21वीं सदी और महिलाओं की स्थिति

महिलाएं बहुत तेजी से विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाती जा रही हैं लेकिन महिला विकास की गति कछुए की गति से चलायमान है। समाज और परिवार में जब भी कटौती की बात उठती है तो उसकी सबसे पहली शिकार महिला ही होती है। इसलिए जब तक महिलाओं की जागरूकता को लेकर समाज तीव्र गति नहीं अपनाता, समाज की प्रगति असम्भव है।

भारत सरकार द्वारा की गई साल 2011 की जनगणना के अनुसार देश में प्रति 1000 पुरुषों पर 933 महिलाएं हैं। वहीं कई राज्यों में महिलाओं की संख्या अत्यंत दयनीय है। आजाद भारत की पहली जनगणना साल 1951 में हुई थी, जिसमें 1000 पुरुषों पर 946 महिलाएं थीं। हालांकि भले ही महिलाओं की संख्या घटी हो लेकिन महिलाओं ने अपने लिए अवसर तलाशने के मौके नहीं छोड़े बल्कि वे मल्टी टास्कर के रूप में उभरकर सामने आईं और अपने लिए पहचान बनाने का तरीका ढूंढ़ लिया।

साल 2023 आ चुका है लेकिन आज भी अगर 21वीं सदी में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा की जा रही है, तो इसका साफ अर्थ यह है कि आज भी महिलाओं की स्थिति में उतने बदलाव नहीं हुए, जितने बदलावों की आकांक्षा थी। हालांकि इस बात को बिल्कुल भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि महिलाओं की स्थिति में बदलाव नहीं हुए हैं क्योंकि आज महिलाओं की भागीदारी उन क्षेत्रों में भी बढ़ी है, जिसमें पुरुषों का आधिपत्य माना जाता था। महिलाओं ने उन बेड़ियों को तोड़कर आजाद होने की कोशिश की है, जिसमें वे जकड़ी हुईं थी लेकिन 21वीं सदी में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। वे अकेले बाहर आ-जा नहीं सकतीं, उन्हें रात्रि में बाहर निकलने में भय का सामना करना पड़ता है, किसी भी प्रतियोगी परीक्षाओं में महिलाओं का केंद्र उनके घर के समीप ही दिया जाता है क्योंकि कहीं ना कहीं महिलाओं को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ ये मंशा भी सबको पता होती है कि अगर केंद्र बाहर दिया गया, तो कई महिलाएं परीक्षा नहीं दे पाएंगी।

विकसित क्षेत्रों में भी महिलाओं की दयनीय स्थिति

ना केवल ग्रामीण बल्कि शहरी क्षेत्रों एवं मेट्रो सिटी की हालत भी दयनीय है। आपको श्रद्धा वालकर एवं कंझावला इलाके में हुई घटना तो याद होगी। जहां पहली घटना में श्रद्धा को टुकड़ों में काट दिया गया तो वहीं दूसरी घटना में युवती को करीब 12 किलोमीटर तक कार से घसीटा गया था। ऐसे में इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाओं के प्रति हिंसा 21वीं सदी में भी नहीं थमी है। महिलाएं आज भी हिंसा की शिकार होती हैं, जैसे- दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाना, मानसिक रूप से प्रताड़ित करना, बलात्कार, अपहरण, हत्या- महिला एवं भ्रूण की हत्या आदि। आए दिन ऐसी खबरें आती हैं और खबर से परिचित होने के बाद कई घरों में लोग अपनी ही बहू, बेटी या बहन आदि पर प्रतिबंध लगा देते हैं, जो स्वयं में ही एक हिंसा ही है जबकि इनका पुरजोर विरोध होना चाहिए ताकि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कमी आए।

कोरोना के वक्त छूटा शिक्षा का अधिकार

ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी कई लड़कियां स्कूल नहीं भेजी जाती क्योंकि असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले अभिभावकों का मानना होता है कि अगर बच्ची स्कूल चली जाएगी, तब घर के काम कौन करेगा, घर में छोटे बच्चों को कौन संभालेगा? इतना ही नहीं कोरोना के वक्त जब शिक्षा का डिजिटलीकरण हो रहा था, तब भी लड़कियों के हाथों में कलम नहीं थी, ऐसे में लड़कियों की शिक्षा के लिए स्मार्टफोन की सुविधा प्रदान करना बहुत दूर की बात लगती है। ऐसे में कहां हुआ है महिलाओं का विकास? आज भी स्थिति यथा ही बनी हुई है। अगर वाकई महिलाओं की स्थिति सुधरी होती या बदलाव की ओर अग्रसर होती, तो क्या डिजिटलीकरण के दौरान स्थिति इतनी दयनीय होती?

हिंसा उत्पीड़न से पीड़ित महिलाएं

देखा जाए, तो महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के कई कारण हैं, जैसे- पितृसत्तामक समाज, महिलाओं एवं पुरुषओं के बीच संसाधनों का असमान वितरण, लैंगिक जागरूकता का अभाव, घरेलू हिंसा को संस्कृति का हिस्सा मान लेना, कानून का कुशल तरीके से काम ना कर पाना और सबसे अहम कारण- महिलाओं द्वारा अन्याय का विरोध ना कर पाना इत्यादि। साथ ही जो महिलाएं भावनात्मक रूप से कमजोर होती हैं एवं दबावपूर्ण परिस्थितियों का सामना करती हैं, वैसी महिलाएं ही सामान्यतया हिंसा की शिकार होती हैं। महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा को कम करने के लिए भी अनेक प्रयास होते हैं लेकिन अफसोस इस बात का है कि वे प्रयास निरंतर नहीं चल पाते और बीच में ही अपना दम तोड़ देते हैं, जिससे महिलाओं की आवाज दब कर रह जाती है।

केवल महिला दिवस मनाने से नहीं होगा बदलाव

हर साल 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस एवं 13 फरवरी को सरोजिनी नायडू के जन्मदिन पर राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है लेकिन केवल ये दिवस मनाने की बजाय अगर अपने-अपने घरों की महिलाओं को ही सुदृढ़ बनाने की ओर कदम बढ़ाया जाए, तब ही समाज में किसी बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। अन्यथा हम फिर अगले साल इसी विषय पर घुमफिर कर बातें करेंगे और महिलाओं की स्थिति को ही चर्चा का विषय रखेंगे। जबकि अब समय महिलाओं को समान अधिकार देने और उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का है। अब समय आ गया है कि महिलाएं अपनी आवाज बुलंद करें और कहें कि, ‘केवल एक थप्पड़, लेकिन नहीं मार सकता।’ साथ ही बात अब केवल एक थप्पड़ की नहीं बल्कि अन्य अधिकारों की भी है, जिसकी हकदार एक महिला है।

– सौम्या जोत्सना 

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