‘इंडिया’ नाम देकर फंसा विपक्ष 

 

कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार कर चुके हैं कि 2024 के आम चुनाव में एक तरह से उनके लिए ‘करो या मरो’ वाली बात है। उन्हें पता है कि अगर नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में बीजेपी लगातार तीसरी बार सत्ता में आ गई तो उसके बाद उन सबके अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो सकता है। आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली बीजेपी से मुकाबले के लिए एक बार फिर से विपक्षी एकता की गंभीर पहल हो गई है। विपक्षी एकता की कोशिश को लेकर 23 जून को पटना में और 18 जुलाई को बंगलुरु में मिटिंग रखी गई थी।

बंगलुरु के मीटिंग में 26 विपक्षी दलों ने मिलकर अपने गठबंधन का नाम ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इंक्लूसिव अलायंस’(इंडिया) रखा है। देश के मोदी सुशासन से भयभीत और भ्रष्टाचारी नेता अपने गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रखते है, यह बात देश के मतदाताओं को रास नहीं आएगी। देश की जनता के मन में ‘इंडिया’ यानी भारत के संदर्भ में जो सद्भावना है वह सद्भावना यह विपक्षी नेता अपने करतूतों से भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं। देश की जनता इस बात को भलीभांति समझ रही है। इस कारण विपक्ष अपने ‘मोदी हटाओ, भ्रष्टाचारी बचाओ’ अभियान  में कामयाब होगा? इस बात की ओर देश की जनता अपने पुर्व अनुभवों के कारण उत्सुकता और व्यंग भाव से देख रही है।

कर्नाटक विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद से कांग्रेसएवं विपक्ष में उत्साह है और अब यह  अति उत्साह की ओर बढ़ रहा है। सवाल यह है कि यह उत्साह 2024 के लोकसभा चुनाव में भी काम आएंगे ? इस सिलसिले में जो पुराने अनुभव रहे हैं, उन्हें देखते हुए तो यही कहना ठीक होगा कि इस बारे में इतनी जल्दी किसी अनुमान तक पहुंचना जल्दबाजी होगी।

अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी से मुकाबले और विपक्षी एकता सुनिश्चित करने के लिए 23 जून को विरोधी पक्ष के नेताओं की बैठक हुई। लेकिन पटना बैठक से पहले ही आप ने दबाव बनाया कि पहला अजेंडा दिल्ली सरकार को अफसरों के तबादले और तैनाती का सुप्रीम कोर्ट से मिला अधिकार खत्म करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा लाया गया अध्यादेश के विरोध की कांग्रेस घोषणा नहीं करती तो आप के लिए भविष्य में एकता की बैठकों में शामिल होना मुश्किल होगा। ऐसी नीति से विपक्ष की एकता के संदर्भ में बैठक के पहले भी सकारात्मक संकेत नहीं जा रहा था । आप ने जिस तरह कांग्रेस को निशाना बनाया है उस से विपक्ष के बीच के कटुता की खाई देश की जनता के सामने आ रही थी।

 

पटना के बाद बंगलुरु में हुई बहुप्रतीक्षित विपक्षी दलों की मीटिंग के बाद  निष्कर्ष यह निकला है कि विपक्षी गठबंधन को  ‘इंडिया’ यह नाम मिला है। पहली बार ऐसी मीटिंग में नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव की मेजबानी में खरगे, राहुल गांधी, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, लालू प्रसाद यादव और अन्य विपक्षी नेता साथ बैठें। राजनीतिक जानकारों के अनुसार यह दोनों मीटिंग एक सकारात्मक पहल तो है, लेकिन इसे एक प्रारंभ से अधिक नहीं माना जाना चाहिए। इसके अगले हर चरण में एक बड़ी बाधा खड़ी है, जिसे पार किए बिना आगे की राह नहीं मिलेगी। उसकी झलक मिटिंग के प्रारंभ से दिख भी रही है। यही कह सकते है कि विपक्षी महत्वाकांक्षी नेताओं के बीच बातचीत और विचार-विमर्श का सिलसिला सुरु हुआ है। “कांग्रेस को देश की सत्ता पाने की अथवा प्रधानमंत्री पद  की लालसा कतहीं नहीं है, देश का संविधान, जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं सामाजिक न्याय की रक्षा हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।” कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने अपनी यह भूमिका बंगलुरु बैठक में व्यक्त की है। लेकिन देश की जनता इस बात पर विश्वास करेगी या कांग्रेस की तुलना चालाक लोमड़ी से कर व्यंग की दृष्टि से इस बात को देखेगी?

साल भर पहले जो विपक्षी एकजुटता के प्रयास किए जा रहे थे, उसके केंद्र में तीसरा मोर्चा बनाने की बात थी। उनमें ज्यादातर दल कांग्रेस को साथ लेने के प्रबल विरोधी थे। ऐसे में कांग्रेस को साथ लेकर  विपक्षी एकता के प्रयास शुरू होने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। एक होने के प्रयासों में भी विपक्षी दलों में एकरूपता अब  तक तो महसूस नहीं हो रही हैं। हां चालाकियां जरूर महसूस हो रही है। हर बारिश के मौसमी मेंढक और चुनावी माहौल में विपक्षी दलों में एकता के इन प्रयासों को देश की जनता विशेष अहमियत देने को तैयार नहीं। हर लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता की कोशिश होती है, इस बार भी हो रही है? हालांकि, एकजुटता दिखाने का मौका पिछले दिनों कर्नाटक के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण के दौरान भी मिला था, लेकिन उस पर इन दलों के अंतर्विरोधों का साया पड़ने से नहीं रह सका। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और तेलंगाना के मुख्यमंत्री एवं बीआरएस मुखिया के. चंद्रशेखर राव को उसमें बुलाया नहीं गया तो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उपस्थित नहीं रही। ऐसे में यह समझना चाहिए कि भाजपा से मुकाबले के लिए सभी गैर भाजपा या गैर राजग दलों की आवश्यक एकता संभव नहीं दिखती। भाजपा से निपटने से पहले एक-दूसरे को निपटाने की उनकी कोशिशें भी जारी हैं।

नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, शरद पवार विपक्षी दलों के नेता चाहते हैं कि तेलंगाना, आंध्र, केरल और दिल्ली को छोड़कर कांग्रेस अपनी भूमिका पिछले लोकसभा चुनाव में जीती और दूसरे नंबर पर रही सीटों तक ही सीमित रखे और अन्य क्षेत्रीय दलों के लिए मैदान खुला छोड़ दे। यह रणनीति लोकसभा की कुल 543 में से 474 सीटों पर भाजपा के विरुद्ध एक ही साझा विपक्षी उम्मीदवार उतारने से प्रेरित बताई जा रही है, पर इस गणित के हिसाब से कांग्रेस के हिस्से मात्र 244 सीटें ही आएंगी। उनमें से कांग्रेस कितनी सीटें जीत पाएगी और शेष सीटों पर उसके संगठन नेता-कार्यकर्ताओं का क्या होगा ? इससे क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस के प्रति सोच का संकेत तो मिल ही जाता है, ये दल भाजपा के विरोध में कांग्रेस के सहयोग से लड़ना तो चाहते हैं, पर वे इस प्रक्रिया में कांग्रेस को उसका खोया हुआ जनाधार वापस पाते नहीं देखना चाहते, क्योंकि उनका राजनीतिक भविष्य कांग्रेस की पतन पर ही टिका है।

कई क्षेत्रीय दल या तो कांग्रेस के बागियों द्वारा बनाए गए हैं या वे कांग्रेस का परंपरागत जनाधार छीन कर बने हैं। ऐसे में क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के बीच हितों का टकराव स्वाभाविक है। यह सिलसिला पिछले 3 दशकों से बना हुआ है और इसका सबसे नया उदाहरण आम आदमी पार्टी है। क्षेत्रीय दल कांग्रेस के पतन पर अपनी पकड़ बनाकर स्थापित हुए लेकिन बीजेपी के उभार ने इस ट्रेंड पर ब्रेक लगा दिया। अब पश्चिम बंगाल हो या तेलंगाना, बीजेपी वहां मजबूत ताकत के रूप में उभर रही है। 2019 आम चुनाव में बीजेपी उन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन कर चुकी है, जहां पहले वह मजबूत ताकत नहीं मानी जाती थी। विरोधी इस दुविधा में दिख रहे हैं कि वे सभी मिलकर मोदी सरकार का विरोध नहीं कर सकते। लेकिन सच्चाई यही है कि बीजेपी के अलावा सिर्फ कांग्रेस ही ऐसा राष्ट्रीय दल है, जिसकी उपस्थिति पूरे देश में है। इसलिए विपक्ष के नेतृत्व के बीच ‘कांग्रेस के साथ या कांग्रेस के बिना’ इस बात पर भी बहुत मतभेद हैं। भविष्य में इसकी आशंकाएं और बढ़ती जाएंगी।

यदि लोकसभा चुनाव से पहले कोई भाजपा विरोधी बड़ा गठबंधन मूर्त रूप भी लेता है, तो उसका प्रधानमंत्री पद का प्रमुख दावेदार कौन होगा? उस गठबंधन का संयोजन कौन करेगा? उनकी वैकल्पिक नीति क्या होगी ? इस बात पर माथापच्ची होनी ही है। “देश और देश के लोगों को बचाना इस बात को हमारी प्राथमिकता है। प्रधानमंत्री कौन बनेगा यह चुनाव के बाद तय करेंगे।” कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की इस बात में कोई दम नहीं है। यह बात देश की जनता भली-भांति जानती हैं क्योंकि सत्ता की प्यासी कांग्रेस राजनैतिक आत्महत्या करेगी? यह सवाल देश की जनता के मन में है।

मई 2014 के बाद देश आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक मोर्चों पर वांछनीय परिवर्तन के साथ सांस्कृतिक पुनरुद्धार, श्रीराम मंदिर के पुनर्निर्माण आदि सकारात्मक कार्य को देश की जनता अनुभव कर रही है? अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में विश्व में भारतीय सनातन संस्कृति का प्रचार, सफल ‘वैक्सीन मैत्री’ अभियान और रूस-यूक्रेन युद्ध रोकने हेतु भारत के प्रयासों को वैश्विक स्वीकार्यता मिलना आदि इसके प्रमाण है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक विमर्श मुख्यतः पांच बिंदुओं पर आधारित है। सर्व समावेशी विकास पर बल, भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रमकता और सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी पर जोर देना, विशुद्ध भारतीय संस्कृति प्रेरित राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाना और करोड़ों गरीबों-वचितों को बिना किसी पंथ, लिंग, जाति या मजहबी भेदभाव के लाभ पहुंचना है। भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचारियों और परिवारवादियों के खिलाफ अपनी लड़ाई को जारी रखने का आह्वान किया है।

भाजपा अपनी कार्ययोजनाओं के प्रति इसलिए भी आश्वस्त है, क्योंकि उसके पास राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण और निर्णायक नेतृत्व के साथ व्यापक जन समर्थन भी है। इस पृष्ठभूमि में क्या विरोधी दल यह दावा करने का साहस कर सकते है कि वे सत्ता में लौटने में बीते एक दशक में किए गए सुधार कार्यों को पलट देंगे ? बीजेपी के पास फिलहाल मुद्दों की कोई कमी नहीं है। अयोध्या में श्रीराम मंदिर का मुद्दा, समान नागरिक संहिता का मुद्दा, जो इस वक्त चर्चा में है, वह भी बीजेपी के लिए काफी कारगर साबित होगा। ‘अनुच्छेद 370’ को निरस्त करने का लाभ भी बीजेपी को मिलना निश्चित है। यदि समान नागरिक संहिता लोकसभा चुनाव से पहले आती है तो वह भाजपा के लिए ‘बूस्टर’ बन सकती हैं।

देश में सत्ता के लिए सियासी संग्राम शुरू होने में अब सिर्फ कुछ ही महीने ही बचे हैं, ऐसे में सत्ताधारी दल बीजेपी और कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल अपनी रणनीति बनाने और उसे मूर्त रूप देने में जुट गए हैं।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कद और देशभर में बीजेपी की ताकत के बीच विपक्षी पार्टियां भी एकजुट होने की कोशिश कर रही हैं, हालांकि अभी तक इसमें सफलता नहीं मिली है। विपक्षी गठबंधन को ‘इंडिया’ नाम देकर इस 2024 के लोकसभा चुनाव की लड़ाई इंडिया बनाम मोदी के बीच है, इस प्रकार का माहौल निर्माण करने का प्रयास विपक्षी गठबंधन बड़ी चालाकी से कर रहा है। लेकिन किसी शातिर ठग का नाम ‘शंकर’ होने पर लोग उसकी पूजा नहीं करते,  कुछ ऐसी ही स्थिति विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की हैं।

चुनाव मुद्दों के बल पर जीता जाता है और नरेंद्र मोदी के खिलाफ ऐसा कोई चुनावी मुद्दा बनाना विपक्ष के लिए संभव नहीं हो पाया है। जिसे बीजेपी को हराने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी विरोधी गठबंधन बनाने के लिए विपक्षी दलों की बैठक के तुरंत बाद ही अजित पवार ने शरद पवार से बगावत कर एनसीपी की कमान संभाल ली है और महाराष्ट्र के नए उपमुख्यमंत्री बन गए है। वहां बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी में भी रार चल रही है। विपक्ष और उसके शीर्ष नेतृत्व का अधिकांश समय नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने के बजाय अपने ही आंतरिक मुद्दों से निपटने में व्यतीत हो रहा है। तमाम विपक्षी दलों के बड़े नेता जनता के मुद्दों को लेकर लगातार आंदोलन और संघर्ष करते नजर नहीं आ रहे हैं और सभी विपक्षी दल समान रूप से मोदी सरकार के खिलाफ नहीं हैं। विपक्षी कितना भी कहे कि उन्हें देश के संविधान को बचाना है पर विपक्ष अपने आप को बचाने की कोशिश में लगा है। देश की राजनीति में विपक्ष अब अपने स्वार्थी नीति पर ही अटका हुआ है।

कुल मिलाकर, भाजपा का सारा ध्यान अब 303 लोकसभा सीटों पर है और भाजपा को रोकने के लिए विपक्ष के पास कोई कारगर नीति नहीं है। विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चुनौती है नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और लोगों को समझाने की उनकी क्षमता का विकल्प तैयार करना। वर्तमान में कोई भी विपक्षी दल मोदी के प्रचार तंत्र, संगठन और चेहरे के साथ-साथ मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। अगर पूरे देश का विचार करें तो भारतीय जनता पार्टी उस स्थिति में पहुंच गई है जहां कोई ठोस नीति से परिपूर्ण विपक्ष नहीं है।

2019 में बीजेपी की सीटें 282 से बढ़कर 303 हो जाने के बाद विपक्षी दलों को भविष्य नहीं, अस्तित्व का ही संकट महसूस होने लगा है। इसलिए तमाम दल आपसी एकता बनाने की ओर बढ़े। लेकिन परस्पर विश्वास और सम्मान के बिना राजनीतिक गठबंधन कैसे बने? अपने विपक्षी गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रखकर इंडिया बनाम मोदी संघर्ष निर्माण करना चाहते हैं। ‌जो विरोधी दल अपनी दोनों बैठकों को ‘ऐतिहासिक’ बता रहे है, वह डरे सहमें  विरोधियों का जमावड़ा है।‌ अपने गठबंधन का नाम रखते हुए भी बहुत बड़ी चूक उन्होंने की है। अपने भ्रमित संगठन को इंडिया नाम देकर विपक्षियों ने बहुत बड़ी गलती की है। ‘इंडिया’ यानी भारत के साथ विपक्षी संगठन के प्रत्येक नेता और पक्ष ने कितना  छल किया है, यह देश की जनता भलीभांति जानती है इसलिए  इसका उत्तर देश की जनता जरूर देगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के देश और विश्वव्यापी प्रभावी कार्यों के  प्रति देश की जनता में  निर्माण हो रही सकारात्मक भावना, भ्रष्टाचारियों के विरोध में मोदी सरकार द्वारा उठाए गए कड़े कदमों ने भी उन्हें एकजुट करने में निर्णायक भूमिका निभाई है। यह बात देश की समझदार जनता जानती है। यह पब्लिक है ये सब जानती है।

This Post Has One Comment

  1. Kirit Manohar Gore

    परफेक्ट विश्लेषण है।

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