हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
धर्म और धर्मनिरपेक्षता का यथार्थ

धर्म और धर्मनिरपेक्षता का यथार्थ

by हिंदी विवेक
in राजनीति, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
0

स्वतंत्रता के 50 वर्ष बाद यदि हमें धर्मनिरपेक्षता के अर्थ के बारे में आशय स्पष्‍ट है तो अवश्य ही धर्म के प्रति हमारे मन में अनेक उलझनें आज भी हैं जिनका समाधान हम नहीं कर पाए हैं। उस धर्म के बारे में हमारी अवधारणा क्या है जिसके प्रति हम निरपेक्ष होना चाहते हैं और जब तक हम इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते तब तक हमारे समाज में सेक्यूलरिज्म की सारी बहस कोई विशेष अर्थ नहीं रखेगी। हर सभ्यता में धर्म का अपना विशेष स्वरूप और अर्थ होता है। क्रिश्चन सभ्यता, इस्लामी सभ्यता, यूनानी सभ्यता, इन समस्त सभ्यताओं में मनुष्य का ईश्वर की लौकिक शक्तियों के साथ संबंध अलग-अलग रूपों में प्रकट होता है। भारतीय सभ्यता में धर्म क्या वह भूमिका संपन्न करता था जैसा उन सभ्यताओं में जिनका जिक्र हमने अभी किया है? उसी धर्मनिरपेक्षता की बहस आज हमें इस प्रश्न से प्रारंभ करनी चाहिए।

ऐतिहासिक रूप से धर्म की दो अवधारणाएँ उपस्थित रही हैं, एक वह जो मनुष्य और संस्कृति के संबंध को पवित्र मानती है और जब यह स्वीकार करती है कि मनुष्य सृजन चेतना का संवाहक है इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वह सृष्टि के केंद्र में है। भारतीय सभ्यता महानतम स्तर पर पवित्रता के इस सार्वभौमिक बोध से अनुप्राणित होती रहेगी। सृजन चेतना का संवाहक होने के नाते मनुष्य का एक प्रकृति के प्रति दायित्व-बोध है और दूसरे समाज के अन्य सदस्यों के प्रति। धर्म के परिवेश में मनुष्य शक्तिशाली होने के कारण शोषक नहीं सिर्फ अपने दायित्व-बोध के प्रति सजग होना है। इसके विपरीत धर्म की एक दूसरी अवधारणा भी है जो अपनी वैधता किसी मसीहा की वाणी या किसी विशिष्ट पुस्तक के वचनों से प्राप्त करती है।

वह एक ऐसी वैधता लिए होती है, जिस पर न संदेह प्रकट किया जा सकता है और न जिसे चुनौती दी जा सकती है। धर्म की यह अवधारणा अपने इर्द-गिर्द सार्वभौमिक सत्य का एक दायरा खींच लेती है। इस दायरे के बाहर जो लोग हैं, प्राणी हैं, जीव-जगत है, वे ‘अन्य’ की श्रेणी में आते हैं। यह अन्य तभी इस दायरे में प्रवेश कर पाता है जब वे दायरे के भीतर रहनेवाले लोगों की आस्थाओं और विश्वासों को स्वीकार करने के लिए तैयार हों। यही कारण है कि धर्म की यह अवधारणा भारतीय परंपरा के धर्म-बोध से बहुत भिन्न है। इसमें दूसरों को केवल धर्म-परिवर्तन के द्वारा ही अपना बना सकते हैं। उन्हें तभी ग्रेस प्राप्त हो सकती है जब अपने ईश्वर को छोड़कर दूसरे के ईश्वर को अपना समझ सकें।

कहना न होगा कि पिछले 50 वर्षों में धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म का संबंध धर्म की इस दूसरी अवधारणा से संबंधित था। उस अवधारणा से नहीं जो भारतीय सभ्यता के केंद्र में थी। यह एक ऐतिहासिक विडंबना ही मानी जाएगी कि हमारे सत्ता गुरू शासकों ने स्वतंत्रता के बाद भारतीय जनसाधारण को एक ऐसे धर्म से निरपेक्ष होने के लिए बाध्य किया जिसका उनसे कोई लेना-देना नहीं था और इस प्रक्रिया में उन्हें एक ऐसे सेक्यूलर समाज-व्यवस्था में रहने के लिए विवश किया जहाँ स्वयं उनकी धार्मिक आस्थाएँ एक हाशिए की चीज बनकर रह गई। धर्म-निरपेक्षता इस अर्थ में एक भारतीय के लिए आत्मनिर्वासन की अवस्था बनकर रह गई।

भारतीय सभ्यता में मनुष्य और प्रक्रति, मनुष्य और उसकी दुनिया एक-दूसरे से अलग नहीं थी, वहाँ मनुष्य का जीवन सेक्यूलर और धार्मिक खंडों में विभाजित नहीं था, वहाँ इस तरह का विभाजन भी कृत्रिम और अर्थहीन था। इस विभाजन के कारण ही मनुष्य का संपूर्णता बोध और प्रकृति की पवित्रता दोनों ही दूषित होते हैं। गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज्य’ में औद्योगिक सभ्यता के विकल्प में एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जहाँ स्वराज्य और स्वधर्म के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं रहता। स्वराज्य वे तत्व हैं जिनमें मनुष्य सिर्फ राजनीतिक या आर्थिक प्राणी न रहकर एक संपूर्ण मनुष्य की हैसियत से भाग लेता है। स्वतंत्रता के बाद हमने जिस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण किया उसमें इस संपूर्ण मनुष्य के लिए कोई स्थान नहीं।

ऊपरी चिंतन में हम भारतीय हैं, भीतर के (अंडरग्राउंड) अँधेरे में हम हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख हैं। अँधेरे में कोई विश्वास पनपता नहीं, सड़ता है इसलिए जब कभी वे बाहर आता है तो अपने सहज आत्मीय स्वरूप में नहीं बल्कि एक विकृत दमित भावना के रूप में। समय-समय पर होनेवाले सांप्रदायिक दंगे हमें उस अँधेरे की झलक दिखाते हैं जहाँ एक सेक्यूलर समाज ने धर्म को फेंक दिया है। क्या आज का भारतीय जिसमें केवल हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख ही नहीं, वे लाखों आदिवासी शामिल हैं जिनके अपने निजी धार्मिक विश्वास हैं। एक आत्मनियोजित मन:स्थिति में नहीं जीता जहाँ पश्चिम की आधुनिकता में ढली सत्ता कदम-कदम पर उन्हें एक ऐसे परिवेश में जीने के लिए विवश करती है जिसका उनके धार्मिक भाव-बोध की मर्यादाओं से कोई संबंध नहीं है।

जीसस ने ईश्वर और सीजर के बीच जो भेद किया था वैसा विभाजन भारतीय मानस में कभी मौजूद नहीं रहा इसलिए राजनीति तो दूर, हमारे देश का भूगोल भी पौराणिक स्मृतियों में स्पंदित होता है। गंगा महज एक नदी नहीं जैसे हिमालय सिर्फ एक पहाड़ नहीं, वाराणसी और वृंदावन महज शहर नहीं, मनुष्य का अतीत संग्रहालयों में बंद नहीं है, न ही उनके देवता यूनानी देवताओं की तरह किसी पौराणिक काल के स्मृति चिन्ह हैं। मिथक और पौराणिक स्मृति और वर्तमान जीवन और देवता और मनुष्य आज भी एक साथ रहते हैं। सैकड़ों विश्वासों, आस्थाओं, स्मृतियों और संस्कारों का यह संगम केवल एक ऐसी संस्कृति में संभव हो सकता है जिसमें संपूर्ण मनुष्य की परिकल्पना निहित रहती है।

अत: आज प्रश्न यह नहीं है कि राजनीति को धर्मावलंबी होना चाहिए या धर्मनिरपेक्ष। क्योंकि दोनों संज्ञाएँ आधुनिक भारतीय की खंडित मानसिकता का बोध कराती हैं। हमारे देश में ऐसे लाखों लोग हैं जिन्हें एक समय अपने जीवन की अर्थवत्ता नानक और कबीर, विवेकानंद, गांधी और परमहंस में मिल जाती थी। आज वही लोग साँई बाबा, भगवान रजनीश और भिंडरवाला के पास जाते हैं जिनका संबंध न आस्था से है और न धार्मिक बोध से। धर्म का झरना सूखने के कारण लोग अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए सिर्फ गंदे नाले के पास जा सकते हैं जो सेक्यूलर समाज के बीचों-बीच बहता है।

धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत प्रगति और विकास की छलनाओं के साथ जी रहा है। स्वतंत्रता के बाद हम अपने को यह सुविधाजनक छलावा देते आए थे कि अपने जीवन से धर्म को निष्कासित करने पर ही हम विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं। नेहरू युग का यह सबसे सुंदर स्वप्न था कि यदि हम पश्चिमी देशों की तरह अपने देश में विराट पैमाने पर औद्योगीकरण कर सकें तो देश की समस्त जातीय समस्याएँ अपने आप हल हो जाएँगी। भारत की सब पार्टियाँ दक्षिणपंथी हों या वामपंथी, कम-से-कम इस आर्थिक आदर्श के मामले में एकमत हैं। आज विकास की छलनाएँ हमारे सामने अपने पूरे खोखलेपन के साथ प्रकट हो गई हैं किंतु उससे जुड़ी धर्मनिरपेक्षता की छलना से मोहभंग आज भी नहीं हो पाया है। दोनों ही हमारी मानसिक गुलामी के दो पक्ष हैं। इस तरह की मानसिक गुलामी और गरीबी हमने अंग्रेजी शासन के भीतर भी महसूस की थी।

कम-से-कम उस समय गुलामी में जीते हुए भी हमारे भीतर यह सब शक्तियाँ और आशाएँ, निष्ठाएँ जागृत हुई थीं जो हमें अपनी परंपरा के प्रति स्वाभिमानी और भविष्य के प्रति आस्थावान बनाती थीं। हमारा स्वतंत्रता आंदोलन इस आस्था के कारण ही लाखों लोगों को अपनी गरीबी और विपन्नता के बावजूद इतने व्यापक रूप से आलोढ़ित कर पाया था। बीसवीं शती के आरम्भिक तीन दशकों में भारतीय जीवन के कर्म और चिंतन के स्तर पर जो असाधारण सृजनशीलता का दौर आया था वह आज अविश्वसनीय जान पड़ता है। गांधी, तिलक, रवींद्रनाथ टैगोर, श्री अरविंद के नाम याद आते हैं। उनकी तुलना में आज हमारी आध्यात्मिक अवस्था और व्यक्तिगत कार्य-प्रणाली कितनी फूहड़, अश्लील और नकली हो गई है क्या इसकी कल्पना हमारे पूर्वज कर सकते थे?

अत: आज प्रश्न धर्मनिरपेक्षता बरक्स धार्मिक कट्‍टरता का नहीं है। आधुनिक युग में दोनों की ही अमानुषिक बर्बरता जीवन के हर क्षेत्र में अभिव्यक्त हुई है। यह कोई संयोग नहीं था कि हमारी शताब्दी में सेक्यूलर विचारधाराएँ कम्यूनिज्म या फासिज्म सबसे भयानक संहार के अपराधी हैं और उनके ये अपराध उन कट्‍टर धार्मिक विचारधाराओं के समतुल्य ही हैं जिन्होंने क्रिश्चेनिटी और इस्लाम के विस्तार के लिए एशिया, अमरीका और अफ्रीका की सैकड़ों संस्कृतियों को ध्वस्त कर दिया। लातीनी अमरीका में स्पानी और क्रिश्चन मिशनरीज दोनों ही वहाँ के आदिवासियों के विनाश के उत्तरदायी थे। आधुनिक युग की ये क्या उल्लेखनीय विडंबनाएँ नहीं हैं कि ऊपर से दिखनेवाली दो विपरीत विचारधाराएँ धार्मिक अंधता और धर्मनिरपेक्ष राज्य-शक्तियाँ दोनों ने ही मनुष्य को उसे आंतरिक और आत्यंकित सत्य से विचलित किया है? बीसवीं शताब्दी के अंत में हमें पूछना चाहिए कि धर्म तो कैसा धर्म, किस धर्म के प्रति निरपेक्षता? जब तक हम इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाएँगे तब तक हम धर्म को सांप्रदायिकता से अलग नहीं कर पाएँगे। हिंदुस्तान में धार्मिक परंपरा का बोध जो लोगों की जीवन समरसता में रचा-बसा है, हमें उसे छद्‍म सांप्रदायिकता से अलग करना होगा जो बाहर से आरोपित की जाती है। इस दृष्‍टि से भारतीय चरित्र के लिए धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म असहज और आरोपित है।

यह बात विरोधाभास जान पड़े किंतु एक धर्मावलंबी भारतीय के लिए धर्म को सांप्रदायिकता में संकुचित करना उतना ही अस्वाभाविक है जितना धर्म के प्रति निरपेक्ष रहना। सांप्रदायिकता और सेक्यूलरिज्म दोनों ही सहज सांप्रदायिक मर्यादा के अपदस्थ और भ्रष्‍ट रूप हैं जिनका भारतीय संस्कृति के परंपरागत मनीषा से कोई संबंध नहीं है। यदि हमारे देश के हिंदू इस मनीषा के अधिक निकट रहे हैं तो इसलिए कि उन पर कभी ईसाई और मुसलमान की तरह किसी धर्म प्रतिष्ठान का प्रभुत्व नहीं रहा किंतु दूसरा बड़ा कारण यह भी रहा है कि भक्तिकाल से आज तक भारतीय संस्कृति और धर्म के बीच किसी तरह का कोई अंतराल नहीं हुआ। जब कभी भारतीय संस्कृति में ठहराव और संकीर्णता के लक्षण दिखाई दिए तभी उसी संस्कृति के भीतर उसके विरोध में कबीर, नानक, रामकृष्‍ण परमहंस, विवेकानंद और गाँधीजी ने हिंदू धर्म को आत्मदूषित संकीर्णता से उबारकर एक तरह भारतीय परंपरा से जुड़ने के लिए उत्प्रेरित किया।

हम अक्सर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की बात करते हैं, मुझे यह बात ही विचित्र लगती है। प्रश्न संप्रदायों की छोटी-बड़ी संख्या का नहीं बल्कि एक ऐसी धर्मसंपन्न संस्कृति का है जिसमें सिक्ख, हिंदू, मुसलमान ही नहीं, हजारों-लाखों आदिवासी भी रहते हैं। ये सब संप्रदाय और जातियाँ हजारों वर्षों से एक विशिष्ट भौगोलिक परिवेश में रहते आए हैं, सिर्फ रहते नहीं आए बल्कि इन्होंने एक-दूसरे के जातीय, सामाजिक और धार्मिक चरित्र को लेन-देन के सहिष्णु व्यवहार से अद्‍भुत रूप से समृद्ध बनाया हैं। यदि भारत की भौगोलिक अखंडता के प्रति मेरा इतना गहरा लगाव है तो महज देश-भक्ति या राष्ट्र-भावना के कारण नहीं बल्कि इसलिए कि बिना इस भौगोलिक परिवेश के ये उप-जातियाँ, विविध धर्म-संप्रदाय संस्कृतियाँ एकसूत्रित समूह का अंग न हो पातीं, जिसे हम भारतीय सभ्यता का नाम देते हैं।

आज जब दूसरे देश में धर्म के फंडामेंटलिज्म जोश में एक इस्लामी देश ईरान में मुसलमानों का ही संहार होता है, भूतपूर्व कम्यूनिस्ट देशों में केंद्रीय सत्ता छोटे-छोटे राष्ट्रों की संस्कृति और भाषा को नष्‍ट करती थी, पश्चिम देशों में जहाँ 18वीं-19वीं शताब्दी में एशियाई-अफ्रीकी संस्कृतियों को भ्रष्ट किया है वहाँ आज भी एक ‘पिछड़ा हुआ’ देश है जिसके भौगोलिक परिवेश में अनेक धर्मावलंबी आदिवासी संप्रदाय और भाषाएँ एक साथ जीवित रह सकती हैं, मेरे लिए यह अनमोल और मूल्यवान सत्य है। चूँकि इस सभ्यता में हिंदू बहुसंख्यक हैं तो क्या इसकी रक्षा करना केवल हिंदुओं का कर्त्तव्य है? सच्ची बात तो यह है कि हम इसे किसी भी नाम से कहें हिंदुस्तानी संस्कृति, सनातन धर्म या भारतीय सभ्यता, किसी अन्य धार्मिक ढाँचे के भीतर इस तरह का अद्‍भुत सहअस्तित्व संभव नहीं हो सकता था।

स्वतंत्रता के बाद हमारे सत्तारूढ़ वर्ग ने जो नीतियाँ बनाई वे भारतीय सभ्यता की इसी सांस्कृतिक परंपरा के प्रति घोर अवज्ञा और अज्ञान का परिणाम थीं। दुनिया में शायद ही किसी देश में बौद्धिक दिवालिएपन और आत्मविस्मृति की मिसाल कहीं देखने को मिले जो हमें भारत में दिखाई देती है। अपने तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्षी’ (जिसे धर्म अज्ञान कहना अधिक उचित होगा) उत्साह में इस सत्तारूढ़ वर्ग ने पश्चिम की भोंडी नकल करते हुए भारत के सार्वजनिक जीवन से इस परंपरागत सभ्यता-बोध को प्रतिक्रियावादी और पिछड़ा हुआ मानकर बहिष्कृत कर दिया। शायद 19वीं शताब्दी के वे क्रिश्चन मिशनरी भी ये देखकर हैरान रह जाते कि जिस धर्मबोध को वे भारतीय मनीषा से निष्कासित करने में असफल रहे थे उसे स्वतंत्रता के बाद हमारे राजनेताओं ने किस हिकारत और वितृष्‍णा से तिरस्कृत कर दिया। इससे ज्यादा भयंकर और त्रासद घटना क्या हो सकती है कि जिस राष्ट्रीय चेतना को गाँधीजी, श्री अरविंद, तिलक और विवेकानंद जैसे मनीषियों ने धर्म का आधार बनाया था उन्हीं को एक ऐसे समय में भुला दिया गया जब भारत एक विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई की हैसियत से पश्चिम की स्वार्थग्रस्त भौतिक सभ्यता को चुनौती दे सकता था। लेकिन अगर ध्यान से देखें तो यह कोई विशेष आश्चर्य की बात भी नहीं थी।

यह एक तरफ अंधाधुंध औद्योगीकरण करने की लिप्सा और दूसरी ओर एक संस्कृति-शून्य परंपरा-बोध से रिक्त सेक्यूलर व्यवस्था का निर्माण करने की अनिवार्य परिणति थी। जिस तरह विकास के नाम पर इस वर्ग ने मनुष्य और प्रकृति के सहज संबंध को खंडित किया ठीक उसी तरह एक तथाकथित सेक्यूलर राज्यसत्ता के नाम पर उसने एक भारतीय के धर्म-संस्कार और उसके सभ्यता-बोध के बीच जो संबंध सदा से चल रहा था उसे भी खंडित किया। यदि आर्थिक स्तर पर प्रकृति मनुष्य के शोषण का साधन बनी तो राष्ट्रीय स्तर पर मनुष्य की धार्मिक आस्था का शोषण हर सेक्यूलर पार्टी अपने निहित स्वार्थों के लिए कर सकती थी। अल्पसंख्यकों को राष्ट्र के भीतर हमेशा अल्पसंख्यक रखना ताकि वे अपने को हमेशा असुरक्षित महसूस करते रहें और इस असुरक्षा-बोध को अपनी वोटों से भुनाते रहें जिसका परिणाम आज हम भुगत रहे हैं। ये संरक्षण और सुरक्षा के नाम पर भारत के सामाजिक-राजनीतिक जीवन को हमेशा के लिए विभाजित रखने की ही स्वार्थपरक मानसिकता थी।

अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि धर्मनिरपेक्षता की नीति भारत को एक राष्ट्रीय राज्यसत्ता (नेशन स्टेट) में परिणत करने के लिए आवश्यक थी, किंतु क्या धर्म के आधार पर भारतीयों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में विभाजित करने की नीति किसी सशक्त राष्ट्रीय अस्मिता को जन्म दे सकती है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता आंदोलन के कर्णधारों के सामने राष्ट्रीय राज्य-व्यवस्था का महत्व कोई कम था किंतु उनकी राष्ट्र की अवधारणा पश्चिम के राष्ट्रों से सर्वथा भिन्न थी जिन्होंने अनेक छोटी जातियाँ, उपजातियाँ और लोकसंस्कृतियों को नष्ट करके ही अपनी राष्ट्रीय अस्मिता स्थापित की थी। इसके विपरीत भारत की राष्ट्रीय अस्मिता दूसरों के विनाश पर नहीं, अपनी सभ्यता के विविध चरित्र से बनी हैं किंतु भारतीय संस्कृति का बहुलवादी ‘प्लूरिस्टिक’ चरित्र हमारे धर्मनिरपेक्षीय नेताओं के दृष्टिकोण से बहुत अलग है जिसके अनुसार भारतीय एकता को सिर्फ अनेकता में देखा जाता है। अनेकता के भीतर अंतर्निहित जो एकनिष्ठ सभ्यता-बोध है उसे अनदेखा कर दिया जाता है।

यह कुछ वैसा ही है कि हम किसी वृक्ष की विभिन्न शाखाओं को तो देखें लेकिन इन शाखाओं को प्रश्रय देनेवाली मूल शक्ति को भुला दें। क्या है यह मूल शक्ति भारतीय सभ्यता की? यह मूल शक्ति इस विषय में निहित है कि सत्य को पाने के लिए अनेक रास्ते हो सकते हैं, लेकिन कोई एक रास्ता सत्य को अपनी बपौती मानकर दूसरों का तिरस्कार नहीं कर सकता। यही कारण है कि भारतीय सभ्यता में सैकड़ों देवी-देवता हैं, उपनिषद् और महाकाव्य हैं, साधू-संत और ऋषि-महात्मा हैं लेकिन कोई एकमात्र ‘धर्मपुस्तक’ या धर्म संस्था ऐसी नहीं है जो अपने सत्य को बलपूर्वक दूसरों पर आरोपित करने का दावा कर सके। ये एक ऐसी सभ्यता है जिसे अपनी लोकतांत्रिक मनीषा के लिए पश्चिम की सेक्यूलर व्यवस्थाओं पर निर्भर नहीं रहना पड़ता, वह सहज रूप से उसके स्वभाव में पहले से ही अंतर्निहित है।

स्वतंत्रता के 50 वर्ष बाद हम जिन कटु अनुभवों से गुजरे हैं उनके आधार पर हमें इसलिए धर्म और सेक्यूलरिज्म की अवधारणाओं का बुनियादी परीक्षण करना होगा और यह तभी सार्थक होगा जब हम इसे अपने परंपरागत सभ्यता-बोध के आधार पर काने का साहस जुटा सकें। धार्मिक फंडामेंटलिज्म तो बुरा है ही सेक्यूलर फंडामेंटलिज्म उससे भी बुरा है, क्योंकि ये पश्चिमी बुद्धिवाद (रेशनलिज्म) की आड़ में एक तरह की अंधविश्वासी कट्‍टरता उत्पन्न करता है और जिसका सामना आधुनिक दुनिया में इसलिए करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि इसमें विज्ञान और प्रगति की विचारधाराएँ इतनी शक्तिशाली हैं। साम्यवाद एक ऐसी ही प्रलोभन भरी आकर्षक विचारधारा थी। क्या यह अपने में एक आश्चर्यजनक चीज नहीं है कि कम्यूनिज्म के विघटन होने के बाद हमारे देश के सभी वामपक्षी बुद्धिजीवी और राजनेता रातों-रात सेक्यूलरिस्ट बन गए। कम-से-कम हमारे देश के साम्यवादियों को तो इतिहास से थोड़ी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए थी क्योंकि उन्होंने ही धर्म के आधार पर जिन्ना साहब की दो नेशन सिद्धांत जैसी घातक विचारधारा का समर्थन किया था जिसका परिणाम देश के विभाजन में हुआ था।

स्वतंत्र भारत में विभाजन की ये प्रक्रिया इसलिए जारी रखना कि उससे चुनावों में वोट हासिल हो सकते हैं, कुछ समय के लिए तो लाभप्रद हो सकती है लेकिन देश के हितों के लिए इससे अधिक भयानक, आत्मघाती नीति शायद कोई और नहीं हो सकती। पाकिस्तान का निर्माण देश के लिए दुर्भाग्य तो था ही, स्वयं भारतीय मनुष्य के लिए सबसे बड़ा अभिशाप था क्योंकि विभाजन से एक खंड के मनुष्यों को धर्म के आधार पर दूसरे खंड के मनुष्यों के अतीत, भाषा और इतिहास से बाँट देना न केवल अप्राकृतिक था बल्कि असंभव भी। जमीन को बाँटा जा सकता है, इतिहास और अतीत की सामूहिक सम्पदा को नहीं और इस तरह का जब नकली बँटवारा होता है तो उसका घाव उस जाति की आत्मा में नासूर की तरह रह जाता है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि कश्मीर संस्कृति और इतिहास को आज पुन:धर्म के आधार पर भारतीय सभ्यता से अलग करने का प्रयास किया जा रहा है। कश्मीर, जो हमेशा से भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अंग रहा है क्या उसे केवल इस आधार पर बाकी देश से अलग किया जा सकता है कि उसमें मुसलमान बड़ी संख्या में रहते हैं? भारतीय सभ्यता-बोध को यह श्रेय जाता है कि उसने विभाजन के बाद भी पाकिस्तान की नकल में भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित नहीं किया। आज प्रश्न यह है कि क्या हम स्वतंत्र भारत में इस सभ्यता-बोध को राष्ट्र-निर्माण का आधार बना सकते हैं।

हमने पिछले 50 वर्षों में जिस समाज-व्यवस्था को प्रगति, औद्योगीकरण और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर निर्मित किया दुर्भाग्यवश वह उस आदर्श से बहुत दूर है जिसे कभी इस शताब्दी के आरंभ में हमारे धार्मिक और राजनीतिक मनीषियों ने देखा था। आज हालत यह है कि हमारा समाज ‘धर्मनिरपेक्ष’ नहीं, इन सब मानवीय, आस्थावान, जीवनदायी मूल्यों के प्रति निरपेक्ष है जो भारतीय सभ्यता का मूल लक्षण था। जिस तरह धर्म का निकृष्ट रूप संकीर्ण सांप्रदायिकता है उसी तरह धर्मनिरपेक्षता का विकृत रूप सनकी स्वार्थपरक मूल्यहीनता। दोनों ही सांस्कृतिक मूल्यों से रिक्त और परंपरा-शून्य हैं। पिछले 50 वर्षों में भारत में जिस भौतिक परजीवी आधुनिक जीवन शैली का विकास हुआ है वह विकास और प्रगति की तरफ नहीं जाते बल्कि स्वयं उसके भीतर सांप्रदायिक असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षी मूल्यहीनता के विषैले तत्व जन्मे और पनपे हैं। क्या हम एक ऐसे राज्य-तंत्र का निर्माण कर सकेंगे, जिसमें भारतीय परंपरा का बोध – जिसे हमने भारतीय सभ्यता का धार्मिक भाव-बोध माना है – उसे अपनी मांस-मज्जा में रूपायित कर सकें?

– निर्मल वर्मा

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: fake secularismpsudo seculerreligion

हिंदी विवेक

Next Post
जंगलों में बनी अवैध मजारों पर चलेगा बुलडोजर !

जंगलों में बनी अवैध मजारों पर चलेगा बुलडोजर !

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0