राष्ट्रपति भवन के गार्डन का नाम बदलकर ‘अमृत उद्यान’ किए जाने पर कुछ लोगों को तकलीफ हो रही है। पूरा देश जानता है कि मुगल और अंग्रेजकालीन नाम देश की गुलामी के प्रतीक हैं इसलिए उनको मिटाया जाना आवश्यक है। अभी बहुत सारे प्रतीक देशभर में बिखरे पड़े हैं, जिन के नाम बदल दिए जाने चाहिए।
देश ने पिछले साल ही आजादी के 75 साल पूरे किए। इस अवसर पर पूरा देश ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है। अमृत महोत्सव के अवसर पर भारत के माननीय राष्ट्रपति ने मुगल गार्डन के नाम से प्रसिद्ध राष्ट्रपति भवन के उद्यान को एक नया नाम ‘अमृत उद्यान’ दिया है। शहरों या भवनों के नाम बदलने की परम्परा भारत में पुरानी है। सरकार ने भी मुगलसराय जंक्शन, फैजाबाद और इलाहाबाद के नाम बदले हैं। 100 साल पुराने मुगल उद्यान का नाम बदले जाने पर कई नेताओं ने राष्ट्रपति के इस फैसले का स्वागत किया है। मुगल शब्द चाहे उद्यान के आर्किटेक्ट की वजह से जुड़ा हो लेकिन आम जनता जब भी राष्ट्रपति भवन के अंदर गार्डन में आती है, उसे उद्यान के वास्तु या वास्तुकार से कोई लेना देना नहीं होता। वह तो बस अपने देश के राष्ट्रपति भवन को बस एक बार निहारने भर आती है। जिनकी इतिहास में रूचि है, कला और वास्तु की समझ रखते हैं, वे तो किताबों में वह इतिहास तलाश ही लेंगे लेकिन देश की आम जनता मुगलों और अंग्रेजों की किसी भी निशानी को गुलामी का प्रतीक ही मानती है। ऐसे सभी प्रतीकों की समय रहते समाप्ति हो जाए, यही देश का आम आदमी चाहता है। आज जब भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री 26 जनवरी और 15 अगस्त को लालकिले से झंडा फहराते हैं। ऐसा लगता है कि आजादी के अमृत महोत्सव का यह साल क्या हमारी आजादी और गणतंत्र के उत्सव को लाल किले से मुक्त होने का भी महोत्सव होगा? मुगलिया सल्तनत से लेकर अंग्रेजी अत्याचारों के इतिहास का आख्यान है लाल किला। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने मुगल गार्डन का बोर्ड हटाये जाने का वीडियो शेयर करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा, वेलकम… वेलकम… वेलकम।
जिस तरह हमने अंग्रेजी हुकूमत वाले संसद भवन को गुड बाय कहने के लिए नए संसद भवन की तैयारी प्रारम्भ कर दी है, आजादी के अमृत महोत्सव में हमें लाल किले से लेकर तिरंगा को सेंट्रल विस्टा तक लाना चाहिए।
कुछ लोग सवालों के बड़े धनी होते हैं। उनके पास हर अवसर के लिए सवाल होते हैं। ऐसे ही लोगों के लिए अमर्त्य सेन ने ’द आर्गुमेंटेटिव इंडियन’ लिखा होगा। ऐसे ही लोग सवाल पूछ रहे हैं, मुगल गार्डन का नाम अमृत उद्यान क्यों किया गया? नाम से क्या फर्क क्या पड़ता है?
यह सुनकर लगता है कि यह बात सही है लेकिन थोड़ा अध्ययन करने से हम समझते हैं कि नाम बदलने के पीछे की राजनीति क्या है? जब इस्लामिक लूटेरे भारत आए। यहां कब्जा किया तो उन्होंने सिर्फ हमसे सोना, चांदी नहीं लूटा। उन्होंने हमसे हमारी पहचान भी लूटी। लाखों मंदिर देश भर में ध्वस्त कर दिए गए। ज्ञानवापी, अयोध्या, काशी जैसे उदारहण देश भर में भरे पड़े हैं।
पत्रकार रूबिका लियाकत बागेश्वर धाम के आचार्य धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री से साक्षात्कार के दौरान कहती हैं कि, मुझे पता है कि हमारे पूर्वज हिंदू थे। हम कन्वर्ट हुए हैं। अब हमने इस्लाम मान लिया है और हमारा इस पर अटूट विश्वास है।
यहां सवाल है कि कन्वर्टेड मुस्लिमों या क्रिश्चियनों की पहली पीढ़ी जिसने भारत में इस्लाम या ईसाई मत कुबूल किया, उन्होंने स्वेच्छा से किया या फिर लोभ में आकर या तलवार के जोर पर। तीसरी-चौथी पीढ़ी आते आते यह कहानी किसी को याद नहीं रहती। 2003 में किरण खेर, आमिर अली मलिक, अरशद महमूद की एक फिल्म आई थी ‘खामोश पानी’। जिसमें भारत पाकिस्तान के बंटवारे के समय अपनी अस्मत बचाने के लिए लड़कियां कुएं में कूद कर जान दे रही थी। एक पंजाबी सिख लड़की कुंए में कूद नहीं पाती। जान देने का डर रहा होगा। वह बंटवारे के बाद बने पाकिस्तान में शादी करके कन्वर्ट कर ली जाती है। उसका नया नाम आएशा रखा जाता है। उसके पति की मृत्यु के बाद उसका एक बेटा होता है जो पाकिस्तान में 70 के दशक में बचे खुचे हिंदूओं को बाहर करने के आंदोलन में शामिल होता है। खामोश पानी फिल्म में एक ऐसी स्थिति आती है, जिसमें आएशा बनी किरण खेर की सच्चाई उसके मुस्लिम बेटे पर जाहिर हो जाती है। वह हिंदुओं के खिलाफ पाकिस्तान में चल रहे आंदोलन का नेता होता है। उसकी खुद की मां हिंदू परिवार से आई है। यह जानकर वह दुखी होता है। फिल्म में ऐसी स्थिति बनती है कि जिस कुएं में कूदने से बचकर किरण खेर सिख से मुसलमान बनी थी। आजादी के लगभग 25 साल के बाद कन्वर्ट हुई आएशा को उसी कुंए में कूद कर अपनी जान देनी पड़ती है।
बहरहाल नाम में कुछ नहीं रखा और लव जिहाद को काल्पनिक साबित करने वालों को पहले इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि मुसलमान लड़के से शादी करने के बाद हिंदू या क्रिश्चियन लड़की को एक नया नाम क्यों दिया जाता है। जैसे राखी सावंत एक अच्छा नाम था। जब नाम से कुछ फर्क नहीं पड़ता तो फिर उसे आदिल से निकाह करके फातिमा क्यों बनना पड़ा? जब प्रेम दोनों ने किया था। एक का नाम परिवर्तन आवश्यक था तो आदिल ही अपना नाम जॉन इब्राहिम रख लेता।
सैफ अली खान से शादी करने के बाद करीना कपूर खान हो गई लेकिन सैफ अली कपूर नहीं हुए। यदि नाम में कुछ नहीं रखा तो करीना खान और सैफ अली खान अपने बेटे का नाम फिरओन, नमरूद या शद्दाद क्यों नहीं रख सकते थे? खान परिवार को तैमूर नाम ही पसंद क्यों आया? इसलिए क्योंकि 1398 ई. में तैमूर ने जब भारत पर बर्बरतापूर्वक आक्रमण किया, उसने हिंदूओं का कत्ले आम किया। अपनी जीवनी ‘तुजुके तैमूरी’ को तैमूर कुरान की एक आयत से ही शुरू करता है। जिसमें वह लिखता है कि, “ऐ पैगम्बर काफिरों और अल्लाह पर ईमान न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सख्ती बरतो।” तैमूर ठहरता नहीं, आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है-
“हिंदुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर मूर्तिपूजक हिंदुओं के विरुद्ध जिहाद करना है, जिससे इस्लाम की सेना हिंदुओं की दौलत, गुलाम और महिलाओं को लूटकर ले जा सके।”
इतिहासकारों का मानना है कि जिस महीने में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया था, वह दिसम्बर का महीना था। करीना खान और सैफ अली खान के बेटे का जन्म भी संयोगवश दिसम्बर में हुआ। सम्भव है कि हिंदुओं को नेस्तनाबूत करने के उद्देश्य से तैमूर भारत आया था, इसलिए तैमूर के अम्मी-अब्बू को यह नाम पसंद आया होगा। सच में यदि नाम में कुछ नहीं रखा तो कोई मुसलमान अपने बेटे का नाम फिरओन, नमरूद या शद्दाद क्यों नहीं रखता?
आजादी के अमृत महोत्सव में एक-एक करके वे सारे प्रतीक और नाम धीरे-धीरे इसी तरह मिटें और भारतीय गौरवऔर परम्परा की जय की शताब्दी बने यह अमृत महोत्सव। यही हर एक भारतीय की मनोकामना है।