कष्टों से कैसा घबराना ?

कष्टों का स्वरूप अप्रिय है । उनका तात्कालिक अनुभव कड़वा होता है । अंततः वे जीव के लिए कल्याणकारी और आनंददायक सिद्ध होते हैं । उनसे दुर्गुणों के शोधन और सद्गुणों की वृद्धि में असाधारण सहायता मिलती है । आनंद स्वरूप, आत्मप्रकाशमय जीवन और सुखमय संसार में कष्टों का थोड़ा स्वाद परिवर्तन इसलिए लगाया गया है कि प्रगति में बाधा न पड़ने पाए । घड़ी में चाबी भर देने से उसकी चाल फिर ठीक हो जाती है । हारमोनियम में हवा धोंकते रहने से उसके स्वर ठीक तरह से बजते रहते हैं । पैडल चलाने से साइकिल ठीक तरह घूमती है । अग्नि की गर्मी से सूख कर भोजन पक जाते हैं । थोड़ा सा कष्ट भी जीवन की सुखवृद्धि के लिए आवश्यक है । संसार में जो कष्ट है वह इतना ही है और ऐसा ही है, किंतु स्मरण रखिए जितना भी थोड़ा बहुत दु:ख है, वह हमारे अन्याय का, अधर्म का, अनर्थ का फल है । आत्मा दु:ख रूप नहीं है, जीवन दु:खमय नहीं है और न संसार में ही दु: ख है ।

आप दु:खों से डरिए मत । घबराइए मत, काँपिए मत, उन्हें देखकर चिंतित या व्याकुल मत होइए, वरन् सहन करने को तैयार रहिए । कटु भाषी किंतु सच्चे सह्रदय मित्र की तरह उससे भुजा पसार कर मिलिए । वह कटु शब्द बोलता है, अप्रिय समालोचना करता है, तो भी जब जाता है तो बहुत सा माल खजाना उपहार स्वरूप दे जाता है। बहादुर सिपाही की तरह सीना खोल कर खड़े हो जाइए और कहिए कि “ऐ आने वाले दु:खों ! आओ !! ऐ मेरे बालकों, चले आओ !! मैंने ही तुम्हें उत्पन्न किया है, मैं ही तुम्हें अपनी छाती से लगाऊँगा ।

मैं कायर नहीं हूँ , जो तुम्हें देख कर रोऊँ ! मैं नपुंसक नहीं हूँ, जो तुम्हारा भार उठाने से गिड़गिड़ाऊँ ! मैं मिथ्याचारी नहीं हूँ, जो अपने कर्म का फल भोगने से मुँह छुपाता फिरूँ ! मैं सत्य हूँ, शिव हूँ, सुंदर हूँ ! आओ ! मेरे अज्ञान के कुरूप मानस पुत्रों !! मेरी कुटी में तुम्हारे लिए भी स्थान है । मैं शूरवीर हूँ , इसलिए हे कष्टों ! तुम्हें स्वीकार करने से मुँह नहीं छुपाता और न तुमसे बचने के लिए किसी की सहायता चाहता हूँ । तुम मेरे साहस की परीक्षा लेने आए हो, मैं तैयार हूँ, देखो गिड़गिड़ाता नहीं हूँ, साहसपूर्वक तुम्हें स्वीकार करने के लिए छाती खोले खड़ा हूँ ।

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