इंदौर का नमकीन और मिठाइयों का कारोबार पूरे विश्व में अपनी एक अलग पहचान रखता है। इसके पीछे सर्व प्रमुख कारण यहां के लोगों का स्वाद के प्रति आग्रह एवं यहां की आबोहवा है। नाश्ते में इंदौर के पोहा-जलेबी भी अपना एक अलग स्थान रखता है।
पाषाण युग से लगाकर इक्कीसवीं सदी तक दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में विकसित बेमिसाल स्वाद का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, यकीनन इंदौर के नमकीन और मिठाई उसमें ससम्मान दर्ज होंगे। अपेक्षाकृत मीठे लोग, मीठी बोली, चटपटा मिजाज, बड़ा दिल, किसी के भी साथ जल्द ही घुल-मिल जाने की प्रकृति, नर्मदा का बेजोड़ पानी, न ज्यादा ठंडी न ज्यादा गरम आबोहवा, साफ नीयत, उत्सव प्रिय शहर, व्यापारिक तासीर- इतना सब होने के बावजूद भी यदि इंदौर के मिठाई-नमकीन को सुरखाब के पंख न लगते तो जरूर ताज्जुब की बात होती। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि मालवा और मारवाड़ की संस्कृति और स्वाद का ऐसा अनोखा मिश्रण भी बिरले ही कहीं देखने को मिलेगा। इंदौर के स्वाद का परचम लहराने में इस तालमेल के योगदान को खारिज नहीं किया जा सकता।
इंदौर में स्वाद का इतिहास आजादी के बाद का ही समझें। गुलामी के बंधन से मुक्त होने के बाद जब मुल्क ने चैन की सांस ली तब उसे यह ख्याल आया कि अब काम-धंधे मेें लगा जाए। आजादी की लड़ाई की जो अलग-अलग कीमत चुकाई गई उसमें कारोबार की बरबादी भी शरीक थी। स्वतंत्रता से पहले और बाद में देश के मध्य में स्थित एक शांत और व्यापारिक शहर इंदौर में भी देश के अलग-अलग हिस्सों से काफी तादाद में लोग आकर बस गए। खास तौर से अविभाजित हिंदुस्तान के सिंध, पंजाब तथा राजस्थान, दिल्ली से विस्थापित और व्यापारी दोनों ही तरह से लोगों का इंदौर आगमन हुआ।
सिलसिलेवार नजर डालें तो जो भी प्रमुख संस्थान हैं, उनके संचालक ज्यादातर बाहर से ही आए हैं। मसलन, अग्रवाल स्वीट्स 75 साल पहले सीकर राजस्थान से। शर्मा स्वीट्स 80 साल पहले दिल्ली से। नागौरी स्वीट्स 75 साल पहले नागौर राजस्थान से। जे एम बी 85 साल पहले बड़नगर से। मधुरम स्वीट्स 65 साल पहले ब्यावर राजस्थान से। जोशी दहीबड़ा 65 साल पहले नाथद्वारा राजस्थान से। प्रशांत रेस्त्रां 90 साल पहले निजामपुर महाराष्ट्र से। इस तरह एक लम्बी परम्परा, लम्बा इतिहास रहा है जिसके तहत लोग इंदौर आए और यहां के स्वादू लोगों को नए और नफीस स्वाद से रूबरू कराया।
पहले बात करते हैं मिठाई की। सन 1950 के आसपास नागौरी स्वीट्स के विजयराज, अग्रवाल स्वीट्स के हरिनारायण, शर्मा स्वीट्स के दयाशंकर इंदौर आए। उस वक्त बेहद पारम्परिक मिठाइयां बेसन चक्की, पेड़ा, रबड़ी, जलेबी, इमरती बनते थे। बाहर से आए इन कारोबारियों ने अपने हुनर और हिकमत से इंदौरियों को वो स्वाद परोसा कि अभी तक उनकी जबान से वह छूटा नहीं बल्कि आसक्ति बढ़ती ही गई। विवेक नागौरी ने बताया कि उनके दादा विजयराज ने यहां आकर सराफा में मिठाई की दुकान शुरू की। उन्होंने पारम्परिक मिठाई के अलावा राजस्थान में प्रचलित मिठाइयां भी बनाना शुरू की जिसे लोगों ने पसंद किया। इस संस्थान को एक सर्वथा नई और विशिष्ट पहचान दी शिकंजी ने। 50 बरस की हो गई शिकंजी लेकिन आज भी उसके आसपास टिक सके, ऐसी शिकंजी दूसरा कोई नहीं बना सका। हकीकत तो यह है कि 2-3 संस्थानों से ज्यादा कोई हिम्मत ही नहीं जुटा पाया। यह मूलत: राजस्थान का पेय पदार्थ था, जिसे इंदौर ने अलग पहचान और मुकाम दिया।
इसी तरह शर्मा स्वीट्स के इंदौर आगमन और फिर स्थापित हो जाने की कहानी भी खासी दिलचस्प है। सम्भवतः 1955 में किसी काम के सिलसिले में दयाशंकर शर्मा दिल्ली से इंदौर आए। उन्हें यहां की कारोबारी गतिविधि, यहां के लोग इतने पसंद आए कि दिल्ली में मिठाई का अपना जमा-जमाया कारोबार छोड़कर इंदौर आ गए। 1956 में उन्होंने सराफा मेें मिठाई की दुकान शुरू की। उन्होंने फैनी, मक्खन बड़ा, सोहन हलवा, कराची हलवा जैसी नई मिठाइयों को पेश कर इंदौरियों की जबान पर अपनी जगह बनाई। बाद में उनके बेटे अशोक और विनोद शर्मा ने कंचन बाग मेंं शर्मा स्वीट्स के साथ होटल संतूर का संचालन कर उस परम्परा को आगे बढ़ाया।
राजस्थान के सीकर से 75 साल पहले हरिनारायण अग्रवाल इंदौर आए और मिठाइयों की मंडी सराफा में कारोबार शुरू किया। पहले वे भी पारम्परिक मिठाइयां ही बनाते थे, लेकिन समय के साथ इस संस्थान ने भी बदलाव किए और नतीजे सामने हैं। वह अग्रवाल स्वीट्स ही है जिसने इंदौर को सोहन पपड़ी खाना सिखाया। करीब 45 वर्ष पहले जब छप्पन दुकान में अपनी एक शाखा शुरू की तभी सोहन पपड़ी भी बनाना शुरू किया। इसी के साथ उन्होंने बेसन चक्की को भी पुनर्स्थापित किया तो मक्खन बड़े के स्वाद का जादू जगाया। इनकी इन दोनों ही मिठाइयों का आज कोई जोड़ नहीं। राज कपूर के परिवार में अभी-भी अग्रवाल स्वीट्स के मक्खन बड़े पसंद किए जाते हैं। साथ ही उनकी मिठाइयों का स्वाद डॉ.शंकरदयाल शर्मा, रामदास पाध्ये, पूनम ढिल्लो, बेला शेंडे, सुषमा स्वराज, सलील भट्ट, मप्र के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान, अनेक पूर्व मुख्य मंत्री सहित अनगिनत हस्तियां चख चुकी हैं।
जे एम बी यानी जैन मिठाई भंडार ने भी इस शहर को मिठाई, रसोई, और चाट-पकौड़ी के एक विशिष्ट स्वाद से परिचित कराया। बड़नगर से करीब 85 साल पहले बापूलाल जैन इंदौर आए और मोरसली गली में पहले पूड़ी-सब्जी और बाद में मूंग का हलवा भी बनाना शुरू किया। संयुक्त परिवार होने से उन्होंने अलग-अलग इलाकों में अपने संस्थान का विस्तार किया। यही वजह है कि आज शहर में बॉम्बे हास्पिटल चौराहा, छप्पन दुकान, आनंद बाजार, तिलक नगर, कलेक्टोरेट क्षेत्र में इसकी शाखाएं हैं। इसी समूह की एक शाखा उत्तम भोग के संचालक विकास जैन ने बताया कि इंदौर में मिठाई-नमकीन के उम्दा कारोबार की प्रमुख वजह यहां की हवा-पानी, खान-पान के शौकीन लोग और खर्च करने की क्षमता है। उन्होंने कहा कि इसी कारण से खान-पान के जितने भी संस्थान खुलते हैं, उन्हें जनता का प्रतिसाद मिलता है।
अपना स्वीट्स ने भी 40 बरस के अल्प समय में शहर के स्वादू लोगों के दिल-दिमाग पर जो जादू चलाया, वह अद्भुत है। 1986 में महेंद्र राठौर ने बमुश्किल 25 वर्ष की उम्र में बियाबानी जैसे कम व्यापारिक गतिविधि वाले क्षेत्र में अपना स्वीट्स की शुरुआत की। चूंकि तब तक मिठाई के क्षेत्र में काफी विस्तार हो चुका था, इसलिए उन्होंने पूरा ध्यान स्वाद, शुद्धता पर केंद्रित किया ताकि भीड़ में अपना मुकाम बना सकें। जब वे इसमें सफल रहे तब उन्होंने शुरुआत की उस सिलसिले की जो आज भी बदस्तूर है। वह है एक से बढ़कर एक वैरायटी की, नित नए प्रयोग की। अपना स्वीट्स ने ड्राय फ्रूट्स की मिठाई, मेंगो कलाकंद, काजू की मिठाई, काली उड़द के एनर्जी लड्डू से इंदौरियों को परिचित कराया। आज वे करीब सवा सौ प्रकार की मिठाइयां बनाते हैं।
उनकी मिठाइयों के विशिष्ट स्वाद की एक बड़ी वजह यह है कि कई बरसों से उन्होंने करीब सौ गाय-भैंसें पाल रखी हैं, जिनका दूध वे मिठाई बनाने में लेते हैं। निश्चय ही उन्हें बाहर से भी दूध-मावा खरीदना पड़ता है। ऐसा ही कुछ मामला मधुरम स्वीट्स का है। वर्तमान पीढ़ी के मुखिया श्याम शर्मा और गोपाल शर्मा के नाना जगन्नाथ शर्मा 70 के दशक में राजस्थान के ब्यावर से इंदौर आए। शुरुआत की उन्होंने रसोई बनाने से। जब एक रसोइये के तौर पर शहर में उन्होंने अपना डंका बजा दिया तब 1983 में छप्पन दुकान में श्याम और गोपाल शर्मा ने मधुरम स्वीट्स की नींव रखी। उन्होंने अपने परिश्रम से शहर के स्वाद रसिकों के बीच अपनी मधुर, मीठी छवि बना ली है। मिठाइयों की तरह मीठे इन दोनों भाइयों में से कोई भी एक यदि दुकान पर है और कोई ग्राहक आ गया है तो यकीन जानिए वह खाली हाथ तो नहीं जाएगा। इस संस्थान ने भी कम समय में लेकिन बेहद तेजी के साथ अपनी साख, स्वाद तथा प्रामाणिकता का लोहा मनवा लिया।
शहर की मिठाइयों की बात हो और सराफे के जलेबी भंडार का जिक्र न हो तो सारी दास्तान ही अधूरी रह जाएगी। वाह..क्या तो स्वाद है..और क्या साइज है..चासनी से तर और अंगूठे की मोटाई जितनी सौ ग्राम की एक जलेबी बनाने का श्रेय इन्हें ही जाता है। करीब 75 साल से लजीज जलेबी से ललचा रहे छगनलाल गुप्ता के उत्तराधिकारी भी उसी स्वाद और अहसास को बरकरार रखे हुए हैं जिसके लिए यह संस्थान जाना जाता है। उनकी दुकान सुबह 7 बजे से रात 11 बजे तक खुली रहती है, जिसमें जलेबी के अलावा पूड़ी-सब्जी और चासनी वाली बड़ी बूंदी भी उपलब्ध रहती है। पहले जलेबी केवल सुबह 7 से 11 बजे तक ही मिलती थी, किंतु कुछ समय से जनता की मांग पर अब पूरे समय इसे बनाया जाता है। इतनी मोटी, बड़ी और कडक़ जलेबी इन्हीं की देन है। जलेबी तो फिर भी कई लोग इसी तरह की बनाने की कोशिश कर लेते हैं लेकिन इनकी तरह रस भरी बूंदी कोई नहीं बना पाया।
शहर के अलग-अलग हिस्सों में बीते कुछ वर्षों में मिठाई के अनेक संस्थान खुले और उन्होंने भी अपना विशिष्ट स्वाद और ग्राहक वर्ग तैयार किया है। मथुरावाला, गणगौर स्वीट्स, आरती स्वीट्स आदि ऐसे नाम हैं जो शहर में अपनी पहचान रखते हैं। यह निश्चित ही इस शहर की तासीर है कि वह कम-अस-कम स्वाद को आत्मसात कर लेता है। फिर वह मीठा हो, नमकीन या चटपटा।
तो आइये अब बात करते हैं शहर के नमकीन कारोबार की। इस बारे में तो इंदौर दां कोई जवाब नहीं। वैसे आपको बता दें कि इंदौर से पहले नमकीन के मामले में रतलाम का डंका बजता था। इसीलिए जब इंदौर में भी नमकीन का काम शुरू हुआ तो सेव का नाम रतलामी सेव ही रखा गया। वर्तमान में रतलाम में तो सेव, नमकीन का वो स्वाद और कारोबार नहीं बचा, लेकिन इंदौर ने अभी-भी रतलामी सेव को जिंदा रखा है। रतलाम के गेलड़ा परिवार ने इंदौर आकर लोगों को रतलामी सेव का स्वाद चखाया। 65 वर्ष पहले इस परिवार के रतनलाल इंदौर आए और खोमचे पर सेव बेचना शुरू किया। उसके बाद धान गली में छोटे स्तर पर रतलामी सेव बेचना शुरू किया। यह उसके स्वाद का ही कमाल था कि थोड़े ही समय में उनकी पहचान कायम हो गई। आज पीपली बाजार सहित इंदौर में अनेक जगह आप रतन सेव भंडार नाम से जो दुकानें देख रहे हैं वह गेलड़ा परिवार की मेहनत का नतीजा है, जो 1977 में प्रारम्भ की गई। रतलामी सेव में जो स्वाद लौंग का रहता है वह रतन सेव की विशेषता है।
इंदौर में यदि रतलामी सेव को रतन सेव ने पहचान दी तो प्रकाश नमकीन ने इंदौरियों को तो नमकीन का दीवाना बनाया ही, देश भर में और सात समंदर पार भी इसके स्वाद का डंका बजाया। यह पहला ऐसा संस्थान है जिसने इंदौर के नमकीन को जग प्रसिद्ध किया। म.प्र. के राजगढ़ जिले के छोटे-से गांव छापीहेड़ा में ठेले पर सेव, पपड़ी बेचने वाले हीरालाल गुप्ता अपने पुत्र विट्ठलदास के साथ 1932 में इंदौर आए थे। यहां भी उनका यह काम जारी रहा। यहां से उन्होंने मेलों में भी जाना शुरू कर दिया, जिससे जल्द ही उन्होंने चार पैसे जमा कर 1940 में मल्हारगंज में एक दुकान किराए से ले ली। उसके बाद इस परिवार की कहानी मेहनत से लगातार मिलती गई सफलता का बयान करती है।
नमकीन के क्षेत्र में अपना नमकीन ने भी काफी नाम कमाया। वैसे वे 2004 में नमकीन क्षेत्र में दाखिल हुए, लेकिन जल्द ही इस पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली। इस समय वे करीब डेढ़ सौ किस्म की नमकीन बना रहे हैं। प्रकाश राठौर के अनुसार उन्होंने नमकीन के क्षेत्र में धनिया, पुदीना, चने की दाल, ड्राय फ्रूट्स, साबूदाना, पोहा और कॉर्न का प्रयोग कर अनेक नई किस्में दी। अल्प समय में ही अपना स्वीट्स परिवार ने ओल्ड पलासिया, सपना-संगीता रोड और विजयनगर क्षेत्र में भी मिठाई-नमकीन की दुकान के साथ ही रेस्त्रां भी शुरू किए। इसके अलावा धार रोड पर एक होटल तथा मैरिज गार्डन तथा माचल में रिसॉर्ट, मैरेज गार्डन, रेस्त्रां भी बनाया। इंदौरी स्वाद के परचम फहराने पर अपना समूह के महेंद्र राठौर की बेहद सटीक टिप्पणी है। वे कहते हैं कि, इंदौर का पानी, यहां की आबोहवा के साथ-साथ हर नमकीन-मिठाई कारोबारी का अपना फार्मूला और खास तौर पर नमकीन के मसाले खुद ही तैयार करना भी उनके विशिष्ट स्वाद को कायम करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
इस तरह हम देखें कि इस शहर ने नमकीन और मिठाई के कारोबार में जो नाम कमाया, उसके पीछे जो प्रमुख बातें रही हैं, वे हैं- इंदौरियों का स्वादू होना, यहां की आबोहवा के कारण अच्छी भूख लगना, जल्द ही खाया हुआ पच जाना, शुद्धता और प्रामाणिकता के साथ इन चीजों का बनाया जाना, यहां के पानी में ऐसे तत्व मौजूद होना जो किसी भी खाद्य पदार्थ को विशेष स्वाद से भरपूर बना देते हैं। इसी के साथ इंदौर और मालवा की जो मेहमाननवाजी की संस्कृति है, उसके कारण जो भाव, जो नीयत आतिथ्य की रहती है, वह भी निश्चित तौर पर स्वाद को बेजोड़ बनाने मेें मददगार है।
इंदौर का जिक्र कहीं भी आता है तो यकीनन पहले उल्लेख नमकीन का होता है। यह इस शहर का प्रमुख कारोबार है। इसे कुटीर से लेकर तो बड़े कारखाने तक से संचालित किया जा रहा है। इंदौर की तासीर है कि जिस तरफ नजर घुमाओ, उस तरफ नमकीन की दुकान नजर आ जाती है और जहां तक नजर जाती है, वहां तक ये दिख जाती हैं। जिस मालवा की पहचान कभी ‘डग-डग रोटी, पग-पग नीर’ हुआ करता था, वह अब नमकीन से पहचाना जाता है। इंदौर के साथ रतलाम और उज्जैन भी नमकीन के लिये प्रतिष्ठा प्राप्त हैं।
इंदौर में पिछले 25 साल में नमकीन कारोबार कुछ दुकानों से निकलकर कुटीर और भारी उद्योग की शक्ल ले चुका है। यहां संगठित क्षेत्र में करीब सौ इकाइयां कार्यरत हैं। इनमें से कुछ संचालकों की करीब 50 खुदरा दुकानेें भी हैं। एक अनुमान के मुताबिक संगठित क्षेत्र में रोजाना सौ टन(एक लाख किलो) नमकीन बनता है। इसमें से प्रतिदिन करीब 25 टन माल की खपत इंदौर में होती है, शेष देश भर के बाजार में पहुंचता है। इंदौरी नमकीन औसतन डेढ़ सौ रुपये किलो होता है।
जनवरी 2023 मेें इंदौर में हुए प्रवासी भारतीय दिवस में दुनिया भर से जुटे करीब 5 हजार लोगों को सम्बोधित करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इंदौर के नमकीन, पोहा, जलेबी का जिक्र किया था।
इस बारे में मप्र नमकीन मिठाई एसोसिएशन के सचिव अनुराग बोथरा ने बताया कि इंदौर में नमकीन कारोबार से करीब एक लाख परिवार जुड़ेे हैं। ये सिर्फ नमकीन व्यापारी नहीं, बल्कि कारीगर, मजदूर, सेल्समैन, मार्केटिंग स्टाफ, लोडिंग, परिवहन, फुटकर विक्रेता, ग्रामीण खेरची दुकानदार, दाल, बेसन, तेल, मसाले वाले, पैकिंग इंडस्ट्री वाले, चक्की वाले जैसी लम्बी श्रृखंला है। ये ऐसे लोग हैं, जिनका सारा दारोमदार नमकीन-मिठाई कारोबार पर है।
इंदौर को जिस तरह से नमकीन के लिये याद किया जाता है, उसी तरह से वह पोहा के लिये भी विख्यात है। एक अनुमान के अनुसार इंदौर में प्रतिदिन करीब 20 हजार किलो पोहा खाया जाता है यानी 20 टन। इसमें घरों में बनने वाले पोहा के साथ ही ठेलों, रेस्त्रां में बिकने वाले पोहा तक शामिल हैं। इसकी गुणवत्ता और स्वाद इतना लाजवाब है कि हर दुकान के लोग मुरीद हैं। कहीं यह बारीक सेंव के साथ, कहीं तीखी बूंदी के साथ तो कहीं उसल और दही के साथ दिया जाता है, जो प्याज, नींबू के साथ से और भी स्वादिष्ट हो उठता है। इंदौर में आज भी ऐसे अनगिनत परिवार हैं, जिनके यहां रोजाना नाश्ते में पोहा तो बनते ही हैं। यदि कभी कुछ दूसरा नाश्ता बन भी गया तो पुरानी पीढ़ी के लोग किसी दुकान से अपने लिये तो पोहा ले ही आते हैं।