पंजाब में अध्यात्म-शौर्य का संगम – स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद को गुरु नानक देव के विचारों एवं गुरु गोविंद सिंह की राष्ट्र भावना ने काफी प्रभावित किया था। वे चाहते थे कि युवावर्ग इनसे सीख लेकर अपने अंदर आत्म सम्मान का भाव पैदा करे।

भारत की आध्यात्मिक ऊर्जा और वैज्ञानिक चेतना से विश्व को अवगत करवाने वाले स्वामी विवेकानंद आधुनिक समय के सबसे प्रमुख लोक संचारक संन्यासी रहे हैं। स्वामी जी का सभी भारतीय पंथों और विचारधाराओं पर गहन अध्ययन रहा। उनके भाषणों, पत्रों एवं साहित्य में भारतीय दर्शन की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। स्वामी जी के जीवन पर सिख गुरुओं के उपदेशों और कृतित्व का गहरा प्रभाव रहा है।

पंजाब के लिए स्वामी विवेकानंद ने कहा कि, ‘यह वह भूमि है, जिसे पवित्र आर्यावर्त में सबसे पवित्र माना जाता है। यह वह धरती है जिसने दुनिया को रोशनी दिखाई है। जिसने अपनी शक्तिशाली नदियों की तरह आध्यात्मिक आकांक्षाओं को पैदा किया। यह वह भूमि है, जिसने सबसे पहले भारत में सभी अंतर्विरोधों और आक्रमणों का खामियाजा भुगता। इस वीर भूमि को सबसे पहले बाहरी बर्बर लोगों का मुकाबला करना पड़ा। यह वह भूमि है, जो इतने कष्ट सहने के बाद भी अपनी महिमा और ताकत को नहीं खो पाई।’

स्वामी विकेकानंद पंजाब के कण में आध्यात्मिकता देखते थे। वे कहते थे कि पंजाब की मुटियारें जब चरखा चलाती हैं तो उसमें से सोहम्-सोहम् की आवाज आती है। वे कहते थे कि पंजाब आध्यात्मिकता के साथ-साथ शौर्य की धरती रही है और यही कारण है कि यहां के लोग हर विदेशी आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब दे सके।

श्री गुरु नानक देव के बारे में स्वामी विवेकानंद ने लिखा है कि गुरु नानक का जन्म भारत की पवित्र भूमि पर हुआ था। उन्होंने पूरी दुनिया को प्यार और शांति का संदेश दिया और अपनी शिक्षाओं के माध्यम से इसका प्रचार किया। वह सभी के लिए स्नेह से भरे हुए थे और उनकी बाहें हमेशा इस तरह फैली हुई थीं मानो पूरे विश्व को गले लगा रही हों। वे सभी के सामान्य गुरु थे। वे समस्त मानव जाति के गुरु थे।

स्वामी विवेकानंद खालसा की स्थापना से भी बहुत प्रभावित थे। स्वामी जी जब भी किसी को पत्र लिखते थे तो उन पर अक्सर गुरु गोबिंद सिंह जी के जयकारे ‘वाहेगुरु जी का खालसा वाहेगुरु जी की फतेह’ को शीर्ष स्थान देते थे।

स्वामी विवेकानंद का पंजाब के प्रति प्रेम उनकी वहां यात्रा के दौरान भी देखने को मिला। पश्चिमी देशों की यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने पंजाब की यात्रा का निमंत्रण स्वीकार किया और 13 अगस्त 1897 को उन्होंने अम्बाला से इस प्रदेश में प्रवेश किया। अपनी इस यात्रा के दौरान वे अम्बाला, अमृतसर, धर्मशाला, रावलपिंडी, श्रीनगर, जम्मू,  सियालकोट और लाहौर आदि शहरों में गए थे। नवंबर 1897 में उन्होंने लाहौर में ‘भक्ति’ और ‘वेदांत’ पर तीन व्याख्यान दिए। लाहौर में दिए अपने पहले व्याख्यान में उन्होंने गहरी छाप छोड़ी।

एक व्याख्यान में उन्होंने श्री गुरु नानक देव को श्रद्धांजलि देते हुए कहा, ‘इसी धरती से नानक ने दुनिया के लिए अपने अद्भुत प्रेम का प्रचार किया। उन्होंने अपने विशाल हृदय से पूरे विश्व को गले लगाया।’ गुरु गोबिंद सिंह जी को उन्होंने सर्वश्रेष्ठ नायक बताया और उन्हें ‘शेर दिल वाले गुरु गोबिंद सिंह’ कह कर सम्बोधित किया था। उन्होंने देशवासियों को गुरु गोबिंद सिंह जी के उदाहरण का अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया, जिन्होंने धर्म की खातिर अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। 12 नवम्बर 1897 को उन्होंने लाहौर में तीसरा व्याख्यान दिया, जो ढाई घंटे तक चला। विवेकानंद ने अपनी पंजाब यात्रा के दौरान धर्म आधारित तीनों प्रमुख पांथिक विचारधारा सनातनी, आर्य समाजी और सिंह सभा मूवमेंट को एक करने का प्रयास भी किया।

विवेकानंद पर गहन अध्ययन करने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी सी. एस. तलवार बताते हैं कि सिख दर्शन में मेहनत से कमाए हुए धन का बहुत महत्व है और इस विचार से स्वामी जी गहरे प्रभावित थे। सिख धर्म की कार सेवा गुरुद्वारों में व्याप्त समानता का भाव भी देशवासियों को अपनाने का आह्वान करते रहे। तलवार बताते हैं कि श्री गुरु नानक देव द्वारा उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी में गाई गई आरती तो स्वामी विवेकानंद का पसंदीदा काव्य रहा है। वे अक्सर अपने शिष्यों के बीच इस आरती को सुनाते थे।

इस आरती का भाव है कि आकाश रूपी लौकिक प्लेट पर सूर्य और चांद दीपक हैं तथा तारे उनके आभूषण जड़ित मोती हैं। हवा में चंदन की सुगंध मंदिर की धूप है और पवन ही उसका पंखा है। यहां भगवान से प्रार्थना की गई है कि दुनिया के सभी पौधे आपकी वेदी पर अर्पित किए जाने वाले फूल हैं। भगवान को यहां भय का नाश करने वाला बताया गया है।

इसमें कहा गया है कि भगवान की हजारों आंखें हैं, फिर भी उनकी कोई आंख नहीं है। भगवान के हजारों रूप हैं, फिर भी उनके पास एक भी नहीं है। काव्य में गुरुनानक देव इसे भगवान का नाटक बताते हैं, जो उन्हें रोमांचित करता है। इसमें कहा है कि सभी के बीच जो प्रकाश है वह ईश्वर ही है। इस रोशनी से वह सभी के भीतर दीप्तिमान है। गुरु की शिक्षाओं के माध्यम से भी वही प्रकाश चमकता है।

स्वामी विवेकानंद अपने शिष्यों को बताते थे कि गुरु गोविंद सिंह ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए सर्ववंश बलिदान कर दिया, ऐसा अनूठा उदाहरण दुनिया में कहीं नहीं मिलता। वे कहते थे कि गुरु गोबिंद सिंह शौर्य के साथ-साथ क्षमाशीलता की भी मिसाल थे। उन्होंने जिनके लिए पूरे वंश का बलिदान कर दिया वे भी बाद में कृतघ्न निकले, लेकिन गुरु जी ने उनके प्रति भी कभी दुर्भावना नहीं रखी। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हर हिंदू को गुरु गोविंद सिंह जैसा होना चाहिए। वे अक्सर गुरु गोविंद जी के सर्वप्रिय जयघोष ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं, तब नाम गोबिंद सिंह कहाऊं’ को अक्सर गुनगुनाते थे।

स्वामी विवेकानंद ने प्रचलित शिक्षा को ‘निषेधात्मक शिक्षा’ की संज्ञा देते हुए कहा है कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, लेकिन वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ? खालसा धर्म भी समाज में शौर्य के जागरण का प्रतीक है। स्वामी जी कहते थे कि विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहां हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।

                                                                                                                                                                                                      दिनेश कुमार 

Leave a Reply