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इंदौर की रंगमंच परम्परा

इंदौर की रंगमंच परम्परा

by हिंदी विवेक
in मई - इंदौर विशेषांक २०२३, मनोरंजन, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
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किसी भी स्थान विशेष के लोगों की मानसिक प्रगति को नापने का सबसे बढ़िया साधन है, वहां की नाट्य परम्परा के सोपानों को देखना। यदि वहां पर नाटकों का मंचन अन्य साहित्यिक कृतियों की भांति ही हो रहा है तो वह स्थान चहुंओर प्रगति कर रहा है। इंदौर की वृहद् नाट्य परम्परा इस बात की द्योतक है।

मध्यप्रदेश के मालवा प्रांत का यह शहर पुणे या मिनी मुंबई ही कहा जाता है। मल्हारराव होलकर एवं पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होलकर के प्रदीर्घ शासन की वजह से इंदौर में मराठी परम्परा का प्रभाव रहा। इसीलिये मराठी अस्मिता के साथ जुड़ी नाट्यपरम्परा भी इसका अभिन्न अंग बन गई। इंदौर केवल व्यावसायिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से अत्यंत सक्रिय एवं समृद्ध शहर था, और है।

इंदौर की नाट्यपरम्परा गर्व एवं खोज का विषय हो सकता है। प्रारम्भ में यहां गिनी-चुनी मराठी नाट्यसंस्थाएं थी। कृष्णराव और नारायणराव गीद की ‘समस्त मित्र मंडल’ संस्था के लोग अपना अपना व्यवसाय सम्भालते हुए इंदौर के नंदलालपुरा थिएटर में मराठी नाटक करते थे। राजाराम गोरे ने ‘न्यू जॉली क्लब’ संस्था के माध्यम से ऐतिहासिक नाटकों की बेहतरीन प्रस्तुतियां करना शुरू किया। उसके पश्चात महत्वाकांक्षी बालोद्धार मंडल की स्थापना हुई। इन्हें साथ देनेवाले दत्तुभैया गोडबोले, अरुण डिके आदि काबिल कलाकारों ने दर्शकोंकी आकांक्षाएं बढ़ाई।

‘प्रतियोगिता’ नाट्य संस्थाओं का प्यारा शौक

भले ही नाट्य प्रतियोगिता ना हो, लेकिन दूसरी संस्था से बेहतरीन प्रस्तुति देकर दर्शकों से पहला नम्बर पाने की होड़ बरकरार रहती थी। इस अघोषित स्पर्धा की वजह से इंदौर के दर्शकों को बेहतरीन नाटकों की दावत मिलती थी।

इसके पश्चात ‘छत्रपती नाट्यमंडल’ के झंडे तले वसंत रेगे, पोटे सर, आदि कलाकारों ने रंगमंच पर प्रवेश किया और दर्जेदार नाटकों की सूची में और इजाफा किया।

उस वक्त महिलाओं के रंगमंच पर आने का रिवाज नहीं था, इंदौर में भी। अत: पुरुष कलाकार ही स्त्रियों की भूमिकाएं करते थे। अपना कामकाज सम्भालते हुए नाटक करने वाले इन कलाकारों का मानधन केवल दर्शकों की शाबाशी और प्रशंसा रहती थी। वह ही ज्यादा से ज्यादा पाने की हर कलाकार की कोशिश रहती थी।

इस नाट्य परम्परा में घोषित नाट्यस्पर्धा का श्री गणेश 1954 में ‘महाराष्ट्र साहित्य सभा’ ने किया। जिसमें ‘छत्रपती नाट्यमंडल’ के ‘पैशाचा चिखल(पैसे का कीचड़)’ को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

इससे उत्साहित होकर उत्कर्ष नाट्यमंडल, अहिल्या नाट्यमंडल और नाट्यविलास जैसी संस्थाएं सामाजिक नाटकों की एक से एक प्रभावी प्रस्तुतियां लेकर इंदौर के नाट्य पटल पर उदयमान हुई।

1955 में महत्वाकांक्षी बालोद्धार मंडल – नाट्यभारती इस नये नाम और पुरानी प्रतिष्ठा में और अधिक सक्रिय हो गयी। बाबा डिके के ‘कारकून’ नाटक में पहली बार स्त्री की भूमिका एक स्त्री ने ही की, जिनका नाम था – माई लाड। नाट्यभारती ने इस के बाद महाराष्ट्र राज्य नाट्यस्पर्धा में कारकून, लोह परीसा लागेना, रायकरवाडी आदि नाटकों में पुरस्कार प्राप्त कर इंदौर का नाम रोशन किया। वर्तमान में भी नाट्यभारती की धुरा राम जोग बहुत कुशलता से सम्भाल रहे हैं। अनेक स्पर्धाओं में संस्था, स्वयं और साथी कलाकारों को पुरस्कारों से सम्मानित करती रही है।

1968 में राजन देशमुख ने इस नाट्य यज्ञ में प्रथम बार शिरकत की और ‘दैवे लाभला चिंतामणी’ नाटक के माध्यम से महाराष्ट्र राज्य नाट्यस्पर्धा में पुरस्कार प्राप्त किया। उसके बाद महाराष्ट्र राज्य नाट्यस्पर्धा में सैनिक नावाचा माणूस, मा अस साबरिन, नाटककाराच्या शोधांत सहा पात्रे आदि नाटकों के पुरस्कार पाकर अपनी उपस्थिति दर्ज की। आज भी राजन देशमुख की अविरत नाट्यसंस्था रंगमंच पर अपनी दर्जेदार प्रस्तुतियों के लिए पहचानी जाती है।

इंदौर की इस नाट्यपरम्परा की मशाल जलाये रखने के लिये आज भी दस से अधिक दल सक्रिय हैं। पथिक, सार्थक, अष्टरंग, वेल एन वेल, प्रयास जैसी संस्थाओं के कलाकार इंदौर की ख्याति देश के अन्य शहरों में फैला रहे हैं।

किसी भी कला को जीवंत रखने के लिए किये जाने वाले प्रयास बचपन से ही होने चाहिये। इसी के मद्देनजर इंदौर में बाल नाट्य का प्रारम्भ राजन देशमुख ने 1970 से किया। 50 से अधिक बच्चों को लेकर किए उनके नाटकों के कलाकार आज विभिन्न स्थानों पर अपनी प्रतिभा का परिचय दे रहे है। आज सार्थक, अहिल्या नाट्यमंडल और प्रयास जैसी संस्थाएं बाल नाट्य शिविर के माध्यम से नई पौध तैयार कर रही हैं।

उपरोक्त संस्थाएं जहां भविष्य के कलाकार गढ़ने में कार्यरत हैं, उसी वक्त कुछ ऐसी भी संस्थाएं हैं जो इन कलाकारों को मंच उपलब्ध कराने का महती कार्य कर रही हैं। इंदौर की सानंद न्यास संस्था विगत 26 वर्षों से हर माह एक व्यावसायिक मराठी नाटक का मंचन कर रही है। उनकी इस अनूठी पहल का स्वागत इंदौर के नाट्य रसिकों ने इस हद तक किया कि सानंद न्यास को एक या दो नहीं, बल्कि पांच ग्रुप बनाने पड़े। आज किसी भी व्यावसायिक नाटक के इंदौर में शनिवार को दो एवं रविवार को तीन प्रयोग होते हैं। उनकी इस सफल कार्य प्रणाली का मैंनेजमेंट कॉलेजों में अध्ययन हो रहा है। इन व्यावसायिक नाटकों के अलावा इंदौर के कलाकारों को तवज्जो देने के लिये मराठी नाट्यस्पर्धा का आयोजन कर यह संस्था इंदौर की नाट्यपरम्परा के जुलूस में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कर रही है।

इसी पहल के अनुरूप मुक्त संवाद नाम की संस्था भी विगत 7 वर्षों से बाल नाट्य महोत्सव के अंतर्गत बाल नाट्य मंचन का जिम्मा सम्भाल रही है। शुरुआत में केवल मराठी बाल नाट्य से प्रारम्भ करने वाली यह संस्था अब मराठी और हिंदी बाल नाट्य की बढ़ती संख्या के कारण तीन दिन का महा बाल महोत्सव करती है। मराठी नाटकों के साथ-साथ इंदौर में हिंदी और बंगाली नाटकों की भी एक परम्परा है।

इंदौर में हिंदी रंगमंच की शुरुआत प्रचारात्मक हिंदी नाटकों से हुई। हिंदी रंगमंच के आरम्भिक परिदृश्य में इन नाटकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसमें रमेश मेहता का ‘हमारा गांव’, रुद्रदत्त मिश्र का ‘नवप्रभात’ और बाबा डिके का ‘खाई और मंगू’ जैसे नाटक प्रमुख रहे। ये नाटक भारत सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का जनता के बीच प्रसार-प्रचार के लिए किए जाते थे। और जाहिर है कि ये नाटक ज्यादातर हिंदी इलाकों में ही किए जाते थे। इसीलिए 1955 में इंदौर में नाट्य भारती इन नाटकों को मंचित करती थी। लेकिन बहुत जल्द ही नाट्यभारती और इसके रंगकर्मियों को यह अहसास हो गया था इंदौर के दर्शकों को ये प्रचारात्मक नाटक दिखा कर रंगमंच के संस्कार नहीं दिए जा सकते। लिहाजा राजनीतिक-सामाजिक नाटकों के बारे में सोचा गया। यही कारण है कि 1957 में ही इंदौर में लिटिल थिएटर की स्थापना की गई।

लिटिल थिएटर के तहत तीन हिंदी और तीन मराठी नाटकों का मंचन शुरू किया गया। उस समय मराठी के प्रतिभाशाली लेखक पु. ल. देशपांडे के लिखे नाटक ‘तुझे आहे तुझ पाशी’ नाटक की धूम थी। इसका हिंदीरूपांतर किया गया और इसे ‘कस्तूरी मृग’ के नाम से मंचित किया जाने लगा। उस समय शरद जोशी और इरफाना सिद्दीकी का प्रेम चर्चा में था। इस नाटक में इरफाना ने मुख्य भूमिका निभाई थी। यह उल्लेखनीय है कि उस समय इंदौर की कुछ अभिनेत्रियों ने अपने संवेदनशील अभिनय से पहचान बना ली थी। इसमें इरफाना सिद्दीकी के साथ ही सुमन धर्माधिकारी, डॉ. वसुंधरा कालेवार, रणजीत अहलूवालिया (जो रणजीत सतीश के नाम से जानी गई) और कुंजबाला सहगल जैसी अभिनेत्रियों ने इंदौर में हिंदी रंगमंच को समृद्ध किया। 1968 से आज तक राजन देशमुख ने मराठी नाटकों के हिंदी अनुवाद दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर उनका ध्यान आकृष्ट किया है। इन में आराधना, कुर्बानी, येस वी आर गिल्टी, बचाओ चाचा आदि शामिल हैं।

सतिश मेहता की ‘प्रयोग’ संस्था द्वारा किये हुए कई बेहतरीन नाटक इंदौर के नाट्यप्रेमियों के जहन में आज भी हैं। जैसे दुलारीबाई, एक था गधा, इत्यादि।

वर्तमान परिप्रेक्ष्यमें मराठी के साथ साथ 5-6 हिंदी नाट्यसंस्थाएं भी  इंदौर में न केवल सक्रिय हैं, बल्कि काफी अच्छी प्रस्तुतियां दे रही हैं। जिनमें अनवरत, प्रयास 3 डी, रंगमंच आर्ट ऑफ ड्रामा, रंगरुपिया, अदा, आदि संस्थाएं अन्य शहरों में इंदौर और प्रदेश का नाम रोशन कर रही हैं। हिंदी नाटकों के लिये सूत्रधार जैसी संस्था कलाकारों को मंच उपलब्ध कराकर हिंदी नाट्य परम्परा को गति देने के लिये प्रतिबद्ध है।

विगत कई दशकोंसे आमरा सबाई (हम सब) एवं बंगाली क्लब बंगाली नाटकों की बेहतरीन प्रस्तुतियां कर रहे हैं और इंदौर में बंगाली नाट्य परम्परा को जीवंत रखने की जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं।

मालवा प्रांत की बोली भाषा है- मालवी। इंदौर में मालवी साहित्यिकों में लेखक और कवियों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। वैसे ही मालवी नाटकों का भी अपना एक स्थान है। इंदौर आकाशवाणी पर आनेवाले मालवी लघु नाटकों का श्रोताओं को बेसब्री से इंतजार रहता है। आज भी मनोहर दुबे, संतोष जोशी आदि कलाकार मालवी नाटकों के मंचन में सक्रिय हैं।

मराठी, हिंदी, बंगाली और मालवी नाटकों की इस शृंखला में विगत कई वर्षों से सिंधी नाटकों ने भी इंदौर में अपनी प्रतिभा का परिचय देना प्रारम्भ कर दिया है। सिंधी नाटकों के इन कलाकारों ने इंदौर की नाट्यपरम्परा में अपने योगदान का आगाज कर दिया है।

कलाएं संवेदनशीलता को निखारती हैं। इसी विशेषता के कारण वे मनुष्य को पड़ाव-दर-पड़ाव आगे ले जाती हैं। इंदौर में रंगमंच का अपना इतिहास है इसलिए हर मुकाम पर खड़े बंदे मिल जाएंगे। युवा जो आज रंगमंच की पहली पायदान चढने के लिए बेताब हैं।

इंदौर की नाट्यपरम्परा की ध्वजा को सतत फहराने की तैयारी में आज भी यह शहर जागरूक है। रंगमंच में नए-नए प्रयोग करने के लिए तैयार खड़ा है। दर्शक यदि मानते हैं कि नाटक का उद्देश्य केवल मनोरंजन है तो वे उसकी ताकत को कम आंक रहे हैं। इस असरकारी साधन का बेहतर उपयोग मन को अस्वस्थ करने वाली बातों को व्यवस्थित करने में है। उलझती शहरी जीवन-शैलियों और दखलअंदाजियों का जो अप्रिय परिणाम अखबार के पन्नों पर दिखाई देता है, उसका वैकल्पिक हल हो सकता है नाटक। कैसे? यह सोच नाटक से सरोकार रखने वालों के मन में लगातार उठते रहना चहिए। यही नाटक की परम्परा को आगे बढ़ाने में सहायक होगा और यही इंदौर की नाट्यपरम्परा का सुखद भविष्य होगा। शहर में फैलने के लिए जगह कम है, ऊपर आसमान में अभी भी काफी गुंजाइश है। इंदौर की नाट्यपरम्परा की मौजूदा इमारत पर एक और मंजिल चढ़ाने की कोशिश इंदौर के कलाकारों को करना ही चाहिये।

– राजन देशमुख 

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