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उल्लू की राजनीति

उल्लू की राजनीति

by हिंदी विवेक
in पनवेल विकास विशेष अक्टूबर-२०२३, राजनीति, विशेष, साहित्य
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आइए मिलवाते हैं हम उलूक कुमार से। ये उलूक कुमार बहुत तगड़े वाले उलूक हैं। इन्हें इनके इस नाम से काफी मोह है। उनका मोहित होना लाजिमी है। दरअसल कैम्ब्रिज में उलूक की स्थिति हमारे देश के उल्लुओं से बहुत बेहतर है। कैम्ब्रिज में उलूक खुद पुस्तक पर बैठे होते हैं। वे अपनी बुद्धि को ज्यादा श्रेष्ठ मानकर पुस्तक को लात मारते हैं।

हमारे देश में पुस्तक को लात गलती से लग जाए तो पैर पड़कर दस बार माफी मांग लेते हैं। शायद इसीलिए भारत की उर्वरा भूमि में जन्मे मनुष्य के रक्त में बुद्धि के अणु इतने ज्यादा हैं कि वैश्विक बुद्धि के सामने सबको परमाणु नजर आते हैं।

एक पत्रकार ने उलूक कुमार से साक्षात्कार लेना चाहा। उधर से जवाब मिला कि जब चाहे ले लो। हम उलूक कुमार ऐसे ही थोड़े हैं। हमारे अंदर असीमित बुद्धि है। अरे छोटे-मोटे साक्षात्कार हम ऐसे ही बिना तैयारी के दे देते हैं।

पत्रकार- उलूक कुमार जी सुना है आपको अपने नाम पर बहुत नाज हैं। इसका राज बताएंगे?

उ- देखिए पत्रकार महोदय आपने सही सुना है। आपको पता नहीं होगा कि उलूक का सिर 360 डिग्री पर घूमता है। तो मैं समझता हूं कि नाम रखने से कम से कम अनुभूति तो कर ही सकता हूं कि मुझे चारों तरफ का एकसाथ दिखाई दे रहा है।

पत्रकार- आप बहुत बड़े ज्ञाता हैं। आपने दुनिया की तमाम धार्मिक, आध्यात्मिक और इतिहास की पुस्तकें पढ़ रखी हैं?

उ- ऐसा है कि मैंने ये सारी पुस्तकें पढ़ने के बाद सीखा कि जैसा आप सोचते हैं वैसा होता नहीं है। और जैसा होता है वैसा आप सोचते नहीं हैं। इसलिए पढ़ने का फायदा ये हुआ कि मैंने अपने दिमाग पर जोर डालना बंद कर दिया है। जब से ऐसा किया है तब से बेहतर आइडिया आने शुरू हो गए।

पत्रकार- कभी तो आप जोड़ने की बात करते हैं। फिर अचानक तोड़ देते हैं। ये क्या है? इसके बारे में जरा कुछ बताएंगे? आखिर कैम्ब्रिज आपको सुनता है।

उ- बहुत सही फरमाया आपने। ये प्रश्न पूछने के लिए धन्यवाद आपका। ऐसे प्रश्न पत्रकारों द्वारा पूछे जाने चाहिए। मगर हमारे मीडिया वाले हमसे कुछ पूछते ही नहीं हैं। इसलिए मुझे कैम्ब्रिज में आकर बोलना पड़ता है। अब देखिए हम जब जोड़ने का नाम रख देते हैं तब अपने मन में मान लेते हैं कि जिसे जोड़ने चल पड़े हैं वो सब टूट हुआ है। यदि ऐसा नहीं होगा तो हमारी यात्राएं बेकार जाएंगी।

पत्रकार- मगर इसके परिणाम कुछ अलग ही निकले! अब जो टूटा हुआ बंधन आप जिसे जुड़ा हुआ समझ रहे हैं, वो तो तोड़-तोड़कर जोड़ा गया है। इसे कितनी ही गांठों से जोड़ नहीं सकते! फिर ये कैसा गठ-बंधन है?

उ- आप भी बड़े अजीब-अजीब से प्रश्न करते हैं। माना कि सब टूटा हुआ है। पर हम सब जुड़ा हुआ मानकर चल रहे हैं, बीज गणित के सूत्र की तरह। मानो तो जुड़ा हुआ और न मानो तो बिखरा हुआ। और फिर कौन-सी जनमभर की गांठें जोड़नी हैं। बस एक बार मुझे नेतृत्व करने की इच्छा है। वो हो गया तो बस सारी जोड़-तोड़ खत्म। चैन की बंसी बजाऊंगा।

पत्रकार-  ये बताइए कि आपको अपने देश का नाम पसंद क्यों नहीं? क्या आप विदेशी लोगों को ज्यादा पसंद करते हैं?

उ- देखो यार! ये पसंद-वसंद कुछ नहीं है। जिससे जहां जो फायदा मिले लेते जाओ। लोग तो ऐसे ही कहते कि नाम में क्या रखा है। जबकि नाम की ही तो लड़ाई है। नहीं तो कोई, कोई भी नाम क्यों ढोएगा? मैं भी अपने वंश का नाम बढ़ाने के लिए ही तो सारे धतकर्म कर रहा हूं। नाम में कुछ नहीं होता तो मुझे आज कुछ न करने पर भी पूछता ही कौन? इसलिए नाम होना बेहद जरूरी कर्म है।

पत्रकार- मगर अब तो आप आयु से बुजुर्ग हो चुके हैं। मार्गदर्शक मंडल में आपको अब होना चाहिए।

उ- काहे का मार्गदर्शक मंडल! जिस मंडल में हम हैं उसके आभा मंडल में सब हैं। वो मंडल टूट गया तो समझो कि फिर मेरे आसपास कोई एक कौवा तक न फटकेगा। इसलिए बजुर्गियत की तो बात ही मत करो। अभी तो मैं जवान हूं। लीडर कभी बुजुर्ग नहीं होता। वो बुर्जुआ होता है।

                                                                                                                                                                                     समीक्षा तैलंग 

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