एक मिथक : सबसे ज्यादा आईएएस देने वाला बिहार

बिहार इंटर का रिजल्ट प्रकाशित हो गया है। टॉप आई खगड़िया की विज्ञान संकाय छात्रा आयुषी नंदन को मीडिया ने सबसे पहले अपने फ्रेम में लिया। बोर्ड के टॉपरों से एक कोर्टेसी प्रश्न अवश्य ही रहता है- आपको क्या बनना है? जवाब- आईएएस। होना भी चाहिए। टॉपर आईएएस डिजर्व करते हैं। शुभकामना। लेकिन यही उत्तर यदि हर वर्ष के टॉपर्स से मिले, 10वीं के टॉपर हों अथवा 12वीं के, तो समझने वाली बात है, आईएएस बिहार का सपना है या सिंड्रोम!

आज का जो टीनएजर बिहार है अथवा युवा बिहार है वह स्वयं को समाज की उस कसौटी पर कसता है, जो समाज ’90 के दशक को झेलकर आकार लिया है। एक ऐसा समाज जिसे थोड़ी सुविधा से मेधा के तीन भागों में बांटा जा सकता है- ऊंची प्रतिभा, मध्यम प्रतिभा और नग्ण्य प्रतिभा।

चारों ओर जब जंगलराज व्याप्त हुआ, राजनैतिक हाहाकार मचा हुआ था, बिहार मोटा-मोटी तीन वर्गों में बट गया- नौकरशाह, राजनेता और मजदूर। उद्यमी जो थे उनके उद्यम छिन गए। बिहार में एक प्रचलित शब्द है, रंगदारी। रंगदारी का मतलब अवैध वसूली से है। जो कि ज्यादातर उद्यमियों और वाहन चालकों से आज भी किए जाते हैं। वसूली करने वाले रंगदार कहे जाते हैं। राजधानी पटना से लेकर सुदूर गांव की सड़कों तक उद्यम रंगदारों की चपेट में आ गये। लालू जी के बेटी की शादी थी, तब सत्ता भी आरजेडी की ही थी, पटना के टाटा शोरूम से बारात के काफिलों के लिए गाड़ियां दिन के उजाले में लूट ली गई थी, एक प्रचलित उदाहरण है। बिहार का उद्यम बिहार के डीएनए में भय बनकर व्याप्त हो गया। उद्यम की प्रतिभा रखने वाले मजदूर भी बन गए और उनका बिहार से पलायन होता गया।

डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, टीचर्स, बैंकर्स जैसे तमाम प्रतिष्ठा की सामाजिक भूमिकाएं माफियाओं के शिकार हो गए। इन सबके बच्चे का अपहरण हुआ जाने लगा। फिरौतियां इन लोगों के सांसो की कीमत बन गई। समाज में इनका कोई अर्थ नहीं रह गया। माफिया डॉन कहे जाने लगे। डॉन के काफिलों के सामने ’90 का अथवा इसके बाद का बिहार स्वेच्छा से सड़कों के किनारे पंक्तियों में नतमस्तक होने लगा। कहा जाता था कि लोग क्रिमिनल्स को डर से वोट देते थे। लेकिन बूथ लूट इसकी सच्चाई थी। इस प्रकार से क्रिमिनल्स को लोकतंत्र की कसौटियों से लेजिटीमेशन मिलने लगा जिससे नेताओं का रसूखदार वर्ग निर्मित हुआ। नगण्य प्रतिभा रखने वाले कार्यकर्ता बन गए। और अपहरण उद्योग से उनकी रोजी-रोटी चलने लगी।

अब तीसरी और सबसे ऊंची प्रतिभा। ये वर्ग ब्यूरोक्रेसी का वर्ग बना। डॉन के बाद बिहार में यदि कोई मुफ्त में सांस ले सकता था, तो वह था नौकरशाही वर्ग। हां, चम्पा विश्वास का डरावना सत्य भी अलग से है। लेकिन समाज में नेताओं के बाद यदि किसी का रसूख चलता था, तो वह था ब्यूरोक्रेसी। क्योंकि आम जनता में भय-लाचारी से लाभ का एक हिस्सा इन्हें भी मिलता था। सायरन और बत्ती इन्हें भी मिलती थी। नेताओं और आईएएस को सायरन के साथ लाल बत्ती, आईपीएस को पीली बत्ती। ये लोग अपने काफिले जहां खड़े कर लें, गांव में वही मेला लग जाए। यह मेला रसूख का पोषक तत्व है। नेताओं के बाद यदि समाज में किसी को सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा मिली, तो इन्हीं सायरण बत्ती वालों को। मोदी जी ने उतरवा दिया तो न जाने कितनों ने अपने सपने बदल लिए।

सुरक्षा और प्रतिष्ठा के लिहाज ने बिहार को इस बात के लिए मजबूर किया कि वह अपनी प्रतिभा को नौकरशाह बनने की चुनौती दे। झगड़ा-विवाद में अथवा किसी को ताना देने में 3 शब्दों की एक पंक्ति बड़ा चर्चित हुआ- ‘तू बड़का कलेक्टर?’ फिर क्या! अब यह चुनौती युवाओं की प्रतिभा में एक किक बनकर उभरा। अब किसी टॉपर को इंजीनियर नहीं बनना, किसी को डॉक्टर नहीं बनना, किसी को बैंकर नहीं बनना, किसी को शिक्षक नहीं बनना, किसी को इकोनॉमिस्ट नहीं बनना, किसी को उद्यमी नहीं बनना, यहां तक कि किसी को आईएफएस नहीं बनना, पहली पसंद से किसी को आईपीएस नहीं बनना, आईएएस ही बनना है। क्या लोकसेवा छोड़कर बाकी के फील्ड बोर्ड टॉपर को डिजर्व नहीं करते? मतलब साफ है प्रतिभा है तो नौकरशाह ही बन जाइए। नहीं तो पलायन स्वीकार कीजिए। क्योंकि पार्टी कार्यकर्ता बनने में इतनी प्रतिभा निरूद्ध है।

आप बिहार के नेताओं को प्रश्न करें, तो वे तथ्यात्मक रूप से गलत होने के बावजूद भी सबसे ज्यादा आईएएस आईपीएस देने वाला राज्य के रूप में अपना डिफेंस लेते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान भी आज इन मामलों में बिहार से आगे है। अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं होने का कारण पूरी शक्ति से ये नेता बताते हैं कि बिहार कोई समुद्री तट का राज्य नहीं है। उत्तर प्रदेश आज जिसका जवाब दुनिया भर से निवेश जुटा कर दे रहा है। इसलिए परसेप्शन के तौर पर बिहार यदि सबसे ज्यादा लोकसेवक निर्माण करने वाला राज्य है, तो परसेप्शन का यह सत्य बहुत भयावह है। लिहाजा यह गर्व नहीं, लज्जा की बात है।

– विशाल झा

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