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सिख चरित्र बनाम राजनीति

सिख चरित्र बनाम राजनीति

by हिंदी विवेक
in ट्रेंडींग, राष्ट्र- धर्म रक्षक विशेषांक -जुलाई-२०२३, विशेष, सामाजिक
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गुरु नानक देव महाराज ने इस ‘निर्मल पंथ’ को कर्मकांड और तीर्थयात्रा से दूर रखा। मुगलों, अफगानों और अंग्रेजों से लोहा लेने वाली कौम को हमेशा अपनों ने ही छला। स्वतंत्रता के पश्चात् कांग्रेसनीत सरकार ने उसे हाशिये पर डाल दिया और अपने नेता भी उन्हें अब तक छलते रहे हैं।

लगभग 550 साल पहले, सतगुरु नानक देव के प्राकट्य के साथ, भारत में तीसरा सबसे बड़ा धर्म और दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा धर्म अस्तित्व में आया। इस ‘निर्मल पंथ’ में न तो कोई कर्म कांड है और न तीर्थ यात्रा। सभी एक अकाल के पुजारी हैं, गुरबानी ज्ञान के प्रकाश से हृदय को शुद्ध करके ध्यान, सत्य, संतोष और सेवा के द्वारा प्रभु तक पहुंचने के राहगीर थे। यह आदर, सम्मान, निर्भय जीवन और मानवता के साथ प्रेम का मार्ग है, जिसमें ‘सभु को मीतु हम आपन कीना हम सभना के साजन’ के आदर्श के साथ सभी से मित्रता करना होता है। ‘सुरबीर बचन के बली’ संत और सिपाही की परिभाषा को परिभाषित करता है। यह गुरु नानक साहिब ही थे जिन्होंने बाबर को जबर और उसकी सेना को ‘पाप की जंज’ कहकर जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई थी। श्री गुरु अर्जुन देव ने मुगल सरकार के ‘चमत्कार दिखाओ वरना मुसलमान बनो’ के आदेश को नकारते हुए शहादत स्वीकार की। फिर साहिबजादा बाबा फतेह सिंह जी तक गुरु परिवार की शहादतों की लम्बी फेहरिस्त है। श्री गुरु हरगोबिंद साहिब और श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब को गरीबों की रक्षा की खातिर 21 लड़ाईयां लड़नी पड़ीं, लेकिन जीत के बाद भी उन्होंने एक इंच जमीन पर कब्जा नहीं किया। बेशक बाबा बंदा सिंह बहादुर ने 1710 ई. में सरहिंद पर विजय प्राप्त करने के बाद खालसा राज्य की स्थापना की, हालांकि यह अधिक समय तक नहीं चला, लेकिन इसने भविष्य में सिख राज्य का मार्ग प्रशस्त किया।

18वीं शताब्दी में सिख मिसल सरदारों ने मुगल साम्राज्य, नादिर शाह और अहमद शाह से लड़ते हुए उत्तरी भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया, जहां महाराजा रणजीत सिंह और उनके परिवार ने करीब 50 साल तक राज किया। इन विजयों के पीछे खालसा की वीरता और उच्च चरित्र था, जिसमें महिलाओं का सम्मान करना, किसी निहत्थे व्यक्ति पर आक्रमण न करना, चोरी न करना और चोर का सहयोग न करना जैसे सिद्धांत शामिल थे।

अंग्रेजों ने कपट और छल से बालक महाराजा दलीप सिंह से पंजाब का राज्य छीन लिया। सतलुज नदी के पार के सरदार राजकुमार पहले ही अंग्रेजों का समर्थक बन चुके थे। ‘राजी बहुत रेहदे मुसलमान हिन्दू कदे नही सी तीसरी जात आई’ के राज्य में साम्प्रदायिक विभाजन पैदा करने के लिए अंग्रेज ने साजिश की। जिसके कारण महारानी जींद कौर के पक्ष में और महाराजा दलीप सिंह के ईसाई धर्म अपनाने के विरोध में किसी ने पर्याप्त आवाज नहीं उठाई, समर्थन क्या करना था।

श्री दरबार साहिब के पास में से बुंगा सरदारों को तोड़ा गया। श्री हरमंदिर साहिब के द्वार को गेट घंटा घर बना दिया गया। राज कुमारी बमबा 1957 तक लाहौर में रहीं, जो उनका सम्मान किस ने करना था, किसी ने सिख राज्य की बहाली की मांग भी नहीं की, जिसे धोखे से छीन लिया गया था।

निस्संदेह, अंग्रेजों ने सिख चरित्र और सिद्धांतों को पूरी तरह से नष्ट करने का प्रयास किया। पूरी दुनिया में बड़ी संख्या में सिख सैनिक लड़े और मरे, अंग्रेजों के लिए तोप का चारा बन गए। मुगल, नादिर शाह, अब्दाली और मन्नू सिक्खों को मारकर तथा धार्मिक स्थलों को तोड़कर इस कौम को नष्ट करने के निरंतर प्रयत्नों के बावजूद सफल नहीं हुए, किंतु अंग्रेजों ने राजगद्दी को गिराने की बजाय सिख सिद्धांतों को ध्वंस करने की नीति से इसके महान दर्शन एव शक्ति को बिखेर दिया।

सिख समुदाय की त्रासदी यह थी कि सभी लोग एक साथ नहीं बैठते थे, अंग्रेजों ने उन्हें बांट दिया। महाराजा दलीप सिंह और बाबा महाराज सिंह की तरह कोई उठा भी तो अकेला रह गया। आजादी के समय कांग्रेस ने खालसा राज की राजधानी सहित अधिकांश ऐतिहासिक गुरुधामों को पाकिस्तान को सौंप दिया था। पाकिस्तान में शेष सिखों की या तो हत्या कर दी गई या धर्मांतरण के लिए मजबूर किया गया। पाकिस्तान का पंजाब सिख मुक्त हुआ, आज जो थोड़े से सिख बच गए हैं वे कबायली इलाकों में रहते हैं।

सिख नेताओं के भारत के साथ रहने के निर्णय का सिख कौम के भविष्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। शुरुआती दशकों में सिख समुदाय को केंद्र सरकार से बुरे अनुभव हुए। लेकिन गैर-कांग्रेसी सरकारों के अस्तित्व में आने के साथ ही स्थिति में बड़ा बदलाव आया। आज हर क्षेत्र में सिखों को आगे बढ़ने और सरकारी कुर्सी का लुत्फ उठाने का मौका मिल रहा है। देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेनाध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, खेल टीमों के कप्तान भी सिख बन गए हैं। पंजाब, जहां सिख बड़ी संख्या में रहते हैं, 1956 से कुछ समय को छोड़कर केवल सिख ही मुख्यमंत्री और मंत्री बनते रहे हैं।

आजादी से पहले और बाद में सिख समुदाय ने पुर अमन आंदोलनों के जरिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी सहित कई मोर्चों पर जीत हासिल की है। लेकिन 1980 के दशक के बाद से सिखों के वेश में कई पुराने नक्सलवादी कुछ निहत्थे मासूम बच्चों, महिलाओं और मासूम लोगों को मारने के लिए रास्ता बना चुके हैं। एक गुरु का सिख न तो भागता है और न ही निहत्थे पर हमला करता है, यदि विचार को मार कर मारा जा सकता है, तो गुरुओं के असाधारण बलिदान के बाद एक भी सिख नहीं बचता। मास्टर तारा सिंह जी के बाद, सिख राजनीतिक नेताओं की नाकाबिलियत के कारण सिख न राजनीतिक न धार्मिक तौर पर आगे बढ़ पाए। आबादी के मामले में सिख भारत में तीसरे से चौथे स्थान पर आ गए हैं। आज सिख समुदाय पूरी दुनिया में फैल चुका है। सिखों में दर्शन और इतिहास की समृद्धि के साथ दूर तक जाने की क्षमता है।

यदि आपका बच्चा किसी और के घर चला जाता है, तो पड़ोसी से लड़ने के बजाय अपने बच्चे को समझाना सही नीति है। लेकिन यहां तो सिखों ने ही सिखों को मार डाला और पंजाब और अन्य राज्यों में हजारों घरों की रोशनी बुझा दी।

1985 ई. में ईद के दुम्बे की तरह सिखों का कत्लेआम किया गया। कई पूर्व अधिकारी इस से चुनाव जीतने की सरकारी साजिश का पर्दाफाश करते हैं। लेकिन क्या किसी ने उनके साथ सम्पर्क किया और सच्चा इतिहास कलमबंद करके कौम को दिया? तथाकथित धर्मयुद्ध में सिख समुदाय के नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है?

सन् 1984 ई. में ऑपरेशन ब्लु स्टार के विरुद्ध सेना को छोड़ने वाले धर्मी सैनिकों को अब तक मुआवजा क्यों नहीं दिया गया? उन्हें 1985 के बाद पंथवादी सरकारों ने क्या सहयोग दिया? या नौकरी दी? क्या वह टास्क फोर्स का सदस्य बनने के लिए पहले से ही काफी अच्छा नहीं था?

क्या पिछले 45 वर्षों में पंजाब के अंदर और बाहर हुई हत्याओं के बारे में एक कमेटी नहीं होनी चाहिए थी, जो इसके कारण और परिणामों की जांच करने के बाद भविष्य की नीति का निर्धारण करे?

मरजीवाडे को धर्मयुद्ध के मोर्चे पर खड़ा करने का फैसला राजनीतिक था, इसलिए राजीव-लोंगोवाल समझौते के रद्द होने के बाद भी कुर्सी मिलने तक मुद्दा बना रहा। माफ करो, प्यार करो और आगे बढ़ने की बात नहीं की गई। नीति केवल मुद्दों और समस्याओं को जीवित रखने के लिए ही अस्तित्व में है।

1984 ई. का सिख नरसंहार भारत के लगभग 9 राज्यों में हुआ था, किस राष्ट्रीय नेता ने इसे न्याय दिलाने का प्रयास किया? पंजाब के बाहर हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश समेत तमाम राज्यों में 50 लाख से ज्यादा सिख रहते हैं, जो बड़े जमींदार और कारोबारी हैं। पंजाब में अशांति पैदा करने और बाहर रहने वाले सिखों के जीवन को असुरक्षित बनाने के लिए सिख रूप में दिखाई देने वाले लोगों का देखा जाना क्या राष्ट्रीय हित है?

‘वारिस पंजाब दे’ की पृष्ठभूमि क्या है? इसे सिख कौम को देने का अंतिम लक्ष्य क्या है? इस समस्या या अभियान को सिख कौम के गले में डालने से पहले किस नेता ने राय दी थी? क्या यह 2घघ (कश्मीर, खालिस्तान), खडख (पाकिस्तान) की भारत को चोट पहुंचाने और खून बहाने की योजना नहीं है? किसी देश के खिलाफ सशस्त्र युद्ध कोई दूसरा देश ही लड़ सकता है। क्या हथियारों की बात करने वाले उस देश का नाम बताएंगे? श्री गुरु ग्रंथ साहिब की आड़ में थाने पर कब्जा करने का विरोध क्यों नहीं हुआ? खालिस्तान शब्द भी विदेश भेजने के नाम पर पैसे कमाने का जरिया बनता जा रहा है. मुट्ठी भर लोग देश-विदेश में सिख समुदाय की छवि खराब करते नजर आ रहे हैं।

गुरमत के अनुसार नशा वर्जित है, लेकिन सिख धर्म को इसके खिलाफ लामबंद होना पड़ेगा और पंजाब के नशा व्यवसायियों को राजनीतिक और धार्मिक संरक्षणवाद के बजाय सामाजिक बहिष्कार करना होगा, जो हम करते थे।

निर्मल पंथ को धार्मिक रूप से कर्मकांड बना दिया। बिना वेतन पाठ करने की परम्परा कब से समाप्त हो गई। कथा कीर्तन और अरदास रोजगार और कमाई के साधन बन गए हैं। सिख नेताओं की सारी कोशिशें शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर कब्जा करने और कौम के पैसे को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में निवेश करने के बजाय संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने तक सीमित हैं। दूसरों की बेटियों और बहनों के सम्मान के रक्षक प्रेम, सेवा और शौर्य की ये मूर्तियां बार-बार के धोखे और टूटे वादों के कारण दोस्तों और दुश्मनों को पहचानने में असमर्थ लगती हैं। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के 1136वें अध्याय पर पंचम पातशाह ने कहा ‘न हम हिंदू न मुसलमान।’ अंकित (समझ में नहीं आया।)ने 400 साल पहले ही अपने अलग अस्तित्व के बारे में दर्ज कर लिया है, फिर किससे प्रमाण पत्र लेने की जरूरत है? लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि जाहर पीर जगत गुरु बाबा सभी का साझा है। उन्हें किसी सांसारिक बंधन में नहीं बांधा जा सकता। नफरत की खेती बंद होनी चाहिए। 2019 में सिख कौम की चुनी हुई संस्था शिरोमणि कमेटी, जिसे वह ‘मसीहा’ कहकर सम्मान देती है, के प्रति लोगों में नफरत क्यों बोई जा रही है? हर समस्या का समाधान सम्पर्क और संवाद से निकाला जा सकता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि 18वीं और 19वीं सदी के सिख अपने आप में देश का नाम रोशन करते रहे हैं, लेकिन 70 के दशक के बाद 20वीं सदी के नेता सिख कौम को भावनात्मक रूप से भड़काकर राजनीति के लिए धार्मिक स्थलों का इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं। आज भी दीर्घदृष्टि और दूरदर्शिता से विहीन वे लोग नेता के रूप में जनता के सामने प्रकट होते हैं, जिनके हृदय में अपने ही देश, राष्ट्र, अपने प्रदेश और अपनी सरकारों के प्रति घृणा भरी हुई है। सिख कौम एक वीर कौम है, जिसने न केवल मुगलों से बल्कि अब्दाली और अंग्रेजों से भी आजादी दिलाने में अग्रणी भूमिका निभाई और सेवा और बलिदान से देश ही नहीं विदेशों में भी सम्मान प्राप्त कर रही है। ये वीर और प्रेम करने वाले वीर तो केवल मान और प्रेम ही मांगते हैं, पर बहुत-से धोखों के कारण शीघ्र ही निराश और क्रोधित हो जाते हैं और क्रोध के कारण सत्य और असत्य की परीक्षा में पीछे पड़ जाते हैं। जिसके बारे में विद्वानों को चर्चा करते रहना चाहिए और अपने मूल स्वरूप वाली इस भूमि को शांति, सुरक्षा और प्रगति के साथ एक शांतिपूर्ण राज्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।

   इकबाल सिंह लालपुरा 

 

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