छत्रपति शिवाजी महाराज का शासन सुशासन और राज्य सुराज्य क्यों कहलाता था? इसे समझने के लिए उनके कार्य, उनके विचार, उनके निर्णय और उनकी योजनाओं को जानने तथा उनका चिंतन मनन करने की आवश्यकता है। वर्तमान के राज्यकर्ता यदि छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य या राष्ट्र प्रथम के संदेश को अपने आचरण में उतार लें तो भारत में पुन: सुराज्य लौट आएगा।
देश के सभी राजनीतिक दल और समाज के चिंतन के अनुसार कृती करने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज का ‘स्वराज्य’ विषय आज भी सुसंगत और अध्ययन करने योग्य है।
छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन चरित्र और कार्य कर्तृत्व असाधारण ही था। गुलामी के घनघोर अंधेरे में छत्रपति शिवाजी महाराज ने तेजोमय सार्वभौम स्वराज्य का निर्माण किया। यह ऐसे राष्ट्रनिर्माता का जीवन चरित्र है जिसका वर्णन करने के लिए साहित्य की सभी उपमाएं, सभी अलंकार कम लगते हैं। उनका स्वराज्य एक उत्कृष्ट स्तर का सुराज्य था। उनके कार्य का हर एक पहलू आत्मनिर्भर, आदर्श, अद्ययावत, अजेय बनाने के लिए किए गए अनेक प्रयास उनका असामान्य कर्तृत्व दर्शाते हैं। (यही सब तो हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी देश में करना चाहते हैं। उन्होंने शिवाजी महाराज से ही प्रेरणा ली है।) शिवाजी महाराज का चरित्र श्रीराम जैसा था और राजनीति श्रीकृष्ण जैसी थी।
प्रजा केंद्रित विकास यही सुशासन का मूलमंत्र है। सुशासन कोई कल्पना नहीं है अपितु एक वास्तव है। छत्रपति शिवाजी महाराज को प्रजा के कल्याण की बहुत चिंता थी। उन्होंने स्वराज्य कीसाधन सामग्री निस्वार्थ भाव से प्रजा को ही समर्पित की थी। इसीलिए समर्थ रामदास ने उनको श्रीमंत योगी की उपाधि दी थी। कुशल प्रशासन ही छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य की सार्थ पहचान थी। युद्ध काल में स्वराज्य पर बडे-बडे प्रहार हुए। लेकिन छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने शासन के अंतर्गत आने वाले विभिन्न विभागों की जो रचना लगाई थी, वह रचना ही स्वराज्य टिके रहने मे और विजय प्राप्त करने में काम आयी।
कृषि विभाग
महाराज जब छोटे थे तब उनके प्रशासन अधिकारी दादोजी कोंडदेव ने पुणे की बंजर जमीन पर सोने का हल चलवाकर किसानों को प्रोत्साहित किया था। बरसात का पानी जमा करके उसके माध्यम से सालभर पशुपालन करने और खेती के अलग-अलग कामों के लिए उसका उपयोग करने हेतु उनका आग्रह होता था। पुणे केसमीपआंबील नाम के नाले पर उन्होंने ही बांध बनवाया था।
अकाल पडने पर किसानों को खेती में अगर नुकसान हुआ, तो उसकी भरपाई उन्हें धन के रूप में नहीं मिलती थी अपितु खेती के औजार, बीज, बैलगाडी, गाय, बैल, इत्यादि देकर उनकी नुकसान भरपाई की जाती थी। इसके पीछे महाराज की सोच यह थी कि अगर रोख रकम दी गयी तो पैसा अन्य कामों में भी उपयोग किया जा सकता है। इससे दो प्रकार के नुकसान होने की सम्भावना थी। किसान को अपनी उत्पादन क्षमता कायम रखने में सफलता नहीं मिलती और दूसरा राजकोष का भी नुकसान होता था।
पिछले कुछ सालों से किसानों की आत्महत्याओं के समाचार आ रहे हैैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद किसानों की खेती के उत्पादन, उनकी बिक्री, लाभ और लाभ का पुन: उचित प्रयोग इस पूरे चक्र का संपूर्ण विचार करके एक नीति विकसित करने की आवश्यकता थी। लेकिन यह हुआ नहीं। इसलिए कृषि क्षेत्र में अव्यवस्था, असमतोल तथा अस्वस्थता दिखाई देती है।
अपने राज्य के किसानों को अलग-अलग प्रकार की फसल उपज उगानी चाहिए, ऐसा महाराज को लगता था। महाराज ने विशेष हुकूम देकर फलों के बाग लगाने का आग्रह किया था। महाराज ने बंजर जमीन पर फसल उगाने वाले को कर में भी विशेष छूट दी थी।
बंजर, वीरान जमीन खेती करने लायक बनाने के लिए स्वतंत्र भारत में कोई प्रयास नहीं किए गए वरन निवास, उद्योगों के लिए बंजर जमीन के साथ ही खेती योग्य जमीन का भी उपयोग किया गया और खेती का उत्पादन घट गया।
गृहविभाग
छत्रपति शिवाजी महाराज का अनुशासन सभी विभागों में बहुत ही सख्त था। महाराज आगरा में औरंगजेब से मिलने गए तब साडे तीन-चार महीने वे स्वराज्य से दूर थे, लेकिन स्वराज्य में कोई गलत घटना नहीं हुई। उन्होंने नियम ही इतने सख्त बनाए थे और जो नियम तोडता था, उसको कडी सजा दी जाती थी।
इसका एक उदाहरण है- महाराज का सख्त हुकुम था के किसी भी किले के दरवाजे सूर्योदय होने पर ही खोले जाएंगे और सूर्यास्त के समय बंद कर दिए जाएंगे। चाहे कुछ भी हो जाए रात को दरवाजे नहीं खोले जायेंगे। महाराज ने औरंगजेब से मिलने जाने से पहले एक रात को किले पर जाकर किलेदार की परीक्षा ली। एक रात महाराज अचानक एक टुकड़ी के साथ किले के दरवाजे पर गए और कहा ‘मेरे पीछे शत्रू आ रहा है, दरवाजा खोलो।’ किलेदार ने उत्तर दिया ‘शत्रु आपके पासभी आ नहीं सकेगा इसकी व्यवस्था तो मैं कर सकता हूं लेकिन दरवाजा सुबह तक नहीं खोला जाएगा।’ उसने महाराज से कहा ‘आप ही का आदेश है कि स्वयं मैं भी रात में आऊं तो दरवाजा नहीं खोलना। तो मैं कैसे दरवाजा खोल सकता हूं।’ सुबह किलेदार ने दरवाजा खोला। हाथ जोडकर महाराज के सामने गया और कहा ‘महाराज मैं अपराधी हूं जो दंड देना है दे दीजिए। महाराज ने उसको गले लगाया और उसके हाथ में सोने का कडा पहना दिया।
इसी प्रकार महाराज दक्षिण दिग्विजय के समय भी लगभग डेढ़-दो साल स्वराज्य के बाहर थे। तब सामान्य शासकीय कर्मचारी से लेकर सेनाधिकारी या प्रधान मंत्री तक सभी लोगों ने अपना कर्तव्य प्रामाणिकता से निभाया था। छत्रपति शिवाजी महाराज ऐसे राजा थे, जिन्होंने अपनी सेना को और अपने अधिकारियों से कहा था, ‘मैं रहूं या न रहूं स्वराज्य रहना चाहिए।’ अर्थात राजा के लिए या खुद के लिए भी नहीं, स्वराज्य के लिए लडोे। यह राज्य होना चाहिए ऐसी भगवान की इच्छा है।
इसलिए स्वराज्य में कभी विद्रोह नहीं हुआ। हर एक विभाग में किसका आदेश चलेगा, यह तय था। इस वजह से वह अधिकारी जब तक अपने विभाग को इशारा नहीं करता था तब तक वह विभाग किसी काम में सक्रिय नहीं होता था। उच्च अधिकारी से लेकर कनिष्ठ अधिकारी तक एक श्रृंखला महाराज ने निर्माण करके रखी थी। अंतर्गत व्यवस्था ऐसी हो तो बाहर से कोई आकर कैसे कुछ गडबड कर सकता है।
आज हमारी व्यवस्था ऐसी है कि 2008 का मुंबई हमला कैसे हुआ इसका पता भी हमको नहीं लगा था।
गुप्तचर विभाग
महाराज की गुप्तचर यंत्रणा जबरदस्त थी। अफजल खान की पूरी गतिविधि और जानकारी उनके पास थी। शाहिस्तेखान की फौज की पूरी जानकारी महाराज के पास थी। सूरत पर हमला करने से पहले महाराज के पास हर एक व्यापारी की पूरी जानकारी थी। किसके पास कितना धन है और वह धन कहां छुपाकर रखा है, सूरत के सुभेदार के पास कितनी फौज है? कौन -कौन अच्छे लोग हैं, जिनको कोई तकलीफ नहीं देनी है, इतनी छोटी से छोटी सी जानकारी भी महाराज के पास थी। औरंगजेब की कैद से छूटने की योजना शिवाजी महाराज ने कैद में बैठकर बनाई। इस योजना को अंजाम तक पहुंचाने का काम गुप्तचरों ने किया। यह पूरी योजना एक अद्भुत चमत्कार थी। महाराज की गुप्तचर यंत्रणा इतनी जबरदस्त थी कि सिर्फ गुप्तचर प्रमुख बहिर्जी नाईक, विश्वास दिघे और एक-दो लोगों को छोडकर अन्य गुप्तचर और उनके कामों की जानकारी उनके राज्य के कार्यरत मंत्री को या अधिकारी को भी पता नहीं होती थी। ऐसी कमाल की गुप्तता रखी जाती थी।
न्याय व विधि विभाग
न्याय के तीन तत्त्व होते हैं- 1) न्याय उचित होना चाहिए। 2) समय पर होना चाहिए 3) उस पर तुरंत अमल होना चाहिए। न्यायव्यवस्था को लेकर भी शिवाजी महाराज बहुत सख्त थे इसलिए उन्होंने न्यायाधीश की नियक्ति की थी। इस पद पर नियुक्त किया गया व्यक्ति किसी भी युद्ध अभियान में भाग नहीं लेता था। जनता को न्याय दिलवाने में टालमटोल या देर न हो इसलिए उस व्यक्ति को युद्ध से दूर रखा जाता था।
जिजाबाई, दादोजी कोंडदेव इत्यादि ने राज्य का कार्य चलाने के उच्च संस्कार छत्रपति शिवाजी महाराज पर किए थे। उसी के आधार पर महाराज ने अपने सोलह वर्ष में जो न्याय किया, वह आज भी एक मिसाल है। रांझे गाव के पाटील ने एक महिला पर बलात्कार किया। उस पर आरोप साबित होने के बाद पाटील के हाथ-पांव काटने की सजा सुनाई गई। अफजलखान से युद्ध के वक्त खंडोजी खोपडे नाम के देशमुख ने अफजल खान से हाथ मिलाया था अर्थात स्वराज्यद्रोह किया था। वह स्वराज्य के एक बुजुर्ग सरदार कान्होजी जेधे के रिश्तेदार थे। युद्ध के बाद कान्होजी खंडोजी को दरबार में लेकर आए और महाराज से खंडोजी को माफ करने का निवेदन दिया। महाराज कान्होजी की बात मान गए। कान्होजी बुजुर्ग थे। शहाजीराजे ने कान्होजी को स्वराज्य में शिवाजी महाराज की सहायता के लिए भेजा था। इसलिए कान्होजी की इज्जत महाराज ने रखी लेकिन महाराज बहुत गुस्से में थे। कोई भी आए, गुनाह करे, माफी मांगे और छूट जाए, यह संदेश वे स्वराज में नही देना चाहते थे। कुछ दिन बाद खंडोजी महाराज के सामने आया और महाराज आग बबूला हो गए। उन्होंने तुरंत हुकुम दिया। इसको पकडकर इसका बायां पाव और दाहिना हाथ काट डालो। इस प्रकार शिवाजी महाराज की न्याय देने की और भी कई घटनाएं हैं। लेकिन यहां सब बताना मुश्किल है।
आज स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारी न्याय व्यवस्था कैसी है? लाखों-करोडों मुकदमें अदालत में न्याय की प्रतीक्षा में अटके पडे हैं। ब्रिटिशों ने हमारी न्याय व्यवस्था खत्म करके उनकी व्यवस्था शुरू की और हम भी वही व्यवस्था अब तक ढ़ो रहे हैं। स्वराज्य में राज्य कामकाज चलाने के लिए महाराज ने अष्ट प्रधान मंडल नियुक्त किया था।
1) प्रधान मंत्री
2) अमात्य/मजुमदार/अर्थ मंत्री
3) पंतसचिव
4) मंत्री
5) सेनापति
6) सुमंत
7) पंडितराव
8) न्यायाधीश
स्वराज्य में सभी को वेतन दिया जाता था परंतु किसी को भी वतन, जागीर नहीं दी जाती थी।