स्वाधीनता से पूर्व राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा का कार्य तीन प्रकार से हुआ । स्वतंत्रता संघर्ष में सेनानी जेल गये, क्राँतिकारी बलिदान हुये । इस पक्ष से हम सब अवगत हैं किन्तु उस संघर्ष की पृष्ठभूभि में एक और संघर्ष हुआ वह था भारत विभाजन की पृष्ठभूमि में राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा का, पीड़ितों की सेवा सहायता का । इस संघर्ष में भी हजारों लोगों को जीवन समर्पित हो गया । ऐसे ही राष्ट्र रक्षा सेनानी थे ठाकुर राम सिंह। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक ऐसे प्रचारक थे जिन्होंने विभाजन की त्रासदी में देश के दोनों छोर पर जीवन लगा दिया ।
उन पर हमले हुये शरीर की पूर्णता कम हुई फिर भी वे न रुके और न झुके। जीवन की अंतिम श्वाँस तक राष्ट्र सेवा में समर्पित रहे ।ऐसे यौद्धा प्रचारक ठाकुर राम सिंह का जन्म हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले के अंतर्गत झंडवी गांव में हुआ था । उनके पिता भाग सिंह आर्यसमाज से जुड़े थे और माता नियातु देवी धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों की थीं। इस प्रकार राष्ट्र और संस्कृति सेवा के संस्कार ठाकुर रामसिंह को बचपन से मिले थे । परिवार सनातन हिन्दु संस्कृति के मूल्यों से जुड़ा होने के साथ आधुनिक शिक्षा का पक्षधर था । पिता की इच्छा थी कि बेटा अच्छा पढ़कर ऊँची नौकरी करे । उनकी प्रारंम्भिक शिक्षा भोरंज में, मिडिल परीक्षा हमीरपुर से और मैट्रिक परीक्षा ढोलवां होशियारपुर से उत्तीर्ण की । वे प्रत्येक परीक्षा में प्रथम श्रेणी में रहे। उन्होने लाहौर महाविद्यालय से 1942 में प्रथम श्रेणी और स्वर्ण पदक के साथ एम ए परीक्षा उत्तीर्ण की । वे अपने छात्र जीवन में युवक कांग्रेस और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ दोनों के संपर्क में आये । छात्र जीवन में उनके सहपाठी सुप्रसिद्ध विचारक और राजनेता बलराज मधोक मित्र बने । युवक कांग्रेस सदस्य के रूप में उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया किन्तु स्थानीय एक पदाधिकारी द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में हुये धन संग्रह के दुरुपयोग करने पर मतभेद हुये और उन्होंने युवक कांग्रेस को छोड़कर पूरी तरह संघ की गतिविधियों में सक्रिय हो गये ।
संघ में सक्रियता का एक बड़ा कारण यह था कि अंग्रेजों ने भले मुस्लिम लीग के विभाजन प्रस्ताव को बाद में मंजूरी दी किन्तु मुस्लिम लीग ने इसकी तैयारी बहुत पहले आरंभ कर दी थी । 1940 के आसपास तो हिन्दु बस्तियों पर हमले होना शुरु हो गई थी । मुस्लिम लीग के पास सशस्त्र वालेन्टियर थे जिनकी पुलिस से मिली भगत थी । ऐसे में संघ के स्वयं सेवक पीडितों की सेवा सहायता केलिए सबसे आगे होते । इसलिए राष्ट्र और संस्कृति के प्रति समर्पित परिवारों के नौजवान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने लगे । ठाकुर रामसिंह जी ने 1942 में मध्यप्रदेश के खंडवा में आयोजित संघ के वर्ग में प्रशिक्षण लिया और अपने जीवन का मार्ग प्रचारक के रूप में समर्पित करने का मार्ग चुना । लाहौर और उसके आसपास संघ के प्रति यह आकर्षण कितना प्रभावशाली होगा इस बात का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1942 में ठाकुर रामसिंह सहित 58 प्रचारक लाहौर से निकले थे ।
यद्यपि 1942 में ठाकुर रामसिंह की असाधारण प्रतिभा देखकर प्राचार्य ने उसी महाविद्यालय में व्याख्याता का पद का प्रस्ताव दिया किन्तु ठाकुर रामसिंह ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करके प्रचारक के रूप में राष्ट्र सेवा के मार्ग पर बने रहने का निर्णय लिया । तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री माधवराव मुले ने प्रचारक के रूप में ठाकुर रामसिंह को कांगड़ा जिले में प्रतिनियुक्त किया । दो साल बाद 1944 में उन्हें अमृतसर के विभाग प्रचारक की जिम्मेदारी दी गई। उस समय अमृतसर विभाग के अंतर्गत गुरदासपुर , सियालकोट , कांगड़ा , चंबा , मंडी , सुकेत और बिलासपुर भी हुआ करते थे। 1942 से 1945 के बीच पूरी दुनियाँ भले द्वितीय विश्व युद्ध में उलझी हो पर मुस्लिम लीग अपने ऐजेण्डे पर काम कर रही थी । लाहौर क्षेत्र में हालात इतने कठिन हो गये थे कि हिन्दुओं का पलायन आरंभ हो गया था । पंजाब के प्रांत की परिस्थिति को भाँप कर संघ कार्यालय भी लाहौर से जालंधर स्थानांतरित हो गया था ।
1947 में भारत के विधिवत विभाजन के बाद ठाकुर रामसिंह को जालंधर नियुक्त किया गया । यहाँ शरणार्थियों और पंजाब के अन्य स्थानों आ रहे पीड़ितों की सेवा का बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य था । तब माधवराव मुले जी के नेतृत्व में ठाकुर रामसिंह और उनकी टोली ने यह काम अपने हाथ में लिया । तभी वर्ष 1948 आरंभ हुआ । गाँधी जी हत्या हुई और फरवरी के प्रथम सप्ताह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा गया । संघ के प्रचारकों की गिरफ्तारियां आरंभ हुई। माधवराव मुलेजी भी गिरफ्तार कर लिये गये । संघ पर प्रतिबंध और प्रचारकों की गिरफ्तारियों के बावजूद सेवा कार्य न रुके। सभी प्रचारक बंधु और स्वयंसेवक गण अपने स्तर पर सेवा सहायता का यह काम करने लगे । तब पंजाब क्षेत्र का सेवा कार्य श्री भाई महावीर और ठाकुर रामसिंह ने संभाला।
समय के साथ संघ से प्रतिबंध हटा और संघ पुनः पुनर्गठित हुआ । वर्ष 1949 में श्री बाला साहब देवरस जी ने रामसिंहजी को कलकत्ता बुलाया । योजना उत्तर-पूर्वी राज्यों में संघ कार्य का विस्तार करने की थी। उसी बैठक में श्री गंगा बिशन, श्री बाबूराव पल्धिकर और श्री आगरकर को भी आमंत्रित थे । सरसंघचालक गुरू जी ने ठाकुर रामसिंह को असम प्रांत का दायित्व सौंपा । उन्होंने 1949 से 1971 तक 22 वर्षों तक इस दायित्व को कुशलतापूर्वक संभाला । 1962 के चीनी-आक्रमण के समय गैर-असमी लोग असम से भागकर देश के अन्य सुरक्षित स्थानों पर जा रहे थे। उस समय ठाकुर जी न केवल असम में डटे रहे, अपितु वे इस रणनीति बनाने में व्यस्त हो गये कि यदि चीनियों के असम पर अतिक्रमण किया तो संघ के स्वयंसेवक कैसे उस परिस्थित का सामना करें । इस रणनीति निर्माण में उस समय के वरिष्ठ प्रचारक एकनाथ रानाडे भी उनके साथ थे । उसी वर्ष एक सड़क-दुर्घटना में उनका दाहिना पैर टूट गया, एक आँख में भी चोट आई किन्तु अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के कारण वह पुनः अपने पैर पर खड़े हो गये और पुनः उसी तत्परता से काम में जुट गये।
असम के प्रांत-प्रचारक के रूप में उन्होंने स्थानीय असमिया भाषा लिखना, पढ़ना और बोलना सीख लिया । असम में अपनी कार्यनिष्ठा, व्यवहार और सम्पर्क से पचास से अधिक प्रचारक निकाले। वे अपने कार्य के प्रति कितने संकल्पनिष्ठ थे इसका अनुमान 1967 में मिला । उनके पिता का निधन हुआ तब वे कलकत्ता में बैठक ले रहे थे । उन्हे पिताजी के निधन का टेलीग्राम दिया गया । उन्होने पढ़ा और पास में रखकर बैठक पूरी की । फिर पिता के अंतिम संस्कार केलिये निकले । पिता के निधन के बाद माता अकेली रह गईं। जब संघ के अधिकारियों को पता चला तो सरसंघचालक गुरुजी की अनुमति से उन्हें पंजाब प्रांत का सहप्रांत प्रचारक का दायित्व सौंपा गया। फिर वे उत्तर क्षेत्र प्रचारक बने। ठाकुर रामसिंह को 1988 में अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना का दायित्व दिया गया। उन्होंने अनुभवी प्रचारक मोरोपंत पिंगले के मार्गदर्शन में यह काम आरंभ किया जो मूल रूप से इस परियोजना के संस्थापक थे।
1992 में आंध्र प्रदेश के वारंगल में आयोजित दूसरे राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्हें सर्वसम्मति से अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। उनके लिए यह एक बड़ी चुनौती का कार्य था चूंकि वे इतिहास के अध्येता थे । इसलिये उन्होंने इस चुनौती को सहर्ष स्वीकार कर किया और अपने कार्य का केन्द्र दिल्ली बनाया । संघ की यह इतिहास संकल्प योजना देश के वास्तविक इतिहास को सामने लाने की थी । इस काम में ठाकुर रामसिंह मानों डूब गये । इस दायित्व का बाद उन्होंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण देश का प्रवास किया तथा अनेक इतिहासकारों को संगठितकर भारतीय इतिहास रचना में एक नया अध्याय जोड़ा । उनके प्रयास से 1991 मे इतिहास संकलन समिति का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हुआ जिसमें देश के 70 इतिहासकारों ने भाग लिया । इसके बाद प्रतिवर्ष वार्षिक अधिवेशन की योजना बनी । इतिहासकारों ने इतिहास के वास्तविक सत्य को समाज के सामने रखना आरंभ किया ।
आयु की अधिकता हो जाने पर 2003 की संघ की कुरुक्षेत्र-बैठक में ठाकुर रामसिंह जी को सभी दायित्वों से मुक्त किया गया। लेकिन उनके भीतर कार्य करने की उत्कट इच्छा थी । वे जीवनपर्यंत सक्रिय रहना चाहते थे । यह उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम था कि वे निरन्तर कार्य में लगे रहे और अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, बाबा साहेब आपटे स्मारक समिति का अनवरत मार्गदर्शन करते रहे। जीवन के अन्तिम वर्षों में ठाकुर रामसिंह जी ने इतिहास अनुसंधान की इस योजना के शोध-प्रकल्प के रूप में नेरी, हिमाचलप्रदेश में ‘ठाकुर जगदेव चन्द शोध-संस्थान’ के निर्माण में संलग्न रहे। इसकी नींव उन्होंने अगस्त 2010 में रखी । जो पाँच वर्षीय योजना थी । अर्थात उन्होने 95 वर्ष की आयु में भी अगले 5 वर्षों की कार्ययोजना बना रखी थी। वे रात दिन इसी योजना की सफलता में लगे रहे और अंततः 06 सितम्बर 2010 को उनका स्वर्गवास हो गया।
वे जहाँ रहे जिस दायित्व में रहे उन्होंने वहाँ एक नई लकीर खींची। यदि पंजाब में उन्होंने टोली बनाकर सशस्त्र हमलावरों से पीड़ित समाज की सेवा और रक्षा की तो असम में वामपंथियों के कुप्रचार और घुसपैठ के विरुद्ध अभियान चलाया । इसलिये उन्हे साधारण नहीं यौद्धा प्रचारक कहा गया ।