मजहबी बंदिशों में उलझी मुस्लिम महिलाएं

एक तरफ विश्वभर में महिलाएं प्रगति की उड़ान भर रही हैं, दूसरी ओर मुस्लिम महिलाएं अभी भी उन्हीं बंदिशों में जीने के लिए विवश हैं। मोदी सरकार ने तीन तलाक जैसी अमानवीय प्रथा पर रोक लगाकर सार्थक कदम उठाया है परंतु मुस्लिम महिलाओं को भी आगे आकर आवाज उठानी चाहिए। 

किसी भी समाज की वास्तविक स्थिति उस समाज में रहने वाली स्त्रियों की दशा देखकर ज्ञात की जा सकती है। तभी तो स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि, जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी और न आगे उन्नति कर सकेगी। वास्तव में स्त्री, इस धरा पर सृजनात्मकता की प्रतीक है। स्त्री ही है, जो समाज की खेवनहार है लेकिन मुस्लिम समाज में आज भी महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है। पितृसत्ता और मजहबी बंदिशें मुस्लिम समाज में इतनी हावी हैं कि इक्कीसवीं सदी में भी महिलाएं न अपनी पसंद के व्यक्ति से प्यार कर सकती हैं और न ही मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ सकती हैं। मुगलिया काल देश से चला गया, लेकिन भारत में भी मुस्लिम समाज की स्त्रियों की दशा आज भी शोषित और वंचितों जैसी है।

समान अधिकार और सम्मान पर बंदिशें हावी हैं। इस कारण जहां दुनिया में अन्य समाजों की स्त्रियां आगे बढ़ रहीं हैं, वहीं मुस्लिम समाज की महिलाएं बुर्के में कैद होकर सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन बन गईं हैं। सोचिए कितने दुर्भाग्य की बात है कि अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक जवाब में ऑल इंडिया मुस्लिम लॉ बोर्ड ने कहा कि, महिलाएं, पुरुषों के साथ मस्जिद में नहीं बैठ सकती हैं। जो समाज एक स्त्री को अपने साथ पूजा स्थल में बैठने का अधिकार नहीं दे सकता है। उस समाज से स्त्रियां क्या ही उम्मीद कर सकती हैं? सच पूछिये तो महिलाओं की स्थिति इस्लाम में बद से बदतर हो चली है और मुल्ला-मौलवी स्त्रियों को सिर्फ भोग-विलास का साधन मात्र समझते हैं।

कुछेक महिलाओं को छोड़ दें तो मुस्लिम समुदाय में अधिकतर महिलाएं पीड़ित और शोषित हैं। इसके बावजूद भी जब कर्नाटक जैसी जगहों पर हिजाब मेरा अधिकार जैसे नारे बुलंद किए जाते हैं, फिर पर्दे के पीछे की औरत की क्या और कितनी हैसियत है? उसका डीएनए टेस्ट भी आवश्यक हो जाता है। गौरतलब हो कि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट के मुताबिक 37.6 फीसदी विवाहित मुस्लिम महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं। जिसमें मानसिक, शारीरिक और यौन हिंसा शामिल हैं। इतना ही नहीं तीन तलाक कानून आने से पहले तकरीबन 65.9 फीसदी महिलाओं का तलाक जुबानी हुआ है, जबकि 78 फीसदी का एकतरफा। ये हालत संविधानसम्मत देश में है। ऐसे में कट्टर इस्लामिक देशों में आधी आबादी पर क्या आफत बीत रही होगी, धर्म और मजहबी कट्टरता के बरक्स, यह सहज आंकलन किया जा सकता है। इस्लाम धर्म में महिलाएं परम्पराओं, सिद्धांतों और नियमों की बेड़ी में जकड़ी हैं और जब यही परम्पराएं तोड़कर आधी आबादी पूरी सांसें लेने की कोशिश करती है, तो मुल्ला-मौलवी उन्हें बदनीयत और न जाने कौन-कौन से शब्दों से सम्बोधित करते हैं।

धर्म और महजब की बेड़ियां बांध घूमने से पहले किसी को सिर्फ स्त्री-पुरुष में बांटा जा सकता है। स्त्री या पुरुष दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। फिर किसी एक को अधिक वरीयता क्यों दी जाती है? कोई भी मुस्लिम पुरुष अगर चार निकाह कर सकता है, तो मुस्लिम महिलाओं पर बंदिशें क्यों? क्या सभी मजहबी और धार्मिक परम्पराओं के निर्वहन का ठेका सिर्फ उन्हीं के सिर पर है? नहीं ना! हर किसी के पास एक दिल होता है और सभी अपने मन-मुताबिक जीवन जीना चाहते हैं। तो मुस्लिम महिलाएं गैर मुस्लिम से प्यार क्यों नही कर सकती? क्यों मुस्लिम महिलाओं को चार शादी की इजाजत नहीं? अगर एक मुस्लिम महिला को पति या परिवार रिवाज या परम्परा के नाम पर अन्य लोगों से शारीरिक सम्बंध बनाने के लिए बाध्य कर सकता है, फिर कोई मुस्लिम महिला अपने पसंद के व्यक्ति के साथ जीवन क्यों नहीं जी सकती? भले ही वह व्यक्ति दूसरे धर्म का क्यों न हो!

स्त्री-पुरुष में भेद नहीं होना चाहिए, क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन फिर भी आज इक्कीसवीं सदी में भी मुस्लिम समाज की स्त्रियां तलाक सम्बंधी अधिकार, धार्मिक कट्टरता, बहु-पत्नी विवाह, पर्दा प्रथा, निकाह हलाला और कई अन्य मसलों पर अपने को निम्न दर्जे का पाती हैं। कई बार स्थिति ऐसी हो जाती है कि उन्हें पढ़ने, लिखने, संगीत और टीवी देखने तक की आजादी नहीं होती, जो कहीं न कहीं एक विकसित होती सभ्यता पर ही सवालिया निशान खड़े करती है। मुस्लिम पर्सनल लॉ, सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग नियम निर्धारित करता है और इन्हीं नियमों में विभिन्नता से ही भेदभाव की अंतहीन कहानी शुरू हो जाती है।

एक मुस्लिम पुरुष अधिकतम चार पत्नियां रख सकता है यानी कि उसके लिए चार शादियां करना जायज है और वहीं एक मुस्लिम स्त्री एक ऐसे पुरुष से प्रेम तक नहीं कर सकती जो किसी अन्य समाज से ताल्लुक रखता हो। एक पुरुष एक गैर-मुस्लिम लड़की से शादी कर सकता है, जबकि एक महिला, गैर-मुस्लिम से शादी नहीं कर सकती है। मुस्लिम समाज में तलाक से सम्बंधित अधिकांश शक्तियां शौहर के हाथों में होती हैं। पति अपनी पत्नी को बिना किसी उचित कारण के तलाक दे सकता है। दूसरी ओर, पत्नी को तलाक लेने के लिए पर्याप्त आधार देने की जरूरत होती है। इसके अतिरिक्त, एक महिला को ‘इद्दाह’ की अवधि से गुजरना पड़ता है। जिसमें वह तलाक के बाद एक निश्चित अवधि के लिए पुनर्विवाह नहीं कर सकती है, जबकि पुरुष पर ऐसा कोई नियम लागू नहीं होता है। निकाह हलाला जिसे सामान्य भाषा में हलाला कहा जाता है, वह तो मुस्लिम महिलाओं के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं। यहां हलाला का अर्थ समझना भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। हलाला इस्लाम धर्म की एक ऐसी कुप्रथा है। जो महिलाओं के शरीर से खिलवाड़ करना है। यह एक महिला की मर्जी के विपरीत जाकर शरीर से खेलने का जरिया है। निकाह हलाला के लिए तलाकशुदा महिला को किसी दूसरे पुरुष से शादी करनी पड़ती है। इतना ही नहीं उसके साथ शारीरिक सम्बंध भी स्थापित करना होता है। फिर दूसरे पति से तलाक लेना होता है और पहले पति के साथ दोबारा से निकाह होता है। कुल मिलाकर देखें तो इस्लाम एक ऐसा मजहब है, जहां स्त्रियों को गुलाम की भांति रखा जाता है। महिलाएं सिर्फ पुरुषों की हवस शांत करने का जरिया होती है। दुनिया के अधिकतर हिस्सों से दासत्व की प्रथा खत्म हो गई, लेकिन मुस्लिम समाज में महिलाएं चारदीवारी के भीतर आज भी दास से भी खराब तरीके से जीवन-यापन को विवश हैं।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से तीन तलाक ख़त्म करके मुस्लिम महिलाओं के जीवन में बदलाव की एक आस पैदा की है, जिसे विश्वास में बदलने के लिए मुस्लिम महिलाओं को आगे आना होगा। मुस्लिम महिलाओं को मुल्ला-मौलवी के वचनों से अपने को मुक्त करते हुए अपने हिस्से की बात रखनी होगी। तभी मुस्लिम महिलाएं बुर्के की कैद से मुक्त हो सकती हैं और घरों में शोषण और उत्पीड़न से अपना बचाव कर सकती हैं।

वैसे ईरान में बुर्के से आजादी और अपने खिलाफ हो रही ज्यादतियों के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं ने आवाज बुलंद कर वैश्विक परिदृश्य पर यह जाहिर कर दिया है कि मुस्लिम महिलाएं भी अब समय के साथ चलना चाहती हैं। उन्हें भी पुरुषों के साथ कदम मिलाकर चलने की आजादी है। यह बदलाव की लहर भारतीय मुस्लिम महिलाओं में भी दिखनी चाहिए, क्योंकि किसी के जीवन का फैसला कोई मुल्ला या मौलवी नहीं ले सकता है। हर किसी को स्वतंत्रता है, अपना जीवनसाथी चुनने का, जीवन में आगे बढ़ने का। भारतीय संविधान ने ये हक स्त्री-पुरुष दोनों को समान रूप से प्रदान किया है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ की वजह से मुस्लिम महिलाएं अधिकारों से वंचित रह जाती है। इसलिए अब ये मुस्लिम महिलाओं को समझना होगा कि उन्हें समान अधिकार और सम्मान चाहिए या चारदीवारी में कैद होकर वो सिर्फ भोग-विलास की वस्तु बनी रहना चाहती हैं।

– सोनम लववंशी

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