हमारे परिवार एवं समाज में किशोर वय लड़कों के थोड़े अजीब व्यवहार को लेकर कहा जाता है कि, यह उम्र का असर है लेकिन लड़कियों के साथ ऐसा नहीं है। उनके शारीरिक परिवर्तन की वजह से होने वाली मानसिक परेशानियों को समझने के लिए कोई तैयार नहीं। परंतु कुछ घरों में अब बदलाव आरम्भ हो चुका है क्योंकि बहुत सी प्रगतिशील माताएं अपनी बेटियों को उस स्थिति से बचाना चाहती हैं जिसे वे बरसों पहले झेल चुकी हैं।
किशोरावस्था मनुष्य जीवन में बाल्यावस्था और वयस्कता के मध्य का चरण होता है, जिसमें शारीरिक विकास एवं विविध स्तर पर समायोजन शामिल होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 10 वर्ष से लेकर 19 वर्ष तक की आयुवर्ग को किशोरावस्था की श्रेणी में रखा है। ऐसा माना जाता है किशोरवय लड़कियों में संज्ञानात्मक विकास लड़कों की तुलना में अधिक प्रभाव डालता है, इसलिए उन्हें अपेक्षाकृत कई तरह की समस्याओं से गुजरना पड़ता है। यही समस्याएं उनके समक्ष चुनौतियां खड़ी करती हैं, जिनके समाधान हेतु एक कुशल और सशक्त मार्गदर्शन आवश्यक होता है।
किशोरावस्था में कदम रखते ही बालिकाएं किशोरियां कहलाने लगती हैं, उनमें मानसिक, शारीरिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन प्रारम्भ हो जाते हैं। लड़कियों की किशोरावस्था को गहराई से समझने के लिए इसे पूर्वार्ध और उत्तरार्ध स्थितियों में विभाजित किया जा सकता है। लड़कियों में किशोरावस्था के पूर्वार्ध के दौरान उनमें कल्पनाशीलता ज्यादा प्रभावी होती है। वे अपने जीवन को लेकर सपने बुनने लगती हैं, विशेष रूप से मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से लड़कों के प्रति उनमें आकर्षण पैदा होने लगता है। इन मनोभावों का यदि वैज्ञानिक कारण देखा जाए, तो लड़कियों में ऐसे भावों का पनपना एक स्वाभाविक व्यवहार है, क्योंकि उनमें लैंगिक गुणों का विकास होने लगता है। किशोरावस्था की शुरुआत शरीर में स्थित कुछ जीन और हार्मोनों के कारण होती है। विभिन्न शोधों से स्पष्ट हुआ है कि मानव में किशोरावस्था के लिए केआईएसएस1 और डॉक्टरआर54 नामक दो जीन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये दोनों जीन जन्म से ही मानव शरीर में सुषुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं और किशोरावस्था आने पर जाग्रत होकर मस्तिष्क को संकेत भेजना प्रारम्भ कर देते हैं। इसके साथ ही लड़कियों में मासिकचक्र प्रक्रिया का प्रारम्भ भी होता है। विज्ञान की भाषा में कहें तो किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों से प्रजनन परिपक्वता अस्तित्व में आने लगती है।
विज्ञान किशोरावस्था को जितना सरल ढंग से परिभाषित करता है, उतनी सहजता किशोर होती लड़कियों के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर दिखाई नहीं देती है। किशोर लड़कियां जब अचानक से स्वयं में शारीरिक परिवर्तनों को अनुभव करती हैं, तब वे उसकी वैज्ञानिकता से पूर्णतया अनभिज्ञ होती हैं। लड़कियां शारीरिक बदलावों जैसे स्तनों के विकास, मासिकचक्र, मुंहांसों से भरी त्वचा, अवांछित बालों का उगना, मोटापा, कुपोषण, आदि आकस्मिक गुणों को जब स्वयं में पाती हैं, तो उनका मानसिक रूप से परेशान होना निःसंदेह गलत नहीं हो सकता। परेशानी इस बात की होती है कि किशोरावस्था से गुजर रही लड़कियों के शारीरिक बदलाव उनमें लैंगिक परिपक्वता अवश्य ला रहे होते हैं, लेकिन उस अनुपात में लड़कियां मानसिक रूप से उतनी परिपक्व नहीं होती हैं, कि वे उन अनुभव किए जा रहे बदलावों की समीक्षा स्वयं कर सकें।
मनोवैज्ञानिक स्तर पर ये बदलाव उनमें कौतुहल, कई तरह के प्रश्न, उद्वेग और उत्तेजना पैदा करते हैं। यानी लड़कियों को सामान्य तो नहीं ही रहने देते हैं। उनकी यही असामान्यता उनको अपने निकटस्थ लोगों विशेषकर माता-पिता, भाई-बहन या अन्य रिश्तेदारों से दूरियां बनाने के लिए मजबूर करने लगती है। वे या तो अपनी ही तरह की किसी सहेली को खोजने लगती हैं अथवा अपनी बनाई एक आभासी दुनिया में रहना पसंद करती हैं, जहां कोई उन्हें रोक-टोक नहीं सकता। हालांकि इसके पीछे भी एक मनोविज्ञान काम करता है, जिसमें वे जिस बेरोक-टोक वाले आभासी संसार में स्वयं को सुरक्षित पाती हैं, उसके निर्माण का आधार ही रोक-टोक होता है। यह वही रोक-टोक होता है, जिस कारण उनके माता-पिता या सामाजिक रीति-रिवाज उनकी किशोरावस्था में किसी व्यवधान की तरह लगते हैं। माता-पिता की रोकटोक से उनमें एक तरह का चिड़चिड़ापन आने लगता है। उनमें एकाकीपन का भाव पनपने लगता है। कई बार यह एकाकीपन इस सीमा तक बढ़ जाता है कि, वे आत्महत्या करने जैसी सोच तक भी पहुंच जाती हैं।
हालांकि यह भी उतना ही सच है कि माता-पिता की अपनी किशोर बेटियों को दी जाने वाली सीखें हों या फिर हर बात में रोकने की प्रवृत्ति हो, उसके पीछे कुछ न कुछ शुभ ही छिपा होता है, क्योंकि वे कहीं न कहीं अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर भयभीत रहते हैं। इस रोकटोक में किशोर लड़कियों को उचित मार्गदर्शन दे पाने की सोच होती है। यह अवश्य कह सकते हैं कि लड़कियों के लिए यह सोच सिर्फ माता पिता की तरफ वाली ही होती है, इसमें बेटियों की सोच के लिए कोई स्थान कभी दिखाई नहीं दिया है। तभी वह रोक-टोक का नाम ले लेती है। अक्सर यह देखा गया है कि भारतीय समाज में, विशेष रूप से मध्यमवर्गीय और निम्नपरिस्थितियों में, रह रहे परिवारों में लड़कियों की किशोरावस्था के मनोविज्ञान को समझने वाली सोच है ही नहीं। भारतीय परिवारों में किशोर होती लड़कियों की तरफ उतना ध्यान नहीं दिया जाता है, बल्कि अचानक से परिपक्व हुईं युवतियों को लेकर उनके विवाह और घर बसाने जैसी सोच अधिक प्रचलन में रही है। किशोर होती लड़कियों को अपने शारीरिक परिवर्तनों और उनसे उठने वाले प्रश्नों के उत्तर स्वयं से ढूंढ़ने होते हैं। इसके लिए वे चाहे अपने परिवार या आसपास के समाज की स्त्रियों का अवलोकन करती हैं अथवा पुस्तकों, स्कूलों और सहेलियों की आपसी गुप्त परिचर्चाओं में उनके हल खोजती हैं। जीवन के इतने महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान भारतीय किशोरियों को एक सुनिश्चित पाठ्यक्रम के तहत नहीं मिला है, यही कारण है कि भारत में किशोर लड़कियों को चिंता, तनाव, असुरक्षा, एकाकीपन, जैसे अनेक मानसिक विकारों से जूझना पड़ा है। भारतीय परिवारों में लड़कियों को भावनात्मक स्तर पर समझने की परम्परा ही नहीं रही है, वे पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ सामाजिक व्यवस्थाओं को सम्भालती आई हैं।
लेकिन इक्कीसवीं सदी में विज्ञान और तकनीकी के विकास ने एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन किया है। भारतीय समाज पर भी इस बदलते तकनीकी दौर का प्रभाव पड़ा है। अद्यतन होती शिक्षा नीतियों से पाठ्यक्रमों में जुड़ी यौनशिक्षा हो या फिर पेड सेनिटाइजरों पर खुलेआम होने वाली चर्चाएं हों, इन सभी ने भारतीय परिवारों में भी अपनी किशोर होती बेटियों के मनोविज्ञान को पढ़ने के लिए माता-पिता को जागरूक किया है। किशोरावस्था में होने वाली अपनी बेटियों की मानसिक समस्याओं को अब भारतीय माताएं भी अपने बल पर सुलझाने में सक्षम हो पाई हैं। सम्भवतः इसका कारण पीढ़ियों का बदलाव भी माना जा सकता है, क्योंकि ये वे ही माताएं हैं, जो कभी बेटियां हुआ करती थीं और जिन्होंने अपने लाल होते कपड़ों, मुहल्लों के लड़कों और अपने ही निकट रिश्तेदारों की अश्लील हरकतों को सहनशीलता की हदों के पार तक अपनी किशोरावस्था में छिपाया था। उन पीड़ाओं को उन्होंने स्वयं अपनी किशोरावस्था में सहा है, इसलिए आज वे अपनी बेटियों का स्वयं आगे आकर समर्थन करती नजर आती हैं।
मोबाइल युग में इस समय भारत में भी किशोर लड़कियां अपनी उम्र से अधिक जानकारियां रखने लगी हैं। इसके लिए मोबाइल पर उपलब्ध त्वरित समाधान, परिवारों और स्कूलों में सम्बंधित विषयों पर पूरे खुलेपन के साथ होने वाला वार्तालाप, मनोचिकित्सकों के परामर्श को लेकर समाप्त होती हिचक, बालिका शिक्षा का बढ़ता प्रतिशत, अपने कैरियर के प्रति सजग होती किशोरवय युवतियां, आवश्यकताओं की सुलभता, मानसिक स्वास्थ्य मूल्यांकन, प्रशिक्षण, जागरूकता अभियान, सरकारी योजनाएं, जैसी कई पहलों ने भारतीय परिवारों में किशोर होती लड़कियों के लालन-पालन के लिए एक सकारात्मक सोच विकसित की है। इस तरह किशोर लड़कियों को उचित मार्गदर्शन एवं उनकी स्वतंत्रता और व्यक्तित्व को सम्मान मिलने से भारत में किशोर लड़कियों की अव्हेलना करने वाली रूढ़ीवादी रीति अब समाप्ति की ओर है।
– डॉ. शुभ्रता मिश्रा