीं। तनाव किस चिड़िया का नाम है, कुछ पता ही नहीं चलता।

मैदानी खेल खेलने से सीखने की क्षमता बढ़ती है। जीवन की सफलता के सूत्र खेल-खेल में ही मिलने लगते हैं। किसी भी चुनौती का सामना करना व समाधान निकालना, तत्काल सही निर्णय लेना, सम्पर्क, संवाद, वक्तृत्व कला, समन्वय, आंकलन करना, अपनी कमियों को ढूंढ़ना, उसे दूर कर फिर से स्वयं को तैयार करना, बलवान बनना, सबसे तेज होने की ललक बढ़ना, कड़ा परिश्रम करना, हर हाल में डटे रहने जैसे बहुत सारे गुणों का विकास खेल के मैदान में ही शुरू हो जाता है। सहयोग भावना और नेतृत्व क्षमता के गुण स्वयं ही विकसित हो जाते हैं। विद्यालय में पूरा दिन कक्षा में बैठे-बैठे लगातार पढ़ाई करने से विद्या ग्रहण करने की क्षमता प्रभावित होने लगती है। इसलिए खेलकूद के माध्यम से दिल-दिमाग को ताजा रखा जाता है ताकि हम पुनः चार्ज होकर दुगुनी मेहनत से विद्या मैया के पूजन(अध्ययन) में लग सकें। पहले जब गुरुकुल व्यवस्था थी उस समय छात्रों को विद्याध्ययन, मैदानी खेल एवं शास्त्र के साथ शस्त्र की भी शिक्षा दी जाती थी। साहसिक खेल इसीलिए खिलाए जाते थे कि बल, बुद्धि, युक्ति, विवेक के साथ शक्ति भी अर्जित की जा सके। ध्यान, एकाग्रता, स्थिरता, मन बुद्धि व शरीर में संतुलन साधने के लिए खेल एक बेहतरीन माध्यम है।

क्या मोबाइल में गेम खेलने वाले बच्चों में उपरोक्त गुण दिखाई देते है? क्या वे अपने जीवन में आनेवाली चुनौतियों का सही दृष्टिकोण से मुकाबला कर पाएंगे? असफल होने के बाद भी हताशा-निराशा को त्याग कर पूरे आत्मविश्वास एवं मनोयोग से अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रह पाएंगे? इसका शाश्वत उत्तर है, नहीं। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम अपने बच्चों का रुख मैदानों की ओर मोड़ें। सिनेमा और कार्टून से बाहर निकालकर विराट कोहली, मिताली राज, नीरज चोपड़ा, विजेंदर कुमार जैसे परिश्रमी खिलाड़ियों से उनका परिचय करवाएं और अपने तथाकथित अमूल्य समय का कुछ हिस्सा हमारी आने वाली पीढ़ी के अमूल्य भविष्य को दें ताकि हमारा भविष्य स्वस्थ, बलशाली, चातुर्य से परिपूर्ण, पराक्रमी और साहसी बन सके।

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