भारतीय लोक साहित्य एवं संस्कृति के अध्ययन, अनुशीलन तथा लेखन में अपना जीवन समर्पित करने वाली विदुषी डॉ. दुर्गा नारायण भागवत का जन्म 10 फरवरी, 1910 को इंदौर (म.प्र.) में हुआ था। इनके पिता 1915 में नासिक आ गये, अतः उनकी मैट्रिक तक की शिक्षा नासिक में हुई। इसके बाद बी.ए करने के लिए उन्होंने मुंबई के सेंट जेवियर कॉलिज में प्रवेश लिया। उन्हीं दिनों देश में स्वाधीनता आंदोलन भी तेजी पर था। अतः दुर्गाबाई पढ़ाई बीच में छोड़कर उस आंदोलन में कूद पड़ीं।
कुछ समय बाद अपनी पढ़ाई फिर प्रारम्भ कर उन्होंने 1932 में बी.ए की डिग्री प्राप्त की। एम.ए में उन्होंने आद्य शंकराचार्य से पूर्व के कालखंड का अध्ययन कर बौद्ध धर्म पर शोध प्रबन्ध लिखा। उन दिनों इस विषय के छात्र प्रायः मैक्समूलर के ग्रन्थों को आधार बनाते थे; पर दुर्गा भागवत ने पाली और अर्धमागधी भाषा सीखकर उनके मूल ग्रन्थों द्वारा अपना शोध पूरा किया। इस शोध प्रबन्ध को परीक्षण के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भेजा गया।
1938 में दुर्गाबाई को ‘सिन्थेसिस ऑफ हिन्दू एण्ड ट्राइबल कल्चर ऑफ सेंट्रल प्राविन्सेस ऑफ इंडिया’ विषय पर पी-एच.डी की उपाधि मिली। तीन वर्ष तक मध्यप्रदेश के दुर्गम वनवासी क्षेत्रों में घूमकर उन्होंने वनवासियों की बोली, परम्परा, रीति-रिवाज, खानपान तथा समस्याओं का अध्ययन किया। इससे वे अनेक रोगों की शिकार होकर जीवन भर कष्ट भोगती रहीं।
दुनिया भर का लोक साहित्य, बाल साहित्य, वनवासी लोकजीवन, परम्परा व संस्कृति उनके अध्ययन तथा लेखन के प्रिय विषय थे। वे भारतीय संस्कृति को टुकड़ों में बांटने के विरुद्ध थीं। उनका मत था कि पूर्व के संस्कारों का अभिसरण ही संस्कृति है। उन्होंने सैकड़ों कहानी, लेख, शोध प्रबंध तथा पुस्तकें लिखी हैं। अनुवाद के क्षेत्र में भी उन्होंने प्रचुर कार्य किया।
1957 से 1959 तक वे गोखले इंस्टीट्यूट, पुणे में समाज शास्त्र की अध्यक्ष रहीं। 1956 में वे ‘तमाशा परिषद’ की अध्यक्ष बनीं। इस पद पर रहते हुए उन्होंने तमाशा कलाकारों के जीवन का अध्ययन किया। ये कलाकार कैसी निर्धनता और अपमानजनक परिस्थिति में रह रहे हैं, यह देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने वयोवृद्ध तमाशा साम्राज्ञी विठाबाई नारायण गावकर की सहायतार्थ निधि एकत्र की तथा उनका सार्वजनिक सम्मान किया।
1975 में देश में आपातकाल थोप दिया गया। उसी वर्ष कराड में हुए 51वें मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से उन्होंने आपातकाल का प्रबल विरोध किया। उन्होंने लेखकों से सत्य और न्याय के पक्ष में कलम चलाने का आग्रह किया। वहां केन्द्रीय मंत्री श्री यशवंत राव बलवंत राव चह्नाण भी उपस्थित थे। इस कारण एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय में पढ़ते हुए उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया; पर उन्होंने झुकना स्वीकार नहीं किया।
दुर्गाबाई भागवत ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस का खुला विरोध किया। उन्होंने पद्मश्री तथा ज्ञानपीठ जैसे साहित्य के प्रतिष्ठित सम्मानों को भी ठुकरा दिया। उनकी ऋतुचक्र, भावमुद्रा, व्याधपर्व, रूपगन्ध जैसी अनेक पुस्तकों को महाराष्ट्र शासन ने तथा पैस को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया।
दुर्गाबाई ने अविवाहित रहते हुए समाज सेवा और साहित्य साधना को ही जीवन का ध्येय बनाया। सात मई, 2002 को मुंबई में उनका देहांत हुआ।
संकलन – विजय कुमार