भारतीय लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी एवं व्यापक है

देश में लोकतंत्र की दिशा-दशा पर जारी विमर्श के मध्य यह जानना आवश्यक है कि भारत न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, अपितु वह लोकतंत्र की जननी है। लोकतंत्र भारत की आत्मा है। वह आम भारतीयों की साँसों और संस्कारों में रचा-बसा है। भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों एवं अवधारणाओं का विकास 1215 ई. में जारी किए गए इंग्लैंड के कानूनी परिपत्र मैग्ना कार्टा से नहीं, अपितु सहयोग, समन्वय एवं सह-अस्तित्व पर आधारित प्राचीन एवं सनातन सांस्कृतिक विचार-प्रवाह एवं  जीवन-दर्शन से हुआ है। इस देश में लोकतंत्र केवल शासन की एक प्रणाली मात्र नहीं, बल्कि वह सहस्त्राब्दियों के अनुभव और इतिहास से सिंचित-निर्मित भेद में एकत्व और विरुद्धों में सामंजस्य देखने वाली जीवन-शैली व दृष्टि है।
श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास, महाकाव्य आदि ग्रंथों में विश, जन, प्रजा, गण, कुल, ग्राम, जनपद, सभा, समिति, परिषद, संघ, निकाय जैसे अनेक शब्दों एवं संस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे पुष्टि होती है कि उस समय भारत में लोकतंत्र का अस्तित्व था। वैदिक वाङ्गमय पर दृष्टि डालने से दो प्रकार की गणतंत्रात्मक व्यवस्थाएँ सामने आती हैं, एक जिसमें राजा निर्वाचित किया जाता था और दूसरा जिसमें राज्य की शक्ति सभा या परिषद में निहित होती थी। इसे राजाधीन एवं गणाधीन शासन-तंत्र कहा जा सकता है। वैदिक राजा का निर्वाचन समिति में एकत्रित होने वाले लोगों द्वारा किया जाता था। समिति सार्वजनिक कार्यों को संपादित करने वाली संस्थाओं में सर्वप्रमुख थी। यह जनसामान्य का प्रतिनिधित्व करती थी। परिचर्चा और पारस्परिक सम्मति से निर्णय लिए जाते थे। वहीं सभा समिति के अधीन कार्य करती थी।
इसमें वृद्ध एवं अनुभवी लोगों का विशेष स्थान प्राप्त होता था। यह चयनित लोगों की स्थायी संस्था थी। ब्राह्मण ग्रंथों में वर्णित राज्याभिषेक के आरंभ से अंत तक के कार्यव्यवहार से स्पष्ट होता है कि राजा को राजपद प्राप्त करने से पूर्व राष्ट्र के विभिन्न अंगों की अनुमति प्राप्त करनी पड़ती थी, वह राष्ट्र के भिन्न-भिन्न स्थानों की मिट्टी, जल, वर्ण, वायु, पर्वत और संपूर्ण प्रजा का प्रतिनिधित्व करता था। उसका निरंकुश होना संभव नहीं था। उसे मंत्रिपरिषद के परामर्श, स्वीकृति और प्रजा के कल्याण की भावना से कार्य संपादित करना होता था। यहाँ तक कि उसके पुनर्निर्वाचन की भी निश्चित प्रक्रिया और व्यवस्था थी। उल्लेखनीय है कि समिति और सभा की सदस्यता जन्म के बजाय कर्म पर आधारित थी। नीति, सैन्य एवं सार्वजनिक हितों से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श एवं नियमन हेतु विदथ-सभा का भी उल्लेख मिलता है, जिसका प्रयोग ऋग्वेद में सौ से अधिक बार किया गया है।
रामायण और महाभारत में भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनसे विदित होता है कि राजा निर्णय-प्रक्रिया में प्रजा के मत, जनपद-प्रतिनिधियों एवं अमात्यमंडल के परामर्श को विशेष महत्त्व प्रदान करता था। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के द्वारा माता सीता के परित्याग के कारुणिक वृत्तांत में भी राजा द्वारा जन-विचारों को वरीयता प्रदान करने की भावना ही दृष्टिगोचर होती है। राजा निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी नहीं होता था। वह नीति, धर्म, परंपरा एवं लोक-मर्यादा से बंधा होता था। राजा दशरथ और कुलगुरु वशिष्ठ भावी राजा राम को यह उपदेश देते दिखते हैं कि प्रजा के हिताहित की निरंतर चिंता, मंत्रियों-सेनापतियों-अधिकारियों से सतत विचार-विमर्श राजा के प्रमुख कर्त्तव्य होते हैं। रामायण के बालकांड के सातवें सर्ग में राजा दशरथ के यशस्वी होने का कारण राज्य के प्रमुख कार्यों में उनके मंत्रिमंडल की सहभागिता है, जिसमें आठ मंत्री होते थे।
राजा दशरथ के राज्य संबंधी अथवा अन्य किसी भी योजना संबंधी विषयों में एक विशाल मंत्रिसमूह की भूमिका उनकी लोकतांत्रिक दृष्टि का बोध कराती है। महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 107/108 में गणराज्यों (जिन्हें गण कहा जाता था) की विशेषताओं का विस्तृत विवरण मिलता है। इसमें कहा गया है कि जब एक गणतंत्र के लोगों में एकता होती है तो वह शक्तिशाली हो जाता है और उसके लोग समृद्ध हो जाते हैं तथा आंतरिक संघर्षों की स्थिति में वे नष्ट हो जाते हैं। इसी पर्व में पितामह भीष्म युधिष्ठिर को लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का उपदेश देते हुए कहते हैं कि राजा को  प्रजा के हित की रक्षा एवं धर्म का अनुसरण करना चाहिए तथा उसे सभासदों, प्रकृतिजनों एवं प्रजाजनों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। महाभारत में सभासदों की योग्यता, गणों की महत्ता, उसके गठन एवं निर्माण की रचना-प्रक्रिया, उनकी कार्यप्रणाली और उनके प्रशासनिक उत्तरदायित्वों आदि का भी पर्याप्त उल्लेख मिलता है।
बौद्ध एवं जैन ग्रंथों से भी ज्ञात होता है कि भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध के काल में भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में अनेक गणराज्य विद्यमान थे। इनमें वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के शाक्य, सुमसुमार पर्वत के भग्ग, केसपुत्त के कालाम, रामगाम के कोलिय, कुशीनारा के मल्ल, पावा के मल्ल, पिप्पलिवन के मोरिय, मिथिला के विदेह और अलकल्प के बुलि आदि प्रमुख थे। इनमें से लिच्छवी तो इतना शक्तिशाली एवं प्रतिष्ठित था कि वह तत्कालीन उदीयमान राज्य मगध के उत्कर्ष एवं विस्तार में मुख्य अवरोधक बनकर खड़ा था। लिच्छिवियों ने आसपास के अन्यान्य गणों को मिलाकर वज्जिसंघ नाम से एक संयुक्त संघ भी बनाया था। इन गणराज्यों की सर्वोच्च शक्ति एक गणसभा या संस्थागार में निहित होती थी, जो लगभग आज के संसद जैसी होती थी। गण की कार्यपालिका का अध्यक्ष एक निर्वाचित पदाधिकारी होता था, जिसे उस गणराज्य का प्रमुख नायक या राजा कहा जाता था।
सामान्य प्रशासन की देखभाल के साथ-साथ गणराज्य में आंतरिक शांति एवं सामंजस्य बनाए रखना उसका कर्त्तव्य था। अन्य पदाधिकारियों में उपराजा, सेनापति, भांडागारिक, कोषाध्यक्ष, आसनपन्नापक आदि प्रमुख थे। कोरम की पूर्त्ति, प्रस्ताव रखने, मतगणना आदि के सुस्पष्ट एवं निश्चित नियम थे। विरोध या मतभेद आदि उपस्थित होने पर शलाकाओं द्वारा गुप्त मतदान की व्यवस्था थी। मतदान अधिकारी को शलाका-ग्राहक कहा जाता था। गणसभा के प्रत्येक कुलवृद्ध या सदस्य की संघीय उपाधि ‘राजा’ होती थी। एकपण्ण जातक के अनुसार लिच्छवी गणराज्य की केंद्रीय समिति में 7,707 राजा (सदस्य) थे तथा उपराजाओं, सेनापतियों एवं कोषाध्यक्षों की संख्या भी इतनी ही थी। वहीं एक अन्य स्थान पर शाक्यों के संस्थागार (गणसभा) के सदस्यों की संख्या 500 और यौधेय की केंद्रीय परिषद की सदस्य-संख्या 5000 बताई गई है। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे। सामान्यतया गणराज्यों की गतिविधियों पर गणसभा का पूर्ण नियंत्रण होता था। गणराज्यों में प्रायः एक मंत्रिपरिषद भी होती थी, जिसमें चार से लेकर बीस सदस्य होते थे। गणाध्यक्ष ही मंत्रिपरिषद का प्रधान होता था। राज्य के उच्च पदाधिकारियों, मंत्रियों तथा शासकों की नियुक्ति गणसभा द्वारा ही की जाती थी। यही केंद्रीय समिति (गणसभा) न्याय की सर्वोच्च संस्था के रूप में भी कार्य करती थी।
द्वितीय शताब्दी ई. के बौद्ध ग्रंथ ‘अवदानशतक’ से पता चलता है कि दक्षिण भारत के कुछ राज्य गणों के अधीन थे और कुछ राजा के। जैन ग्रंथ ‘आचारांगसूत्र’ में भिक्षुओं को चेतावनी दी गई है कि उन्हें ऐसे स्थानों पर जाने से बचना चाहिए, जहाँ गणतंत्र का शासन हो। पाणिनी ने भी संघ को राजतंत्र से भिन्न बताते हुए गण को संघ का पर्याय बताया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी दो प्रकार के संघ राज्यों का उल्लेख मिलता है। एक ‘वार्ताशस्त्रोपजीवी’ – जो व्यापार, कृषि, पशुपालन तथा युद्ध पर आश्रित थे, दूसरा ‘राजशब्दोपजीवी’ जो राजा की उपाधि धारण करते थे। प्रथम वर्ग में कंबोज तथा सौराष्ट्र तथा दूसरे वर्ग में लिच्छिवियों, वृज्जियों, मल्लों, मद्रों, कुकुरों, पांचालों आदि की गणना की गई है। वस्तुतः ‘संघ’ और ‘गण’ दोनों समान अर्थों में प्रयुक्त राजनीतिक संस्थाएँ थीं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार राजा को प्रजा की भलाई के लिए अमात्यों (मंत्रियों) की सलाह पर कार्य करना चाहिए। मंत्रियों को लोगों को बीच से नियुक्त किया जाना चाहिए। उनका कहना था कि प्रजा के सुख और लाभ में ही राजा का सुख और लाभ है।
यूनानी-रोमन लेखकों ने भी प्राचीन भारत में गणराज्यों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। उनके अनुसार सिकंदर के आक्रमण के समय पंजाब और सिंध में कई गणराज्य थे, जो राजतंत्रों से भिन्न थे। सिकंदर को लौटते हुए मालव, अंबष्ठ और क्षुद्रक आदि गणराज्य मिले थे। मुद्रासक्ष्यों से भी गणराज्यों के बारे में जानकारी मिलती है। मालव, अर्जुनायन, यौधेय जैसे गणराज्यों के प्राप्त सिक्कों पर राजा का उल्लेख न होकर गण का ही उल्लेख मिलता है। मेगस्थनीज ने भी अपने यात्रा-वृत्तांत में लिखा है कि उस समय भारत के अनेक प्रांतों-नगरों में गणतंत्रात्मक शासन प्रचलित था।
इसी प्रकार तमिलनाडु में दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में परांतक चोल प्रथम के शासन-काल में उत्कीर्णित कांचीपुरम के उत्तरमेरूर के शिलालेखों से तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था के विविध आयामों एवं कार्य-पद्धत्तियों की विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें उम्मीदवारों की योग्यता,   उनके चयन एवं मतदान की प्रक्रिया, कार्यों का निर्धारण एवं विभाजन, निर्वाचित उम्मीदवारों को वापस बुलाने के नियम आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।  तत्कालीन चुनाव-प्रक्रिया में शुचिता ऐसी थी कि उम्मीदवारों की अनिवार्य अर्हताओं में से एक संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा थी। स्मरण रहे कि इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा से भी कई वर्ष पूर्व कर्नाटक के प्रसिद्ध कवि, दार्शनिक, समाज-सुधारक एवं लिंगायत संप्रदाय के संस्थापक संत बसवेश्वर द्वारा अनुभव मंडप की स्थापना की गई थी, जिसे भारत की पहली और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संसद के रूप में मान्यता प्राप्त है।
यह एक प्रकार का खुला एवं सार्वजनिक मंच था, जहाँ समाज के सभी वर्गों के लोग आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर मुक्त विमर्श कर निष्कर्ष व समाधान तक पहुँचने का प्रयास करते थे। अनेकानेक पुष्ट प्रमाणों एवं ठोस तथ्यों के आधार पर निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि प्राचीन  भारत में न केवल लोकतंत्र का अस्तित्व था, अपितु कई गणराज्यों ने उसका आदर्श स्वरूप एवं ढाँचा भी खड़ा किया था। भिन्न-भिन्न धार्मिक मान्यताओं, दर्जनों भाषाओं तथा सैकड़ों बोलियों वाले देश में लोकतंत्र यदि सुदृढ़, जीवंत एवं गतिशील है तो उसका श्रेय भारत के इन प्राचीन गणराज्यों को ही जाता है। भारतीय लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी और व्यापक हैं कि यूरोप-अमेरिका समेत संपूर्ण विश्व इससे प्रेरणा ग्रहण करता है। परंतु पश्चिम से प्रशंसा की प्रत्याशा एवं निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्त्ति हेतु ऐसे गौरवशाली लोकतंत्र पर प्रश्न खड़े करना सर्वथा अनुचित एवं अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। अपनी समृद्ध लोकतांत्रिक विरासत पर गर्व करने के स्थान पर ऐसे प्रश्न कहीं-न-कहीं भारत में व्याप्त लोकतंत्र की गहरी जड़ों के प्रति अज्ञानता को प्रदर्शित करते हैं।

Leave a Reply