जायकेदार खाने और सुमधुर गाने का अनुरागी है इंदौर

इंदौर की अन्य विशेषताओं के साथ ही साथ वहां की खाद्य परम्परा भी आने वाले आगंतुकों को बरबस खींचती है। चाहे इंदौरी नमकीन हो या पोहा-जलेबी या फिर छप्पन दुकान क्षेत्र के लाजवाब स्ट्रीट फूड, इंदौर शहर की स्वाद रसिकता को विश्वव्यापी पहचान देते हैं।

इंदौर की संस्कृति, परिवेश, बोलचाल, पहनावे और जनजीवन पर जब दृष्टि डाली जाए तो उसमें अतीत और वर्तमान का सुंदर सम्मिश्रण स्पष्टगोचर होता है। एक सुदीर्घ सांस्कृतिक विरासत के साथ ही यह बदलते समय और सोच को अंगीकार करने वाला शहर है। शास्त्रीय संगीत, कविता, साहित्य, चित्रकला के साथ विज्ञान, तकनीक, उद्योग और व्यवसाय का भी सफल रहा है इंदौर। इस सब के साथ खान-पान और सांस्कृतिक वैभव के लिए भी इस शहर की अपई(अपनी) पृथक पहचान है। वैसे भी व्यक्ति साधारण पृष्ठभूमि का हो या अभिजात्य वर्ग का; उसके जीवन में भोजन और व्यंजनों की रसप्रियता कभी कम नहीं होती।

आम इंदौरी हर मौसम में अपनी पसंद के भोजन का रस चख ही लेता है। यहां देशभर की विभिन्न जातियों, धर्मों और बोलियों का सुंदर समावेश है। नमकीन चटख़ारे इंदौर की विश्वव्यापी पहचान हैं। आम आदमी के जीवन से पोहा, सेंव, कचोरी और समोसा यदि निकाल दिया जाए तो ऐसा लगेगा जैसे किसी ने जिस्म से प्राण ही निकाल दिए हों। सुबह के नाश्ते में पोहा और जलेबी की लज्जत घर-घर में महकती नजर आती है। बड़े-बड़े कलावंत या सेलिब्रिटीज जब भी इंदौर आते हैं तो पोहा-जलेबी की फरमाइश किये बिना नहीं रह्ते।

खाऊ गल्ली कहिए, ठिकाना या बाजार; इंदौर का छप्पन दुकान क्षेत्र सुबह से ही जायके की जाजम बिछा देता है। मिठाइयों, नमकीन और फरसाण के कई लोकप्रिय ब्रांड छप्पन दुकान की शान में चार चांद लगाते हैं। स्मार्ट सिटी के अंतर्गत विकसित और नवश्रृंगारित छप्पन दुकान की चर्चा देशभर में है। मुम्बई की चौपाटी की तर्ज पर अस्सी के दशक में अस्तित्व में आए छप्पन दुकान में मालवा के पारम्परिक व्यंजनों से लेकर नये जमाने के युवाओं के पित्जा, बर्गर, और वड़ापाव की खुशबू भी महकती है। इधर उज्जैन में महाकाल लोक में आने वाले धर्मानुरागी कहीं और जाएं न जाएं, एक बार इंदौर की छप्पन दुकानों से होते ही अपने शहर लौटना पसंद करते हैं। सीमावर्ती राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र से आने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है, जिसकी एक वजह इंदौर की स्वच्छता का सिरमौर बनना भी है। आखिर हर एक व्यक्ति ये तो देखना ही चाहता है कि एक शहर लगातार छह बरस तक देश का सबसे स्वच्छ शहर बनने का तमगा कैसे हासिल किए हुए है। व्यंजन उद्योग को लोकप्रियता देने में देश भर से आए विद्यार्थियों का भी बड़ा योगदान है क्योंकि मध्यभारत प्रांत में इंदौर एक बड़े और प्रतिष्ठित एज्युकेशनल हब के रूप में भी उभरा है।

राजे-रजवाड़े चले गए लेकिन मालवा के आदमी की तबियत में राजसी ठाठ कायम है। इसका श्रेय दाल-बाफले की रसोई को देना होगा। इंदौरी परिवारों में बिना किसी मुहूर्त, प्रसंग या अवसर के दाल-बाफले उड़ाए जाते हैं। बाफले से ही बना चूरमे का लड्डू, पोदीना और धनिये की चटनी, बेसन के गट्टे और उसके साथ लज्जतदार कढ़ी इस रसोई को पूर्णता देती है। इसका आनंद बरसात और सर्दियों में कुछ अधिक आता है लेकिन मालवी रसप्रेमी अपने चटोरेपन की पूर्ति के लिए किसी खास मौसम का इंतजार नहीं कर सकता।

कारोबार और नौकरी के लिए लाखों लोग इंदौर में आकर बस गए हैं और उनके साथ ही आ गया है उनके अपने राज्यों का भोजन, पहनावा और भाषा। यह इस शहर की जिंदादिली ही कही जानी चाहिये कि यह देश-विदेश के व्यंजनों को अपनी जिव्हा पर सजाकर आनंदित होता है। यह इंदौर की ही विशेषता है कि महज 5 या 10 रु. में कोई व्यक्ति सुबह के नाश्ते से दिन की शुरूआत कर सकता है। इसके बाद कई सितारा होटलों और नामचीन रेस्टॉरेंट्स में तो स्वाद की खुशबू मिल ही जाती है लेकिन रात को 8 बजे के बाद सराफा में शुरू होने वाला व्यंजनों का मेला पूरे संसार में विख्यात है। जेवरों के व्यापारी जब रात को अपनी दुकान का शटर डाल देते हैं तब उन्हीं दुकानों के आगे पानी-पूरी, दहीबड़ा, कुल्फी, शिकंजी, टिकिया-छोले, गराड़ू, जलेबी, रबड़ी, साबूदाने की खिचड़ी और मालपुए की महफिल रौशन हो जाती है। कामकाज से फारिग होकर इंदौरी परिवार या उनके घर में आए हुए मेहमान देर रात तक इस लज्जतदार ठिकाने पर मौजूद रहते हैं। स्वर-कोकिला लता मंगेशकर इंदौर की बात चलते ही सराफा बाजार के इस रात्रिकालीन मजमे की बात करना नहीं भूलती थीं।

खाने के साथ गाने का अनुरागी इंदौर बेहतरीन सांस्कृतिक आयोजनों का मेजबान शहर भी है। राष्ट्रीय लता पुरस्कार अलंकरण समारोह सन 1984 से यहां आयोजित हो रहा है और मेहदी हसन, जगजीत सिंह, इलैयाराजा, भूपेन हजारिका, आशा भोसले, हरिहरन, एस.पी.बाल सुब्रमण्यम, पं. हृदयनाथ मंगेशकर, रवि, नौशाद, अनिल विश्वास, खैयाम और ए.आर. रहमान जैसे शीर्षस्थ संगीतज्ञ इंदौर आकर अलंकृत हो चुके हैं। सांघी संगीत समारोह ने बड़े गुलाम अली खां साहब, ओंकारनाथ ठाकुर, पं. जसराज, गिरिजा देवी, उस्ताद बिसमिल्ला ख़ान, पं.भीमसेन जोशी, पं. रविशंकर, उस्ताद जाकिर हुसैन, पं. शिवकुमार शर्मा, पं. हरिप्रसाद चौरसिया जैसे महान कलावंतों की उकृष्ट प्रस्तुतियों का गवाह भी रहा है इंदौर। सुकठी लता मंगेशकर ने यहां पचास और अस्सी के दशकों में दो यादगार संगीत प्रस्तुतियां दी हैं । यह शोध का विषय हो सकता है कि ऐसा कोई दूसरा शहर शहर भारत में है क्या जहां लता जी ने दो बार संगीतरसिकों के कानों को मालामाल किया हो, बेशक मुंबई जरूर अपवाद हो सकता है।

इंदौर में शनिवार और रविवार को जिस तरह से होटल-रेस्टॉरेन्ट्स में भीड़ उमड़ती है, उसी तरह शहर के सभागारों में शास्त्रीय संगीत, फिल्म संगीत, कविता-शायरी और गीत-गजल के अनवरत सिलसिले जारी रहते हैं। छह-आठ महीने पूर्व बुकिंग किए बिना इंदौर में किसी भी सभागार की उपलब्धता तकरीबन नामुमकिन होती है। शहर देश के सितारा कलाकार तो आते ही हैं लेकिन इंदौर के कलाकारों की भी एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्हें श्रोताओं का निर्बाध स्नेह मिलता रहता है। कई आवाजें इस शहर को देशव्यापी पहचान में शामिल हैं जिनमें उस्ताद अमीर ख़ां साहब, गोस्वामी गोकुलोत्सव जी महाराज, पं. प्रताप पंवार, डॉ. पुरू दाधिच, कल्पना झोकरकर, शोभा चौधरी, डॉ. सुचित्रा हरमलकर, डॉ.रागिनी मक्खर, गौतम काळे, कमल कामले, तेजस विंचूरकर- मिताली विंचूरकर, पलक मुछाल, राजेश मिश्रा, सारिका सिंह, चितन बाकीवाला, प्रियाणी वाणी, मंगेश जगताप के नाम उल्लेखनीय हैं।

इंदौर तसल्ली और सुकून से जीने वाला शहर है। धर्मनिरपेक्षता इस शहर की साख को समृद्ध करती है। स्वाद प्रेम इंदौर का अभिन्न हिस्सा है। इंदौर प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों, औद्योगिक उपक्रमों, सामाजिक संस्थानों और नामचीन व्यक्तित्वों का अपना शहर ही है लेकिन इसके अपनेपन को बढ़ोत्तरी देते हैं यहां की स्वाद और संगीत परम्परा। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी इंदौर में ये सिलसिला जारी रहता है। यह लोकमाता पुण्यश्लोका मां अहिल्याबाई होलकर का इंदौर पर अखण्ड आशीर्वाद ही तो है।

– संजय पटेल 

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