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अवसरवादी नेताओं से देश रहें सतर्क

अवसरवादी नेताओं से देश रहें सतर्क

by हिंदी विवेक
in राजनीति, विशेष, सामाजिक
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इतनी छापेमारियाँ और नेताओं के मुस्कुराते हुए चेहरे मानों किसी तीर्थस्थल पर जा रहे हों। चेहरे पर कोई शिकन नहीं। फिर भी उनके चमचे बेलचे हत्थे से क्यों उखड़ रहे हैं? अब दिल्ली के शिक्षा मंत्री को ही लीजिए शिक्षालय खोले होंगे शिक्षा के लिए ! प्रचार की इतनी भूख इतनी चिंता कि अमेरिकी अखबार में तारीफ के पूल बांधते हुए प्रायोजित लेख लेख छपा दें और अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनें कि देखो हमने दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में कितने ऊंचे झंडे गाड़े हैं। लेकिन ट्रेनिंग के लिए शिक्षकों को विदेश भेजेंगे। क्यों भई, जब आपने शिक्षकों का हृदय इस हद तक परिवर्तित कर दिया है तो फिर उन्हें विदेशी प्रशिक्षण की जरूरत क्यों आन पड़ी? भेजना ही है तो अमेरिका क्यों नहीं भेजते? विज्ञापन के खर्चों में कटौती करके अमेरिका तो भेज ही सकते थे। लेकिन नहीं वो फिनलैंड भेजेंगे सिंगापूर भेजेंगे। देश में शिक्षण संस्थानों की कमी है क्या ? लेकिन नहीं मुफ्त की रेवड़ियां बाँटनेवाले जनता को गुमराह करनेवाले ये तथाकथित क्रांतिकारी एक तरफ शिक्षकों को सरकारी खर्चे पर विदेश घुमा रहे हैं तो दूसरी तरफ मोबाइल के सिम बदल-बदलकर शराब के जलसागर में गोते लगा रहे थे।

उन्हें लगा होगा कि शिक्षा के मुखौटे में उनकी सारी काली करतूतें ढंक जाएंगी।शिक्षकों को खुश करना अर्थात विद्यार्थियों को खुश रखना और उन्हें खुश करने का अर्थ है उनके अभिभावकों को खुश करना कि देखो उनके बच्चों को फिनलैंड और सिंगापुर में प्रशिक्षित किये गए शिक्षक पढ़ाते हैं। वोट बैंक को और  समृद्ध करना निश्चित रूप से ! एक तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरी के साथ धूर्तता इतनी कि मुख्यमंत्री  बच्चों से आंदोलन कराने पर उतारू। सर ने कुछ नहीं किया है सर ने कुछ नहीं किया है की रट लगाते बच्चों को न तो प्रवर्तन निदेशालय के कामकाज की जानकारी है और न अपराध अनुसंधान ब्युरो के कार्य करने के एक पैसे का ज्ञान है! सर ने कुछ नहीं किया है का पहाड़ा याद कराना तो नैतिक पतन की हद है।

इनके एक सदस्य खुलेआम दंगे करवाते है।इनके एक मंत्री जेला की सजा काटते-काटते इतने थक गये कि जेल में ही मालिश करवाते नजर आते हैं। ऐसी सरकार है जिनके मुख्यमंत्रियों के केबिन में राष्ट्रपिता की तस्वीर ही नहीं है। ये लगाते हैं भगतसिंह और बाबा साहेब की तस्वीर..! भगतसिंह जिन्होंने क्रांति की मशाल जलायी इस देश में  वामपंथियों के आखिरी विचारक ! केवल दायें-बायें तस्वीरें लगाकर कोई क्रांतिकारी नहीं बन जाता । बाबा साहेब ने संविधान की रचना की मगर जनता को मुफ्त की रेवड़ियां बांटकर शासन करने की एक भी धारा नहीं लिखी। और इनकी कोई विचारधारा है ही नहीं। अन्ना हजारे का दुरुपयोग करनेवाले ये अवसरवादी  हद पार करने में उतारू हैं। इनका एक ही मूल मंत्र है-बस जैसे भी हो शासन करो। येन-केन प्रकारेण पंजाब के चुनाव में जीतने के बाद अब खालिस्तानियो के सर रह रहकर उठ रहे हैं।इसका क्या जवाब है?

कुछ और पिटे हुए लोग हैं जो हर बात पर केंद्र सरकार को कोस-शास्त्र और कोस-साहित्य निर्माण में लगे रहते हुये स्वयं को अवसरवादी प्रमाणित  करने पर तुले हैं।  क्या इनके पास और कोई काम नहीं।कोई विदेश में जाकर अर्नगल प्रलाप करता है। भारत जब जोड़ना था तब तो अपने स्वार्थ के लिए तोड़ा गया।महात्मा को भी इस मुद्दे पर किनारा कर दिया। राज करने के लिए देश को आपातकाल से ग्रस्त किया।चुन-चुनकर जेल में डाल रहे थे।जबरदस्ती नसबंदी करा रहे थे। ऐसे लोगों  द्वारा भारत जोड़ने की बात करना हास्यास्पद है।

अक्सर जंगलराज को कोसनेवाले और कभी झाड़ू की मार खाने से बचनेवाले पलटीबाज प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं भले ही जंगल राज्य फिर से आ जाये। इन्हें भी एजेंसी से परहेज है। हर बात पर प्रवर्तन निदेशालय और अपराध अनुसंधान शाखा का  रोना रोनेवालों  के पास नैतिकता नाम की चीज है या नहीं ? देश में यदि  भ्रष्टाचारियों के गैंगस्टरों के  नकाब उतर रहे हैं तो क्या बुरा हो रहा है?

सबसे बुरा हाल भ्रमपंथियों  उर्फ वामपंथियों का हो रहा है । इतिहास देख लीजिए तो आप पायेंगे कि ये कभी भी न इधर के रह पाए न कभी उधर के।अपने सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा दी। साहित्य लेखन भी है विश्वविद्यालय भी पर सिर्फ अपने सुख के लिए खुद लिखते हैं और उनके अपने जैसे लिखनेवाले लोग पढ़ते हैं।मजदूर वर्ग से पूछा जाए तो वो यही बताएंगे कि सिवाय चंदे की रसीद और ऐसा साहित्य जो उनके पल्ले पड़ता ही नहीं , के उन्हें आज तक इन क्रान्तिकारियों ने नहीं दिया है।इनके लिये न उगलते बन रहा है और न निगलते ही बन रहा है। इनके नेता अभी कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। क्योंकि इनके नेताओं ने अभी तक प्रवर्तन निदेशालय या अपराध अनुसंधान शाखा का मुखड़ा देखा नहीं था।वर्ना इनका भी श्री राग परनिंदा चालू हो जाता कि लोकतंत्र खतरे में है आदि-आदि।जिस कथनी के लिए अदालत द्वारा सजा मिली है। उसके बारे में बात ही नहीं कर रहा है कोई सारे (कोई भी उपनाम हो सकता है)चोर हैं की बजाय सिर्फ यह कहता कि सारे (उपनाम कोई भी हो सकताहै)चोर नहीं हैं तो शायद माफ़ी मिल जाती और बात अदालत तक तो नहीं पहुंचती शायद ! अपराधियों के भी सरनेम होते हैं कोई कहकर देखे कि सारे (उपनाम कोई भी हो सकता है) के सारे अपराधी होते हैं।

कोई भी हो सकता है! कानून से बड़ा कोई नहीं है यह बात न प्रौढ़ बालक समझ पा रहा है न बुड्ढे चमचों की अर्नगल प्रलाप करती बयानवीरों की फौज ! वित्तीय संस्थानों  के अध्यक्षों के बयान आ चुके हैं कि उनके ढांचे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। फिर भी बेसुरा राग-रिश्ता गाना कोई छोड़ ही नहीं रहा है। राजस्थान से  बंगाल से  निवेश हटाकर ताल ठोंको तो जानें। लोकतंत्र की हत्या का सबसे बड़ा हथियार आपातकाल किसके जमाने में लगा था? कमाल है जेल में बगैर किसी कारण के ठूंसना अभिव्यक्ति पर सेंसरशिप सब भूल गए ! ताल ठोककर बताए कि सत्ता की लालच में वे भूल गये हैं तो लानत है  ऐसी राजनीति पर ! एक बात तो तय यह भी है कि जबरदस्ती सरनेम का बोझ उठाकर या कुर्सी के अगल बगल फोटो लगाकर कोई शहीद नहीं बन सकता !यह बात सबके साथ दारू चोरों को भी समझना चाहिए !करनी का फल तो हर किसी को भुगतना पड़ेगा साहब राजा हो या रंक !अब क्या है कि इसी जबान पर जूते भी पड़ते हैं और फूलों की बारिश भी होती है। अब तय हर किसी को करना चाहिए कि बोलना क्या है यह नहीं बोलना कैसे है यह सीखना चाहिए !अब फैसला पक्ष में नहीं गया तो लोकतंत्र की हत्या हुई।

सवाल तो यह है कि क्या इन वैधानिक संस्थाओं को हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाना चाहिये? यदि हां तो क्यों और न तो क्यों ? यह विचारणीय है।जिन्हें लगता है कि इनका दुरुपयोग हो रहा है उनके लिये सर्वोच्च न्यायालय के द्वार तो खुले रहते ही हैं।

– राजीव रोहित

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Tags: arwind kejriwaldirty politicspoliticsrahul gandhi

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