मनुष्य का शरीर एक ‘कल्पवृक्ष’ है

मनुष्य का शरीर एक ‘कल्पवृक्ष’ है, इसकी छाया में बैठा हुआ मन उत्तम वरदान पा सकता है, मनोकामनाएँ पूरी कर सकता है पर स्वर्ग के और पृथ्वी के कल्पवृक्षों में थोड़ा सा अंतर यह है कि स्वर्ग के कल्पवृक्ष इच्छा करते ही, बिना श्रम के ही मनोकामनाएँ पूरी कर देते हैं, पर पृथ्वी का यह “कल्पवृक्ष” मानव शरीर “परिश्रम” की कसौटी पर कसे जाने के उपरांत ही अभीष्ट फल प्रदान करता है ।

वैसे उनमें शक्ति, सामर्थ्य एवं संभावना इतनी अधिक सन्निहित है कि मनुष्य चाहे जिस स्थिति तक पहुँच सकता है, चाहे जो बन सकता है, चाहे जिस वस्तु को प्राप्त कर सकता है । उसकी शक्ति का कोई अंत नहीं । मानव शरीर का निर्माण बड़े विलक्षण मसाले से हुआ है । यदि निकम्मा पड़ा रहे तो बात दूसरी है, अन्य किसी भी दिशा में उसे सुनियोजित ढंग से लगा दिया जाय तो मंजिल पर मंजिल पार करते हुए सफलता की अंतिम सीढ़ी तक जा पहुँचता है ।

“परिश्रम” एक प्रकार की शरीर साधना है । इस साधना के द्वारा शरीर देवता को प्रसन्न कर उससे अभीष्ट वरदान प्राप्त किये जा सकते हैं । जिस प्रकार देवताओं या भूत-पलीतों की साधना की जाती है, उसी प्रकार यह “शरीर” भी एक प्रत्यक्ष देवता है, इसमें एक से एक अद्भुत वरदान दे सकने की क्षमता विद्यमान है, पर वह देता उसी को है, जो “श्रम”-“साधना” द्वारा अपनी “श्रद्धा”, “भक्ति” एवं “पात्रता” की परीक्षा देने में पीछे नहीं हटता।

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