ब्रज में होली के आनंद में झूमे लोग

वृन्दावन, ब्रजमंडल में सवा महीने तक चलने वाले फाग महोत्सव का शुभारंभ बसंत पंचमी के दिन होली का ढांड़ा गड़ने के साथ हो जाता है। ब्रज के इतिहास में होली का त्योहार महापर्व के रूप में मनाया जाता है। ब्रज की होली का प्राचीन स्वरूप व इतिहास यहां के रसिक संतों और भक्तों की वाणीयों में रचित है। प्रख्यात भक्त कवि रसखान जी अपनी रचना में ब्रज में खेली जाने वाली होली को “होरा” कहकर संबोधित किया है, जो कि इस प्रकार है – “जगत होरी ब्रज होरा, ऐसा देश निगोरा। ” सम्पूर्ण जगत में होली खेली जाती है अपितु ब्रजमंडल में “होरा” खेला जाता है। यहां बरसाना, नंदगाम, गोकुल, महावन, बलदेव, बठैन, फालैन, मथुरा और वृन्दावन आदि स्थानों पर भिन्न – भिन्न प्रकार की होली खेली जाती है।

गोवर्धन के प्रख्यात कवि घासीराम जी ब्रजभाषा के जाने – माने कवि थे।उन्होंने ब्रज भाषा में होली के भजन, रसिया, कवित्त, सवैया आदि रचनाओं के माध्यम से ब्रज की होली का बखान किया है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं – ” जब ते धोखो देखें गयौ श्याम संग नाहें खेली होरी”, ” मैं तौ सोये रही सपने में, मोपै रंग डारौ नंदलाल।” इनके अलावा उनका सुप्रसिद्ध होली का भजन है – ” फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंदकिशोर”। घासीरम जी ने अपनी होली से सम्बन्धित रचनाओं से ब्रज में खेली जाने वाली होली को एक उच्च स्तर प्रदान किया है।

इनके अलावा ब्रज के प्रख्यात रासाचार्य स्वामी मेघश्याम शर्मा ने भी ब्रज की होली पर आधारित कई रसियाओं का लेखन किया, जो कि विश्वप्रसिद्ध हैं। जिन्हें कि ब्रज में होने वाली रास मंडलियों में कृष्णलीलाओं में अभी भी गाया जाता है, जो कि इस प्रकार हैं – ” खातिर करलै नई गुजरिया, रसिया ठाड़ो तेरे द्वार” , “होरी सौ त्योहार मनायलै नारि हवेली पै।” ब्रजभाषा में रचित होली के रसियाओं में यहां भिन्न – भिन्न प्रकार से खेली जाने वाली होली का विस्तार से वर्णन है। यहां खेली जाने वाली होली का आनन्द बच्चों से लेकर बूढ़े भी बड़े ही चाव से लेते हैं।

ब्रज की होली का वर्णन ब्रजभाषा के कई भक्त कवियों ने भी अपनी रचनाओं में किया है,वह ये हैं- पद्माकर, पुरुषोत्तम, चंद्रसखी, श्यामा सखी, सूरदास, नारायण, गोविन्द प्रभु, ललित किशोरी, कृष्ण जीवन,कृष्ण प्रिया, लच्छी राम, बलवीर, राधेश्याम आदि ने भी अपनी रचनाओं में ब्रज की होली का रसास्वादन किया है। जिन्हें श्रवण करने मात्र से ब्रज में खेली जाने वाली होली का चित्रांकन स्वत: ही उत्पन्न हो उठता है।

– डॉ. राधाकांत शर्मा

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