पुरुषों की तरह न हो महिलाओं का उपचार

एक धारणा बन गई है कि बिकिनी क्षेत्र के अलावा महिलाओं की बाकी बीमारियां पुरुषों की भांति ही होती हैं, जबकि उन बीमारियों के कारण दोनों में अलग-अलग होते हैं। इसलिए उनके इलाज की प्रक्रिया भी भिन्न होनी चाहिए।

महिलाओं के मन जीवन से जुड़ी परिस्थितियां पुरुषों से भिन्न होती हैं। आज भी समाज के एक बड़े वर्ग में उनका खान-पान और रहन-सहन भी घर के पुरुष सदस्यों से बहुत अलग है। दूर-दराज के गांवों-कस्बों से लेकर महानगरों तक, बहुत से परिवारों में स्त्रियों के लिए उचित पोषण और परवाह की स्थितियां पूरी तरह नदारद हैं। पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों से जुड़ी आपाधापी और मनोवैज्ञानिक उलझनें भी पुरुषों से कहीं ज्यादा महिलाओं के ही हिस्से आती हैं। रिश्तों-नातों की निबाह से जुड़ा कहा-अनकहा दबाव भी उनकी मनःस्थिति पर दुष्प्रभाव डाले बिना नहीं रहता। हालातों और जज्बातों का यह मेल आधी आबादी के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित करता है। नतीजतन, सेहत से जुड़ी व्याधियां भी पुरुषों से अलग ही होती हैं। ऐसे में महिलाओं को घेरने वाली बीमारियों के कारण अलग हैं तो इलाज भी अलग ढंग से ही होना चाहिए। बावजूद इसके आधी आबादी से जुड़ी चिकित्सकीय प्रक्रिया का यह जरूरी पक्ष वैचारिक और व्यावहारिक रूप से उपेक्षित ही रहा है।

दरअसल, स्त्रियों की स्वास्थ्य समस्याओं को बिलकुल अलग दृष्टिकोण के देखे-समझे जाने की दरकार है। महिलाओं के तन-मन को घेरने वाली व्याधियों को समझने और इलाज करने की प्रक्रिया पुरुषों के समान नहीं हो सकती। बावजूद इसके बिकिनी एरिया की बीमारियों को छोड़कर बाकी बीमारियों का इलाज पुरुषों के समान ही किया जाता है। स्त्रियों की व्याधियों को समझने और इलाज करने से जुड़ा चिकित्सकीय नजरिया पुरुष रोगियों के इलाज से भिन्न नहीं होता। महिलाओं का इलाज करते हुए उनकी पृष्ठभूमि को अलग से समझने का प्रयास ही नहीं किया जाता। जबकि बुनियादी रूप से उनकी शारीरिक-मानसिक ही नहीं पारिवारिक-सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को सही ढंग से समझे बिना कोई इलाज कारगर नहीं हो सकता है। बावजूद इसके जो हालात बीमारियां पैदा करते हैं, उन्हें समझे बिना महिलाओं का इलाज करने के लिए भी पुरुषों के समान ही रवैया अपनाया जाता है। इस बर्ताव को चिकित्सकीय मोर्चे पर ही नहीं सहज सलाह और मार्गदर्शन के मोर्चे पर भी सही नहीं कहा जा सकता। हर आयु वर्ग की महिलाओं में बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं को देखते हुए अब यह जरूरी हो चला है कि आधी आबादी की व्याधियों की चिकित्सा प्रक्रिया को भी नए नजरिए से देखा जाए।

हालिया बरसों में हमारे यहां कैंसर, मधुमेह, हाइपरटेंशन, हृदय रोग जैसी बीमारियों के रोगी तेजी से बढ़े हैं। इतना ही नहीं भावनात्मक टूटन और मानसिक विकारों के शिकार लोगों के आंकड़े में भी बढ़ोत्तरी हुई है। हालांकि महिला-पुरुष दोनों ही बीमारियों की जद आ रहे हैं पर लैंगिक मोर्चे पर इन व्याधियों को विस्तार वाले कारण अलग-अलग हैं। महिलाओं में कैंसर के ज्यादातर मामले स्तन, सर्वाइकल, ओवेरियन और गर्भाशय से जुड़े हैं। वहीं पुरुषों में अधिकतर फेफड़ों और मुंह का कैंसर देखने को मिलता है। दि ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी के मुताबिक पूरे देश में महिलाओं में स्तन कैंसर के मामले सबसे ज्यादा हैं। जिसके पीछे देर से शादियां होना, गर्भ धारण में देरी, स्तनपान कम करवाना, बढ़ता तनाव, बदलती जीवनशैली और मोटापा अहम वजहें हैं। समझना मुश्किल नहीं कि स्त्रियों में हो रही इस जानलेवा व्याधि के पीछे बहुत से सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं तो पुरुषों में बढ़ रहे मामलों के पीछे बहुत अधिक धूम्रपान और तम्बाकू का सेवन जैसी आदतें अहम वजहें बन रही हैं। ऐसे में चिकित्सकीय मोर्चे पर आधी आबादी की बीमारियों के इलाज के लिए दवा ही नहीं समाज की सोच में बदलाव और सम्बंधों में सामंजस्य और आपसी सहयोग की भी दरकार है। यह बात कैंसर ही नहीं दूसरी शारीरिक व्याधियों के मामले में भी लागू होती हैं। चिकित्सा प्रक्रिया के शुरुआती पड़ाव पर ही ऐसे पहलुओं को समझना आवश्यक है। इस सरोकारी समझ से मिली सही दिशा ही उचित इलाज की राह सुझा सकती है।

विचारणीय है कि शारीरिक ही नहीं मानसिक विकारों के मोर्चे पर भी महिलाओं की परेशानियों को गहराई से समझे बिना हल नहीं किया जा सकता। अधिकतर मामलों में मन की टूटन और बिखराव के कारण महिलाओं और पुरुषों के लिए बिलकुल भिन्न होते हैं। कई बार तो मनोवैज्ञानिक संकट की स्थितियां महिलाओं और पुरुषों के लिए एकदम विपरीत होती हैं। कहीं यौन और शारीरिक दुर्व्यवहार महिलाओं को मानसिक विकारों की ओर धकेल देता है तो कहीं अपनों के उपेक्षापूर्ण व्यवहार-विचार से उपजी अनदेखी उनके मनोबल को कमजोर करती है। गौरतलब है कि भारत में लगभग दो-तिहाई शादीशुदा महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्डस ब्यूरो के अनुसार साल 2019 में सर्वाधिक खुदकुशी करने वालों में दिहाड़ी मजदूरों के बाद गृहिणियों के आंकड़े ही रहे हैं। आज भी घर सम्भालने वाली महिलाओं के श्रमशील व्यक्तित्व की आपाधापी को समझने की सोच नदारद है। बाल विवाह, लैंगिक समानता और असुरक्षा के हालात आज भी कायम हैं। कम उम्र में शादी कई तरह के शोषण और दुर्व्यवहार का आसान शिकार बना देती है। जिससे शारीरिक और मानसिक समस्याएं जड़ें जमाने लगती हैं। देश में हुए अध्ययन बताते हैं कि अवसाद और चिंता जुड़ी व्याधियां जेंडर से मजबूती से जुड़ी हैं। भारतीय महिलाओं में मनोरोग के पीछे यौन जबरदस्ती और अंतरंग हिंसा भी बड़ी वजह हैं।

ध्यातव्य है कि किसी परिस्थिति में प्रतिक्रिया देने की बात हो या भावनाओं को अभिव्यक्त करने का मामला। रिश्तों की सम्भाल-देखभाल का जज्बा हो या अपनी प्राथमिकताएं तय करने की सोच; कमोबेश हर तरह की परिस्थिति में महिलाएं पुरुषों से बिलकुल अलग बर्ताव करती हैं। आमतौर पर स्त्रियों का दृष्टिकोण संवेदनासिक्त और भावुक होता है। पुरुषों से इतर सामाजिक कंडीशनिंग भी उनके व्यवहार को प्रभावित करती है। यही वजह है कि उनकी जरूरतें, जज्बात और जद्दोजहद पुरुषों से अलग रही हैं और आज भी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पुरुषों में न्यूरोसाइकिएट्रिक विकारों से होने वाली अक्षमता का आंकड़ा 29.3 फीसदी और महिलाओं में 41.9 प्रतिशत है। इतना ही नहीं पुरुषों की तुलना में महिलाओं में चिंता, बेचैनी और अवसाद जैसे विकारों का आजीवन जोखिम 2-3 गुना अधिक होता है। साथ ही प्रजनन चक्र से सम्बंधित हार्मोनल बदलाव केवल जेंडर आधारित परेशानियां ही नहीं बल्कि शारीरिक और मानसिक व्याधियां भी पैदा करते हैं। मोटापा और मानसिक व्यग्रता बदलते हार्मोंस से गहराई से जुड़े हैं। मोटापे के चलते महिलाओं में टाइप 2 डायबिटीज के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं मासिक धर्म और पोस्टपार्टम डिप्रेशन भी स्त्रियों की मानसिक स्थिति को प्रभावित करता है।

ऐसे में बीमारियों के पीछे के कारणों को सही ढंग से समझने और इलाज करने के लिए चिकित्सकों को इस बात पर भी गौर करना होगा कि रोगी महिला है या पुरुष। वर्षों पहले अमेरिकी डॉक्टर नानेते कास वेंगर द्वारा चर्चा में लाए गए बिकिनी मेडिसिन शब्द को अब गहराई से समझने की दरकार है। निजी अंगों के अलावा शरीर के दूसरे भागों से जुड़ी व्याधियों का इलाज भी लिंग आधारित होना चाहिए। ताकि स्त्रियों के इलाज में कोताही ना हो। साथ ही सामाजिक-पारिवारिक सोच में भी बदलाव की दरकार है। महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे की सोच भी सही समय पर  उचित परामर्श और इलाज मिलने में बाधा बनती है।

डॉ. मोनिका शर्मा 

 

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