गुरुग्रंथ साहिब में सिख गुरुओं के अलावा देश के अन्य निर्गुण संतों की रचनाओं को भी स्थान प्राप्त है। इनमें महाराष्ट्र के महान निर्गुण संत नामदेव प्रमुख हैं। संत नामदेव और गुरु नानक देव के जीवन के कुछेक प्रसंगों में काफी साम्य भी मिलता है।
संत नामदेव के कार्य और विचारों से सिर्फ महाराष्ट्र नहीं अखंड भारत की भूमि गौरवांवित होती रहेगी। महाराष्ट्र का आराध्य दैवत पंढरपुर का ‘विट्ठल’ है और उनके प्रिय भक्तों में संत नामदेव का नाम अग्रणीय रहा क्योंकि संत नामदेव के समान सगुण भक्ति करनेवाला कोई अन्य संत तत्कालीन समय में नहीं था। उनकी वाणी अमृत के समान मधुर और प्रेममय थी। इसलिए संत नामदेव का स्थान पंढरपुर के ‘विट्ठल’ की सीढ़ियों पर माना जाता है। ऐसी मधुर वाणी के संत नामदेव को संत ज्ञानदेव उत्तर भारत की यात्रा के लिए साथ ले जाने की आकांक्षा व्यक्त करते हैं परंतु संत नामदेव विट्ठल की सगुण भक्ति करने में मग्न रहा करते थे। इसलिए वे जाना नहीं चाहते थे परंतु बाद में चले जाते हैं। संत ज्ञानदेव के साथ उत्तर भारत की यात्रा करके महाराष्ट्र में पुनः वापस आने के बाद उनसे विट्ठल की सगुण भक्ति हो नहीं रही थी, जिससे उनका अंतःकरण दुःखी रहता था। संत नामदेव ने महाराष्ट्र के पंढरपुर के सगुण रूप ‘विट्ठल’ का त्याग किया, और यात्रा से निर्गुण का रूप धर लिया था।
निर्गुणाचा संग धरिला जो आवड़ी।
तेणे केले देशधड़ी आपणासी॥
यह यात्रा संत नामदेव को निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप व्यापक बताती गयी।
अखंड भारत के सप्त सिंधु क्षेत्र पर मंगोल एवं तुर्क आदि आक्रमणकारियों के हमले दिनों दिन बढ़ रहे थे। उनका प्रमुख उद्देश्य था कि मंदिरों को लूटकर मूर्तियों को तोड़ दिया जाता था। इससे आम जनता के हृदय को गहरा आघात पहुंचता था क्योंकि पूज्यनीय देवताओं की मूर्तियां उनके सामने तोड़ दी जाती थी। जिससे एक ओर उनका आत्मविश्वास कमजोर किया जा रहा था। दूसरी ओर आम जनता में निराशा का वातावरण छा गया था। संत नामदेव ने धैर्यशील एवं साहसपूर्ण अमृतवाणी से वारकरी सम्प्रदाय की पताका को स्वाभिमान से सम्मानित रखा। अगर वे चाहते तो उन क्रूर शासकों की जी हुजूरी भी कर सकते थे, पर नहीं किया था। संत नामदेव ने उससे आगे जाकर कीर्तन-भजन से सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कार्य का श्रीगणेश किया था। ईश्वर के नामस्मरण से ‘सप्त सिंधु क्षेत्र’ पर जनता में पहली बार किसी महापुरुष ने एक आशा की किरण भर दी थी। उन्होंने तत्कालीन शासक के विरुद्ध कठोर कदम उठाया था, जिसके लिए संत नामदेव की जितनी सराहना की जाए कम ही है, क्योंकि उस समय शासक धन और सत्ता के के प्रति बहुत ज्यादा लालायित रहते थे। ऐसे में आम जनता के लिए धन का रक्षण करना बड़ा कठिन था। इस पर संत नामदेव ने उपदेश करते हुए कहा था कि, धन कोई भी लूटकर ले जा सकता है। उसका डर हमेशा बना रहेगा। इसलिए संत नामदेव ने ‘राम नाम’ का मंत्र दिया था, जो उनके धन रूपी मन की पूंजी था। जिसे कोई चुराना चाहेगा तो चुरा नहीं पाएगा और हर समय रक्षा करने का भय नहीं रहेगा।
रामनाम मेरे पूंजी धना। ता पूंजी मेरी लागों मना।
यहू पूंजी है अगम अपार। ऐसा कोई न साहूकार।
साहू की पूंजी आवै जाइ। कबहु आये मूल गंवाह।
जारी जरे न कोई पाइ। राजा डंडे न चोर लै जाइ॥
बाहरी आक्रमणकारियों ने ईश्वर के सगुण रूप पर आघात कर उसको महत्त्वहीन किया था, परंतु संत नामदेव अपने अंदर के ईश्वर को भजन-कीर्तन से जाग्रत करने का उद्देश्य यात्राओं के द्वारा करते थे। उस समय शासक वर्ग हिंदुओं को एक तरफ तलवार का डर दिखाकर हिंदुओं को मुस्लिम मत में मतांतरित करवा रहा था वहीं, दूसरी ओर जो लोग जजिया कर देते थे हिंदू ही बनकर रहा करते थे। ऐसे में आम जनता में विभेद की स्थिति निर्मित कर जातीयता को बढ़ावा दिया गया था। भक्ति-आंदोलन ने सबसे पहले उस पर प्रहार कर सामाजिक-व्यवस्था की जड़ें खोद डाली। संतों ने काव्य का स्वर ईश्वर केंद्रित रखकर मानव मुक्ति के मार्ग का अवलम्बन किया। भक्ति एक तरह से जनशक्ति का कार्य कर रही थी।
हरि नांव हीरा हरि हीरा। हरि नांव लेत मिटे सब पीरा।
हरि नांव जाती हरि नांव पांती। हरि नांव सकल जीवन क्रांति॥
संत नामदेव का काव्य सगुण-निर्गुण के एकरूप का संस्कार लेकर ‘सप्त सिंधु क्षेत्र’ में एकेश्वरवाद का वृक्ष लगाकर उसकी छाया से मक्का-मदीना में भी पल्लवित हुआ। पंजाबी साहित्य में निर्गुण ब्रह्म के लिए ‘राम’ शब्द का प्रयोग हुआ है। पंजाबी साहित्य का आरम्भ 1100 ई. से होता है, जिसे गुरुनानक देव पूर्व काल कहा जाता है। सिख धर्म और वारकरी सम्प्रदाय के ध्वज का ‘केसरी’ रंग दोनों में साम्यता दिखाता है। संत नामदेव के पंजाब प्रांत की यात्रा करने के पश्चात 200 वर्ष उपरांत सिख धर्म का उदय माना जाता है, जिससे दस गुरु परम्परा आती है। संत नामदेव की शिष्य मंडली पंजाबी प्रांत की रही है। ‘वारकरी सम्प्रदाय’ के विचारधारा का प्रभाव पंजाब के सर्वसामान्य पर रहा है। संत नामदेव ने नामस्मरण भक्ति पर अधिक जोर दिया था। बाद में गुरु नानक देव का ‘सतनाम’ ही निर्गुण ब्रह्म है। संत नामदेव ने विट्ठल को ब्रह्म मानकर सर्वस्व उसमें निहित माना, वहीं गुरु नानक देव ने ‘ओंकार’ में ‘ब्रह्म’ को स्थान दिया। संत नामदेव ने अपने काव्य में मानवीय चिंतन के विकास की बात कही है। उस विशेषता का दर्शन गुरु नानक देव के काव्य में होता है। ‘ईश्वर’ का नाम एक ‘ओंकार’ स्वरूप है। उन्हें हर किसी ने राम-कृष्ण, विट्ठल-विठ्या, पांडुरंग, माउली, अल्लाह, शिव-विष्णु आदि नामों से अभिहित किया है। संत नामदेव ने अपने भजन-कीर्तन और एकेश्वरवाद में विट्ठल को सर्वोच्च स्थान दिया है। उसको संत नामदेव ने मराठी भाषा में लिखा है-
आमुचा विट्ठल प्रचंड । इतरा देवांचे न पाहू तोंड । एका विट्ठलावाचून । न करू आणिक भजन॥ आम्हा एकविध भाव। कदा न म्हणू इतरा देव ॥ (सकल संत नामदेवगाथा, अभंग 368 पृ, 144)
वहीं, गुरुनानक देव ने एक ओंकार की बात कही है-
ओंकार सतिनाम करता पूरक। निरभऊ निरवैऊ। मूर्ति कलातीत। (सरल गुरू ग्रन्थ साहिब एवं सिख धर्म-जगजीत सिंह, पृ.130)
इसमें निर्विवाद रूप से भक्ति तथा जाति-निरपेक्षता व मानवता के उद्धार की व्याकुलता प्रकट होती है।
संत नामदेव ने पंजाब में रहने के साथ अपने विचार को अधिक महान बनाया था। उसके लिए जातिगत भेद-भाव को दूर कराकर लोगों से कीर्तन के द्वारा आत्मीयता से जुड़कर आपसी भक्तिप्रेम निर्मित किया। उसका प्रतिफल व्यक्ति से महान माननेवाला उनका विचार है। ऐसे विचार व्यक्तिपूजक व्यवस्था में शोषण को जन्म देते हैं। परंतु संतों के विचार मनुष्य के सर्वांगीण विकास को विकसित करते हैं। संत नामदेव ने 13वीं शताब्दी में भक्ति की खेती करते-करते वहीं अपना स्थान बना लिया था। जिसका प्रभाव पंजाबी समाज और साहित्य पर पड़ना स्वाभाविक था। जहां पर संत नामदेव के पंजाब प्रांत में स्मृति चिह्न हैं, वे आज भी प्रेरणा देने का कार्य करते हैं। संत नामदेव ने महान विचार को धर्मकार्य के लिए उच्च विचार की बैठक प्राप्त करवा दी। गुरु नानक देव तथा अन्य दस गुरुओं ने आदर भाव से भक्त नामदेव का गौरव किया है। सिखों के पांचवें गुरु रामदास ने संत नामदेव को ‘महाभागवत’ भक्त कहकर गौरवांवित किया। पंजाबी साहित्य में गुरु नानकदेव की वाणी में ‘गुरुमुख -मनमुख’ मेें गुरु मणि नामदेव के नए जीवन के स्वरूप को व्यक्त किया है। इसके पहले संत नामदेव के गुरु विसोबा खेचर ‘षटस्थल’ नामक ग्रंथ में साधक की वृत्ति और प्रगति के संदर्भ में ‘गुरुमुख और संत नामदेव के जीवन मनमुख नामक संज्ञा को विस्तार से स्पष्ट किया है। विसोबा खेचर लिखते है-
आम्हा मरण नाही, मरशील काई। आत्म वस्तू पाही श्रीगुरुमुखे। (डॉ,अशोक कामत, संत नामदेववन कार्य आणि मराठी हिन्दी काव्य, पृ, 183)
संत नामदेव ओढ्या नागनाथ के मंदिर में जाते हैं। जहां पर शिव की मूर्ति पर बूढ़ा-सा व्यक्ति पैर रखकर सो गया था। ऐसा दृश्य देखकर संत नामदेव का अंतःकरण दुःखी होता है कि सगुण ईश्वर की मूर्ति पर कोई बूढ़ा व्यक्ति पैर रखकर सो गया था। प्रतिकार करने पर उस बूढे व्यक्ति ने कहा कि, आप ही मेरा पैर उठाकर उस जगह पर रख दो जहां पर ईश्वर नहीं है। देव उस बूढ़े व्यक्ति का पैर जिधर हटाते हैं, उधर शिव की मूर्ति आ जाती है। गुरु नानक देव विदेश में हज की यात्रा पर जाने पर वृद्धावस्था होने के कारण काबा की ओर पैर रखकर सो जाते हैं। इस पर एक मौलवी साहब ने आपत्ति जताई थी। इस पर गुरु नानक देव ने कहा, जहां पर काबा घर नहीं है वहां मेरा पैर रख दीजिए। ऐसी स्थिति में जिधर पैर उठाकर रखते थे उनके पैर की ओर काबा आ जाता था। इस तरह से संत नामदेव और गुरु नानक देव के जीवन में घटित हूबहू प्रसंग साम्यता उजागर करता है।
डॉ . अप्पासाहेब जगदाले