स्त्री और पुरुष इस समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। यदि कोई भी पहिया कमजोर या क्षतिग्रस्त होगा तो समाज की प्रगति बाधक होगी। कुछ समय पहले तक महिलाओं को दोयम दर्जे के व्यवहार का सामना करना पड़ता था, जिसमें बहुत तेजी से बदलाव हुआ है। समय आ गया है कि समाज की प्रगति के दोनों सोपानों को समान अधिकार मिले।
हमारा समाज जहां यही कल्पना की जाती है, कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं… दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं… दोनों के अस्तित्व की कल्पना एक दूसरे के बिना की नहीं जा सकती…वही कहीं न कहीं हमारा यही समाज हमें कुछ हकीकत से रूबरू करवा कर हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या वाकई स्त्री पुरुष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं? एक दूसरे के पूरक हैं? हकीकत यहां कुछ और ही है… हमारा समाज कहीं न कहीं दोहरी विचारधारा पर जी रहा है… भले आज भारत में लोग साक्षर हैं, जमाना बदल रहा है लेकिन कुछ पुरानी मानसिकता आज भी लोगों का पीछा नहीं छोड़ रही है। एक स्त्री पूरे परिवार की धुरी होती है जिसके बिना परिवार की कल्पना अधूरी है। वह पूरे परिवार को समेट-संवारकर चलती है, कभी भी उसे बिखरने नहीं देती। इसके पीछे एक स्त्री को कई त्याग, समर्पण भी करने होते हैं, अपने सपनों का गला घोटना होता है, लेकिन फिर भी वो सशक्त होकर एक पत्नी, एक बहू, एक मां, एक बेटी, एक बहन की भूमिका बखूबी निभाती है। उसे अपने परिवार के पीछे अपने सपनों को त्यागने में जरा भी अफसोस नहीं होता। लेकिन इन सब त्याग के बावजूद प्रश्न ये उठता है, क्या हर स्त्री को वो सम्मान, प्यार और परिवार में स्थान मिल पा रहा है जिसकी वो हकदार है? भले रेशियो कम है और जमाना बदल चुका है लेकिन उन 1 या 2 प्रतिशत को भी तो इग्नोर नहीं किया जा सकता जिनके साथ आज के जमाने में भी कुछ ऐसी चीजें हो रही हैं, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इंसान बड़ा अपने कर्मों और सोच से बनता है।
फिर यही समाज जो खुद को वेल एजुकेटेड और समझदार समझता है वही समाज स्त्री , पुरुष में इतना भेद क्यों करता है? क्या हमारे सिस्टम में यह परमानेंट तय हो चुका है, या पत्थर की लकीर बन चुकी है कि एक स्त्री यही काम करेगी या एक पुरुष यही काम करेगा या फिर दोनों की सीमाएं तय कर दी गयी हैं कि एक स्त्री की सीमा कुछ बंधनों में सिमट कर रह गयी है और एक पुरुष की सीमा का तो कोई दायरा ही नहीं है। मैं यहां अपने अनुभवों के आधार पर दोनों पक्षों को जरूर रखना चाहूंगी, जो मैंने आंखों देखी हैं। आज के बदलते जमाने में सिर्फ स्त्री के शोषण और उसकी तरक्की की ही बात नहीं की जा सकती बल्कि एक पुरुष के शोषण और तरक्की की भी बात करनी होगी। किसी भी मुद्दे में निष्पक्षता अति अनिवार्य है, क्योंकि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। पारदर्शिता हर बात में जरूरी है।
सर्वप्रथम मैं यहां पक्ष रखना चाहूंगी एक स्त्री का जो दो परिवारों की दो कुल की लक्ष्मी होती है। सबकुछ जोड़ने और सबकुछ तोड़ने की क्षमता भी एक स्त्री में ही होती है। आज एक स्त्री हर क्षेत्र में सफल हो सकती है चाहे वो घर हो या बाहर के काम। उसकी क्षमता को एक पुरुष से कम आंकना बिल्कुल भी सही नहीं होगा। एक बाहर काम करती स्त्री न केवल अपने पति-अपने परिवार का आर्थिक रूप से सहयोग कर सकती है अपितु अपने बच्चों का भविष्य संवार सकती है। इस महंगाई के युग में वह अपने पति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती है।
लेकिन हमारे समाज के कुछ घरों में यह बात हजम नहीं होती कि एक स्त्री बाहर जाकर कमाए और यदि वह पद और इनकम में अपने पति से अधिक है तो भी उलाहना झेलती है जीवन भर…यह एक पुरुष को नागवार गुजरता है। स्त्री पढ़-लिखकर चूल्हे और घर तक सिमट जाए तो भी उसे त्रास और उलाहना झेलना पड़ता है कि, जीवन भर तुमने इतना पढ़-लिखकर आखिर किया ही क्या है? फलाने की बहू को देखो आज घर और बाहर दोनों जगह के काम सम्भाल रही है। आज हर स्त्री को आर्थिक रूप से समर्थ बनना ही होगा। पति पर आश्रित पत्नी को बहुत कुछ झेलना पड़ता हैं, मेेरा आंखों देखा अनुभव है। थोड़े-थोड़े पैसों के लिए मन मारते हुए और पति के घर वालों के सामने हर चीज के लिए हाथ फैलाती स्त्री कितनी बेबस नजर आती है! आज हमारा समाज स्त्रियों को सशक्त बनाये, बच्चियों की शिक्षा और विकास पर जोर दे ताकि एक बच्ची पढ़-लिखकर कुछ बन सके तथा जीवन में एक सशक्त स्त्री की भूमिका निभाये। एक स्त्री, घर हो चाहे बाहर के कार्य, समाज में दोनों ही जगह बराबर सम्मान और प्रेम पाए। यह शुरुआत हमें अपने घर से ही करनी होगी तभी यह समाज उन्नति कर सकेगा क्योंकि जब स्त्री का सम्मान नहीं होता तो घर और समाज सिर्फ और सिर्फ पतन की ओर जाते हैं।
अब मैं यहां समाज का एक दूसरा पहलू भी रखना चाहूंगी जो कि एक पक्ष ही नहीं बल्कि समाज का कटु सत्य है। सर्वप्रथम हमें समाज से दहेज जैसी कुप्रथा को दूर करना होगा। अब आप यही कहेंगे कि, अरे अब जमाना बदल गया है। अब दहेज प्रथा है ही नहीं। तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, लड़के वालों को लुभाने के लिए जो महंगे-महंगे गिफ्ट्स दिए जाते हैं, मुझे तो वह भी दहेज का ही हिस्सा लगता है। ससुराल पक्ष आसानी से कह देते हैं कि, आप तो बस शादी धूमधाम से कीजिये। हमें दहेज में कुछ नहीं चाहिए। लेकिन कई जगह पर इसके पीछे का सच और मायने ही कुछ अलग हैं। धूमधाम से शादी करने में ही एक पिता की हालत खराब हो जाती है, और एक पिता अपनी बेटी को कुछ दिए बिना भेज दे यह भी नहीं हो सकता। महंगे गिफ्ट्स और कैश ही एक पिता की कमर तोड़ देते हैं। हमारे समाज में यदि सिम्पल तरीके से शादी की प्रथा शुरू हो जाये और तामझाम व दिखावा बंद हो जाये तो बहुत हद तक कुछ चीजें सुधर सकती हैं
एक काम करती स्त्री यदि घर वालों का सहारा बने तो बेहद गर्व की बात है लेकिन अगर एक ऊंचे पद पर काम करती स्त्री में घमंड आ जाये तो भी परिवार में कलह का कारण बनता है। पति छोटे पद पर है या किसी वजह से उसकी जॉब चली गयी है तो इसी समाज मे कुछ स्त्रियां ऐसी भी हैं जो पति की मर्दानगी पर ताने मार-मारकर उसे त्रास देती हैं और उसका जीना हराम कर देती हैं। वह स्त्री अपने आपको ही सर्वोपरि समझने लगती है। बेचारा पुरुष आत्मग्लानि में कभी-कभी गलत कदम उठा लेता है।
ऐसी परिस्थितियां जहां स्त्री की तरफ से पुरुष को या पुरुष की तरफ से स्त्री को उलाहना या त्रास झेलना पड़े, भयावह होती है और दोनों में से किसी के भी आत्महत्या का कारण बन सकती है।
हमारे समाज में आज भी इस नियम को ही चलाया जा रहा है कि एक ऊंचे पद पर सरकारी नौकरी में पदस्थ लड़का किसी कम पढ़ी लिखी या घरेलू लड़की से तो शादी कर सकता है लेकिन एक ऊंचे पद पर कार्यरत स्त्री अपने से कम पढ़े लिखे और कम इनकम वाले लड़के से शादी करने से कतराती है। हमारे समाज में इतना भेद भाव क्यों? जब पुरुष अकेला कमाकर पूरे घर को और अपनी पत्नी को सम्भाल सकता है तो वही बुरी परिस्थिति आने पर एक अकेली स्त्री कमाकर क्यों पूरे घर और पति को नहीं सम्भाल सकती? इन सभी विषमताओं को हमारे समाज से हटाना होगा और जब तक यह नहीं हटेगा, स्त्री पुरुष समानता की बात करना ही बेकार है…स्त्री और पुरुष दोनों ही मिलकर इस समाज की रचना करते हैं… मां लक्ष्मी नारायण के बिना अधूरी हैं, वही भगवान शिव पार्वती के बिना अधूरे हैं… हमारे समाज मे स्त्री पुरुष दोनों का ही वर्चस्व बराबर हो, तभी एक स्वस्थ समाज की कल्पना हो सकती है… नर तू नारायण है… नारी तू नारायणी है।