जब उत्तरापथ म्लेच्छ आक्रमणों के दौर में संक्रमण काल से गुजर रहा था गुरु नानक ने एक ऐसे समाज-धर्म की नींव रखी, जो संत सिपाही गुरु गोविंद सिंह से होते हुए आज भी मानव मात्र के प्रति समान भाव रखते हुए राष्ट्र-धर्म-समाज की रक्षा को अपने जीवन का आधार मानती है।
भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक गुरुओं को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यहां तक कि हमारी वैदिक संस्कृति के कई मंत्रों में ‘गुरुर्परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नम:’ अर्थात गुरु को साक्षात परमात्मा परमब्रह्म का दर्जा दिया गया है। आध्यात्मिक गुरु न केवल हमारे जीवन की जटिलताओं को दूर करके जीवन की राह सुगम बनाते हैं, बल्कि हमारी बुराइयों को नष्ट करके हमें सही अर्थों में इंसान भी बनाते हैं। सामाजिक भेदभाव को मिटाकर समाज में समरसता का पाठ पढ़ाने के साथ समाज को एकता के सूत्र में बांधने वाले गुरु के कृतित्व से हर किसी का उद्धार होता आया है। एक ऐसे ही धर्मगुरु हुए गुरु नानक देव जिन्होंने मूर्ति पूजा को त्यागकर निर्गुण भक्ति का पक्ष लेकर आडम्बर व प्रपंच का घोर विरोध किया। इनका जीवन पारलौकिक सुख-समृद्धि के लिए श्रम, शक्ति एवं मनोयोग के सम्यक नियोजन की प्रेरणा देता है।
गुरु नानक देव के व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्म सुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु के समस्त गुण मिलते हैं। गुरु नानक ने लिखा है, गुरुमुख की खोज में घरबार छोड़ा और परमात्मा से मिलने की इच्छा ने ही मुझे यह बाना धारण करने के लिए प्रवृत्त किया।
गुरमुखि खोजत भए उदासी।
दरसन कै ताई भेख निवासी॥
सुण सुआमी सच नानक प्रणवै अपणे मन समझाए।
गुरमुख सबदे सच लिव लागै कर नदरी मेल मिलाए।
सतगुरु कै जनमे गवन मिटाइआ॥
अनहत राते इह मन लाइबा॥
मनसा आसा सबद जलाई।
गुरमुख जोत निरंतर पाई॥
गुरु नानक का विचार है कि जिस शब्द से मन को वश में किया जा सकता है वह शब्द मंत्र है और उस मंत्र के भीतर देखो तो शब्द का अपना आकार है और शब्द के आकार में वह जोत है जिसे एकाग्र मन ही धारण कर सकता है। यह शब्द सतगुरु का संकेत है जिसे पूर्णयोगी और परमात्मा का आध्यात्मिक मुमुक्षु ही प्राप्त कर सकता है।
वे भारत की संत परम्परा के ज्योति स्तम्भ हैं। गुरु नानक सिख धर्म के संस्थापक होते हुए भी सर्वधर्म समभाव के अग्रदूत थे। उन्होंने उस दौर में भारत एवं आसपास के क्षेत्रों को इतना अधिक प्रभावित किया कि बहुत सारे पश्चिमी विद्वान उनकी पहचान को लेकर असमंजस में पड़ गए। ‘ट्रम’ ने नानक को हिंदू, ‘फैडरिक’ एवं ‘पिनकॉट’ ने इस्लामी एवं ‘मेकालिफ’ ने अपने लेख में सिख बतलाया है। सिख धर्म के तो वे संस्थापक थे ही। विचारणीय है कि उनके धर्म और दर्शन का हिन्दू, इस्लाम एवं अन्य धर्मों एवं साधना पद्धतियों से क्या सम्बंध है? इस सम्बंध में जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि गुरु नानक ने एक ओर हिंदू, इस्लाम एवं अन्य धर्मों एवं साधना पद्धतियों की श्रेष्ठ बातों को स्वीकार किया वहीं दूसरी ओर उक्त धर्मों में उनके समय में व्याप्त अंध विश्वासों एवं गतिरोधी रूढ़ियों तथा बाह्याडम्बरों पर पूरी ताकत से चोट की।
उन्होंने जिस ‘अध्यात्म सत्य’ का स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया, उसे उनके शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है।
1ओंकारसतिनामु करतापुरुखु निरभउ निरवैरु।
अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥ (जपुजी)
उन्होंने अवतार के सगुण सिद्धांत की बजाय भगवान की निराकारता और उनके सार्वभौमिक अस्तित्व पर जोर दिया गया, जैसा कि तेरहवीं शताब्दी के वैष्णव कवि-संत नामदेव द्वारा प्रतिपादित किया गया था।
‘मैं एक राज्य या मुक्ति के लिए नहीं बल्कि केवल भगवान के चरण कमलों के लिए लालसा करता हूं’, पवित्र श्री गुरु ग्रंथ साहिब का एक बयान इसे और अधिक प्रकट करता है।
सिख एनसाइक्लोपीडिया सिख धर्म की अंतर्निहित विशेषताओं पर व्यापक प्रकाश डालने की कोशिश करता है जो भक्ति पंथ के समान प्रतीत होती हैं और दोनों के बीच कई प्रमुख अंतर भी हैं। भक्ति पंथ के लिए, भक्ति सब कुछ है और सब कुछ खत्म कर देती है। सिख धर्म के लिए दो अन्य महत्वपूर्ण छोर नैतिक जीवन और आध्यात्मिक मुक्ति हैं। सिख धर्म में नैतिक गुणों की खेती भक्ति के लिए आवश्यक पूर्व शर्त है। नैतिकता के बिना भक्ति व्यावहारिक नहीं है, श्री गुरु ग्रंथ साहिब उसी पर जोर देकर कहते हैं।
गुरु नानक ने अपने समकालीन समाज को क्रांतिकारी दिशा प्रदान की जिस पर चलकर सिख धर्म का विशिष्ट रूप विकसित हुआ। उनसे पूर्व समाज से पलायन किए हुए योगियों और संन्यासियों का बोलबाला था। बौद्ध धर्म का प्रभुत्व खत्म होते-होते संन्यासियों ने दूर जंगलों और पहाड़ों में शरण ले ली थी। यह संन्यासियों की श्रेणी हिंदू एवं मुस्लिम धर्मों के मतभेदों से अपने आप को बचाना चाहती थी। चौदहवीं एवं पंद्रहवीं शताब्दी तक इन संन्यासियों के अनुनायियों का घेरा बड़ा होता जा रहा था। गुरु नानक ने इस पलायनवादी वृत्ति का पुरजोर खंडन किया और शिक्षा दी कि व्यक्ति को दुनिया की जिम्मेदारियों से पलायन नहीं करना चाहिए।
गुरु नानक ने प्रवृत्ति मार्ग यानी गृहस्थ अपना कर भी साधना करने वाली प्रणाली को निवृत्ति मार्ग या वन की ओर प्रस्थान करके तप करने की पद्धति से श्रेष्ठ माना। आदर्श पुरुष गृहस्थ को अपना कर भी इससे निर्लिप्त रहते हैं।
जल माटिकल निरातमु भुरगाई नैसाणे।
सुरति सबद भवसागरतरीऐ नानक नाम बखाणे॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पृ. 939)
अर्थात्, मायिक प्रपंचों में रहकर भी मोक्ष प्राप्ति हो सकती है।
सचि सिमरिऐ होवे परगासु।
ताते बिखिआ महि रहे उदासु।
सतिगुरु की ऐसी वडिआई।
पुतरू कलज विचे गति पाई॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पृ. 661)
व्यक्ति मोक्ष इसी जीवन में प्राप्त कर सकता है। गुरु नानक देव द्वारा प्रतिपादित मोक्ष का राह सद्मार्ग, शुभ कर्मों और सदाचार पर आधारित है। इसी दुनिया की जिम्मेदारियां उठाते हुए प्रभु के मार्ग पर चलना ही मोक्ष का मार्ग है। उनके अनुसार कर्मकांडों कट्टरता और संकीर्णता का मार्ग त्याग कर, आचार और विचार कर समन्वय करना चाहिए। गुरु नानक के आध्यात्मिक दर्शन ने नवीन समाज की संरचना की जो भेदभाव रहित था। मानव के जीवन में प्रेम, शांति और संतुलन स्थापित करने हेतु नवीन दृष्टि प्रदान की। सरल शब्दों में कहें तो वे जगत गुरु और अमन स्थापित करने वाले थे।
उनके उपदेश द्वारा वर्षों से दबे लोगों में आत्म गौरव और नवीन चेतना का संचार हुआ। समाज और धर्म में व्याप्त बुराइयों का समूल विनाश करने के लिए नानक देव ने धर्मयुद्ध शुरू किया। समाज में व्याप्त बुराइयों जैसे कट्टरता, पाखंड, अंधविश्वास इत्यादि से जन-साधारण को मुक्त किया। अपने अनुयायियों को परमात्मा से जोड़ कर सांसारिक तृष्णा, बैर और भय के बंधन से मुक्ति कर दिया। करतारपुर में बसने के पश्चात् गुरुजी ने अपने द्वारा प्रचारित सिद्धांतों को व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन में ढालकर आदर्श एवं उत्कृष्ट समाज की नींव रखी, जो व्यक्तिगत और सामाजिक आचरण और आचार के तत्व एवं मूल्य कौम के लिए और संसार भर के लिए मार्गदर्शक का कार्य करता है।
सामाजिक असमानता के प्रति गुरु नानक का आक्रोश बड़ा तीव्र था और उनकी वाणी में वह बार-बार व्यक्त हुआ। उन्होंने सामाजिक असमानता पर कई तरह से प्रहार किया। जैसे कि सिंहासन पर बैठे राजा, अधिकारी, खुशामदी, झूठे धर्म वाले पाखंडी और स्वार्थी उपदेशकों तक का विरोध किया। लेकिन उनके विरोध में वैर का रूप कतई नहीं था। सर्वधर्म समभाव की चेतना जगाने में उनकी यात्राओं का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा। इकतीस वर्ष की अवस्था में उनकी पहली यात्रा में मरदाना उनके साथ थे। दूसरी यात्रा में सैदों और धेबी, तीसरी में नासू और सीहा साथ गए। उनकी ये यात्राएं सामाजिक चेतना जाग्रत करने का एक अभूतपूर्व इतिहास रचती दिखायी देती हैं।
वे जहां-जहां गए वहां-वहां जनसाधारण के मन में चेतना की लौ जलाते गए। बनारस में उन्होंने कहा कि, “जे रब्ब मिलदा गंगा नातेआं ते मिलदा डडुआं मछीयां।” कैलाश मानसरोवर, चीन, मक्का-मदीना, दमिश्क-यरुशलम एवं बगदाद जैसे स्थानों पर गुरु नानक की वाणी ने जादू जैसा असर किया। उस जादू में रचित आख्यान आज भी जनसमाज में प्रचलित हैं। वहां उन्होंने बगदाद के बहील शाह को सिख धर्म की शिक्षा दी। उसके बाद पाकपत्तन, देयालपुर, कगापुर से जब वे अमीनाबाद पहुंचे तो बाबर के कुकृत्यों की कड़ी आलोचना की। उनके निकट कोई बड़ा नहीं और कोई छोटा भी नहीं था। उनकी वाणियों को पढ़ने पर उनके अत्यंत निरीह, निरहंकार और समर्पित चित्त मीठे व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। वर्ण-व्यवस्था में जकड़े उस समाज के समक्ष वे अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं कि, मालिक मेरे! मैं तुझसे यही मांगता हूं कि जो लोग नीच से भी नीच जाति के समझे जाते है, मैं उनका साथी बनूं।
नीचा अन्दरि नीच जाति नीची हू अति नीचु।
नानकु तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस।
इसीलिए गुरु नानक देव का विलक्षण समन्वयवादी दर्शन मनुष्य के बाहरी आडम्बरों से हटकर एक उत्कृष्ट समाज की रचना करने की प्रेरणा देता है। अलग-अलग धर्मों और सम्प्रदायों को प्रेमपूर्वक जीवन जीने को प्रेरणा देकर, उन्हें बंधुत्व के अमिट बंधन में बांध कर जीवन जीने की ओर आकृष्ट करता है। उनके गूढ़ दर्शन का प्रभाव आज भी कायम है और लोगों को आदर्श जीवन जिसकी नींव भाईचारे, आदर्शवाद, सच्चाई, सेवा, सहनशीलता, सद्भावना और बलिदान पर आधारित है, की ओर प्रेरित कर रहा है।