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भक्ति आंदोलन के उन्नायक सन्त दादू

भक्ति आंदोलन के उन्नायक सन्त दादू

by हिंदी विवेक
in अध्यात्म, विशेष, व्यक्तित्व, संस्कृति, सामाजिक
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भारत सदा से सन्तों की भूमि रही है। जब-जब धर्म पर संकट आया, तब-तब सन्तों ने अवतार लेकर भक्ति के माध्यम से समाज को सही दिशा दी। ऐसे ही एक महान् सन्त थे दादू दयाल।

दादू का जन्म गुजरात प्रान्त के कर्णावती (अमदाबाद) नगर में 28 फरवरी, 1601 ई0 (फाल्गुन पूर्णिमा) को हुआ था; पर किसी अज्ञात कारण से इनकी माता ने नवजात शिशु को लकड़ी की एक पेटी में बन्दकर साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया।

कहते हैं कि लोदीराम नागर नामक एक ब्राह्मण ने उस पेटी को देखा, तो उसे खोलकर बालक को अपने घर ले आया। बालक में बालसुलभ चंचलता के स्थान पर प्राणिमात्र के लिए करुणा और दया भरी थी। इसी से सब लोग इन्हें दादू दयाल कहने लगे।

विवाहोपरान्त इनके घर में दो पुत्र और दो पुत्रियों का जन्म हुआ। इसके बाद इनका मन घर-गृहस्थी से उचट गया और ये जयपुर के पास रहने लगे। यहाँ सत्संग और साधु-सेवा में इनका समय बीतने लगा; पर घर वाले इन्हें वापस बुला ले गये। अब दादू जीवनयापन के लिए रुई धुनने लगे।

इसी के साथ उनकी भजन साधना भी चलती रहती थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी। केवल हिन्दू ही नहीं, तो अनेक मुस्लिम भी उनके शिष्य बन गये। यह देखकर एक काजी ने इन्हें दण्ड देना चाहा; पर कुछ समय बाद काजी की ही मृत्यु हो गयी। तबसे सब इन्हें अलौकिक पुरुष मानने लगे।

दादू धर्म में व्याप्त पाखण्ड के बहुत विरोधी थी। कबीर की भाँति वे भी पण्डितों और मौलवियों को खरी-खरी सुनाते थे। उनका कहना था कि भगवान की प्राप्ति के लिए कपड़े रंगने या घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। वे सबसे निराकार भगवान् की पूजा करने तथा सद्गुणों को अपनाने का आग्रह करते थे।

आगे चलकर उनके विचारों को लोगों ने ‘दादू पन्थ’ का नाम दे दिया। इनके मुस्लिम अनुयायियों को ‘नागी’ कहा जाता था, जबकि हिन्दुओं में वैष्णव, विरक्त, नागा और साधु नामक चार श्रेणियाँ थीं। दादू की शिक्षाओं को वाणी कहा जाता है। वे कहते थे –

दादू कोई दौड़े द्वारका, कोई कासी जाहि
कोई मथुरा को चले, साहिब घर ही माहि।।

जीव हिंसा का विरोध करते हुए दादू कहते हैं –

कोई काहू जीव की, करै आतमा घात
साँच कहूँ सन्सा नहीं, सो प्राणी दोजख जात।।

दादू दयाल जी कबीर, नानक और तुलसी जैसे सन्तों के समकालीन थे। जयपुर से 61 किलोमीटर दूर स्थित ‘नरेना’ उनका प्रमुख तीर्थ है। यहाँ इस पन्थ के स्वर्णिम और गरिमामय इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।

यहाँ के संग्रहालय में दादू महाराज के साथ-साथ गरीबदास जी की वाणी, इसी पन्थ के दूसरे सन्तों के हस्तलिखित ग्रन्थ, चित्रकारी, नक्काशी, रथ, पालकी, बग्घी, हाथियों के हौदे और दादू की खड़ाऊँ आदि संग्रहित हैं। यहाँ मुख्य उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा को होता है। इस अवसर पर लाखों लोग जुटते हैं, जो बिना किसी भेदभाव के एक पंगत में भोजन करते हैं।

निर्गुण भक्ति के माध्यम से समाज को दिशा देने वाले श्रेष्ठ समाज सुधारक और परम सन्त दादू दयाल इस जगत में साठ वर्ष बिताकर 1660 ई0 में अपने परमधाम को चले गये।

संकलन – विजय कुमार 

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Tags: devotionsant dadu dayal

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