आनंद का प्रतीक नृत्य

गाना गाना, नृत्य करना कोई वाद्य बजाना ये सभी अपने मनोभावों को व्यक्त करने का तरीका हैं। ये सारे क्रिया कलाप केवल किसी को ‘इम्प्रेस’ करने के लिए नही वरन् स्वयं को ‘एक्सप्रेस’ करने के लिए किए जाते हैं तो वे सभी मनोभाव देखने और सुनने वालों तक अपने आप पहुंच जाते हैं।

क्या आपने कभी किसी छोटे बच्चे को बिना किसी चिंता के अपनी ही धुन पर थिरकते देखा है? क्या आपने बारिश के आते ही, आनंदित होकर पंख फैलाते मोर को नृत्य करते देखा है? क्या आपने तीज त्यौहार पर या घर पर किसी कार्यक्रम में खुशी मनाने के लिये अपने परिवारजनों को नृत्य करते देखा है? आपको इस सब में कौन सी एक बात है जो एक जैसी दिखाई पडती है? मैं बताती हूं!

नृत्य करते वक्त चहरे पर दिखाई देने वाली और मन को होने वाली आनंद की अनुभूति। नृत्य एक ऐसी कला है, जो ना केवल देखने वाले को आनंद की अनुभूति प्रदान करती है, वरन जब तक इस कला को प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति स्वयं आनंदित ना हो या इस कला का आनंद ना ले, वह दर्शकों को यह अनुभूति दे ही नहीं सकता।

यदि वैज्ञानिक तौर पर देखा जाए, तो नृत्य एक शारीरिक क्रिया है, जब नृत्य करने वाला व्यक्ति इस कला का संपूर्ण आनंद लेते हुए नृत्य करता है, उसके शरीर के अंदर उपस्थित ‘कोरटिसोल’ नामक ‘स्ट्रेस हार्मोन’ की मात्रा कम होती है, और ‘डोपामाइन’ नामक ‘आनंद देने वाले हार्मोन’ की मात्रा में वृद्धि होती है। तो यह नृत्य हर परिस्थिती में नृत्य करने वाले व्यक्ति और देखने वाले दर्शक को भी आनंद की अनुभूति प्रदान करता है।

शास्त्रीय नृत्य के आराध्य दैवत नटराज माने गये हैं, याने कि प्रभु शंकर और उनके द्वारा किया जाने वाला नृत्य भी आनंद का एक प्रतीक माना गया है। अब आप कहेंगे, तांडव तो रौद्र रूप का परिचय देता है, लेकिन नाट्यशास्त्र के अनुसार तांडव के माने गए 7 प्रकारों में एक महत्वपूर्ण प्रकार है आनंद तांडव जो आनंद को अभिव्यक्त करने के लिये प्रभू शंकर द्वारा किया गया है।

भारतीय सभ्यता का आधार इन कलाओं में छिपा हुआ है। हजारों सालों से ये कलाएं भारत देश का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनकर चलती आ रही हैं। ना केवल भारत वरन अनेक सभ्यताओं का आधार यह कलाएं रहीं हैं, जिनमें से नृत्य कला एक महत्वपूर्ण कला है। आज के समय में मनोरंजन के अनेक साधन हमारे पास उपलब्ध हैं, जो हमें क्षणिक आनंद देते हैं। लेकिन ये कलाएं मंदिरों और पुरातन कालों से चली आ रही हैं, जो क्षणिक आनंद पर नहीं वरन आनंद की दीर्घकालीन अनुभूति पर जोर देती हैं। पुरातन काल की बात करें, तो भारतीय शास्त्रीय नृत्य जैसे कि कथक, भरतनाट्यम, मोहिनीअट्टम, कथकली आदि मंदिरों में देवताओं के समक्ष प्रस्तुत किये जाते थे, जिसमें से देवताओं के प्रति श्रद्धा और भक्ति भावना व्यक्त की जाती थी, यह भक्ति मन को असीम शांती और आनंद देने वाली होती थी। इस प्रकार का आनंद शायद ही किसी और स्थान पर या किसी और कार्य के करने पर मिल सकता है। समय बदलता गया, और साथ ही साथ इन कलाओं की परिस्थिती भी। मंदिरों से यह कला राज दरबारों में आई। तब राजा ने नृत्य कलाकारों और अन्य कलाकारों को भी राजाश्रय दिया था। कलाएं राजा के दरबार में सहेजी जाती थीं, उन्हें मान दिया जाता था। विभिन्न कार्यक्रम होते थे। बडे-बडे नृत्य सम्राट इन्हीं कार्यक्रमों से उभर कर आते थे। एक उच्च कोटी के आनंद की अनुभूति देने वाली कला के तौर पर तब नृत्य कला प्रसिद्ध थी।

मुगल साम्राज्य के आने के बाद यही नृत्य कला मुगल राजाओं के दरबारों में आ गई, और आनंद का स्थान ले लिया खुशामद ने। लेकिन दर्शक अभी भी आनंद की अनुभूति प्राप्त कर रहे थे। यह आनंद सात्विक नहीं था। समय का फेर बदला, और नृत्य कला को पुन: एक बार अपना खोया हुआ सम्मान वापस मिलने लगा। आज संपूर्ण जगभर में अनेक प्रकार से नृत्य कला का प्रदर्शन किया जाता है। फिर वह शास्त्रीय नृत्य के कार्यक्रम हों, किसी विषयवस्तु या घटनाक्रम पर आधारित नृत्य नाटिकाएं हों, या फिर डांस इंडिया डांस जैसे रिएलिटी शो। इन सभी में एक बात फिर भी ‘कॉमन’ है, वह है, आनंद की अनुभूति।

यह आनंद केवल एकल नृत्य में ही नहीं है। वरन समाज को और करीब लाने में और ‘सामाजिक आनंद’ के निर्माण में भी नृत्य कला का विशेष योगदान रहा है। आपने कभी दशहरे के जुलूस में दुलदुलघोडी को नाचते देखा है? या फिर किसी कार्यक्रम में किसी आदिवासी कबीले को एकसाथ आकर नृत्य करते देखा है? पाठशालाओं में आज भी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर सामूहिक लोक नृत्य प्रस्तुत किये जाते हैं, इन लोकनृत्यों के माध्यम से उस समाज का त्यौहार मनाने का तरीका, एक साथ आकर एक दूसरे की खुशी में शामिल होने का तरीका समझा जाता है। आज भी आदिवासी समाज में हर प्रकार का आनंद गीत और नृत्य के माध्यम से मनाने की परंपरा है।

असम का बीहू नृत्य ही ले लीजिये। खेती की पैदावर अच्छी होने पर किसानों की खुशी मनाने का तरीका याने की बीहू नृत्य। वैसे ही बुंदेलखंडी नृत्य भी आदिवासी समाज की खुशियां मनाने वाला नृत्य माना जाता है। इन नृत्यों के माध्यम से अलग-अलग समाजों की, अलग-अलग लोगों की प्रथाएं, परंपराएं समझने का अवसर मिलता है।

गुजरात का गरबा भी इसी आनंद का प्रतीक है, जो माता रानी के आगमन के आनंद को मनाता है। हजारों की संख्या में जब सब एक होकर माता रानी के नवरात्रों का आनंद व्यक्त करते हैं, तो वह एक नृत्य का सुंदर रूप धारण करता है। पंजाब का भांगडा हो या गिद्दा, या फिर बंगाल का धुन्नोच्छी नृत्य, कालबेलिया हो या फिर राजस्थान का घूमर, महाराष्ट्र की लावणी व गोंधळ हो या फिर पश्चिम बंगाल का छाऊ, हर नृत्य एक प्रकार का आनंद व्यक्त करता है।

हमेशा ऐसा कहा जाता है कि जब आप किसी को ‘इम्प्रेस’ करने के लिये नहीं, तो अपने आप को ‘एक्सप्रेस’ करने ते लिये नृत्य करते हैं, तो उस आनंद की अनुभूति अलग ही होती है। अर्थात किसी और की खुशामद के लिये नहीं वरन आत्मिक आनंद के लिये, स्वयं की भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये यह नृत्य किया जाता है तो इस आनंद की अनुभूति उच्च कोटी की होती है।

ईश्वर की भक्ति को लेकर, मन की भावनाओं की अभिव्यक्ति तक, शास्त्रीय नृत्य के विभिन्न कार्यक्रमों से लेकर, घर की शादी में ढोल पर किये गए नृत्य तक, काले बादलों को देख कर मयूर द्वारा किये गए नृत्य से लेकर, छोटे से बच्चे द्वारा ताल पर ठेका लेकर किये गए नृत्य तक, हर प्रकार का नृत्य केवल एक ही भावना व्यक्त करता है, और वह भावना है, आनंद कि भावना।

जब अपनी गोदभराई पर एक मां धीरे-धीरे संभल कर ठेके पर थिरकती है, तो वह असीम आनंद व्यक्त करती है। जब अपनी बहन की शादी में आसुओं को रोकते हुए एक भाई संगीत में या मेहंदी पर नृत्य करता है, तब वह असीम आनंद व्यक्त करता है, जब खेत खलिहानों में लहलहाती फसल देख कर किसान भाई एकसाथ आकर लोकनृत्य करते हैं, तब वह असीम आनंद व्यक्त करते है, जब बारात में दोस्त नृत्य कर रहे होते हैं, तब वह असीम आनंद व्यक्त करते हैं, जब स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर देशभक्ति के गीतों पर नृत्य प्रस्तुत होते हैं, तब भी वह असीम आनंद व्यक्त करते हैं।

जब कभी छोटे बच्चे की आंखों में थिरकते वक्त एक चमक देखना तो आप समझ जाना, इस आनंद की अनुभूती और कोई नहीं कर सकता। इसीलिए नृत्य चाहे कोई भी हो, उसे करने वाले व्यक्ति की उम्र, कद काठी, लिंग, जाती, समुदाय, धर्म, समाज कुछ भी हो, हर प्रकार का नृत्य आनंद ही व्यक्त करता है। तभी तो कहते हैं!

शंकर का तांडव हो या फिर,

नर्तकी का पदन्यास,

असम का हो बीहू या फिर

वृंदावन की रास,

देशभक्ति हो या हो श्रद्धा

या फिर इसमें दिखे प्रकृति

एक समाज है, एके भावना

नृत्य याने आनंद की अनुभूति!

 

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