‘धन’ कमाना बुरा नहीं है उसका सदुपयोग करना आना चाहिए

पैसे की अधिकता के कारण ही कोई मनुष्य श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता । “श्रेष्ठ” कार्य ही मनुष्य को “श्रेष्ठ” बना सकते हैं । यदि पैसे ने आज तक किसी को श्रेष्ठ बनाया होता तो संसार के धनवान लोग किसी निर्धन को प्रतिष्ठा पाने ही न देते । वे एक के दस खर्च करके समाज की सारी प्रतिष्ठा अपने लिए खरीद लेते ।

ऐसा नहीं है कि धन प्रतिष्ठा के लिए बाधक है अथवा धनवान प्रतिष्ठा पा ही नहीं सकता । “धनवान” प्रतिष्ठा पा सकते हैं किंतु वे, जिनके धनोपार्जन के साधन पवित्र एवं उपयुक्त होते हैं और जिनका धन समाज सेवा के किन्हीं श्रेष्ठ कार्यों पर खर्च होता है ।

धन को धनवान होने के लिए कमाना और रखते जाना अथवा केवल अपने पर ही खर्च करना कोई अर्थ नहीं रखता। जो समाज के बीच धन कमाता और जोड़ता रहता है, जिसका पैसा आवश्यकता पड़ने पर पीड़ितों अथवा समाज सेवा के काम में नहीं आता, वह वास्तव में धनवान नहीं, धन का चोर है। धन किसी के अधिकार में क्यों न हो वह समाज का ही है क्योंकि उसकी प्राप्ति समाज से, समाज की सहायता से ही हुई है । उस धनवान को श्रेष्ठ ही कहा जाएगा जो समाज के धन को अपनी सुरक्षा में रखकर बढ़ाता और समयानुकूल उसका उपयुक्त भाग समाज सेवा के कार्यों में खर्च करता है । ऐसे धनवान श्रेष्ठियों को समाज का खजांची ही माना जाएगा और वे अपने पद एवं कार्य के अनुरूप प्रतिष्ठा के अधिकारी होंगे।

तन, मन, धन तीनों उपकरणों में से जो व्यक्ति कोई भी उपकरण समाज के श्रेष्ठ कामों में नियोजित करता है, उसे एक श्रेष्ठ मनुष्य ही कहा जाएगा । केवल धनवान, बलवान अथवा महामना मात्र होने से कोई श्रेष्ठता का अधिकारी नहीं हो सकता । जिसका धन, बल और महा मानवता समाज के किसी काम नहीं आती वह अपने काम में कितना ही श्रेष्ठ एवं महान बनता रहे वस्तुतः समाज उसे श्रेष्ठ मानने और श्रेष्ठता देने के पक्ष में कृपणता ही बरतेगा ।

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