काष्ठकला की भारतीय परम्परा

महलों, किलों के विशालकाय दरवाजे से लेकर घरों के मंदिरों, कुर्सी, टेबल इत्यादि तक विभिन्न वस्तुओं से भारतीय काष्ठशिल्प की सुंदरता प्रतीत होती है। काष्ठशिल्प उतना ही पुराना है जितना मानवीय सभ्यता। इसी परम्परा की पहचान कराता आलेख-

हमारे देश में कलाओं की एक गौरवशाली परम्परा रही है। हम यह कहते आ रहे हैं कि ‘चतु:षष्टि कलान्वितम् परमेष्टिना परिवर्धितम्’ अर्थात चौसठ कलाएं ब्रम्हा जी द्वारा परिवर्धित हैं। ये चौसठ कलाएं आल्हादक एवं सुख प्रदायिनी भी मानी गई हैं। कला का अर्थ है- कं (सुखं) ला (लाति) कं सुखं लाति इति कला अर्थात जो सुख प्रदान करती है, वह कला है। यहां हमारा विवेच्य है- काष्ठ कला।

काष्ठकला का आदिस्रोत हमारा वैदिक साहित्य है। अथर्व वेद के दो शाला सूक्तों (अथर्व 3-12, 9-3) में गृहनिर्माण के लिए आवश्यक दारुशिल्प और काष्ठकर्म की सामग्री का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। देवासुरम्, श्री लक्ष्मी कुमार, पूर्ण कुंभ एवं कल्पवृक्ष के अर्थों की तरफ यदि ध्यान दिया जाए तो हमें वैदिक काष्ठ कला कीअनेक विस्मयकारी एवं आल्हादक सामग्री उपलब्ध होती है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की पुस्तक ‘प्राचीन लोकधर्म’ में श्री लक्ष्मी स्वरूप का सप्रमाण उल्लेख मिलता है।

यह भारतीय काष्ठ कला परम्परा का बहुत बड़ा प्रमाण कहा जा सकता है। वट वृक्ष स्तंभ शीर्षक में भी इसकी चर्चा की गई है। भारतीय कला भारतवर्ष के विचार, धर्म, तत्वज्ञान और संस्कृति का दर्पण है। कला की यह सामग्री देश और काल दोनों में महाविस्तृत है। इसका आरंभ सिंधु उपत्यका में तृतीय सहस्त्राब्दि ईसवी पूर्व से प्राप्त होता और लगभग पांच सहस्त्र वर्षों तक इसका इतिहास पाया जाता है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने काष्ठ कला एवं अन्य कलाओं का विकास क्रम अपनी पुस्तक भारतीय कला(प्रारंभिक युग से तीसरी शती तक (1966)) में विवेचित किया है। अधिक जानकारी के लिए इस पुस्तक को पढ़ना चाहिए।

इसी प्रकार अन्य इतिहासकारों में डॉ. विश्वंभर शरण पाठक एवं ईश्वरीशरण विश्वकर्मा का नाम लिया जा सकता है। इन इतिहासकारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि काष्ठकला का इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है। यह आज तक किसी न किसी रूप में बना हुआ है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी एक महान आरण्यक संस्कृति रही है। उसमें काष्ठकला का उपयोग पर्णकुटिरों से लेकर सुखदायक कक्षों तक में हुआ है। यहा तक कि मौर्यकाल में चंद्रगुप्त मौर्य का पूरा राजभवन काष्ठ कला का सर्वाधिक प्रमाणिक आधार माना जा सकता है। आज भी भारत के अनेक अंचलो में यह परम्परा चली आ रही है। वर्तमान युग में काष्ठकला की अनेक कलाकृतियां वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध हैं। भारत से अन्य देशों में इनका निर्यात किया जा रहा है। सिंधुघाटी की कला में काष्ठ के प्रयोग का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में असुरों के 99 पुरों का उल्लेख आता है। इसमें काष्ठकला का प्रचुर मात्रा में प्रयोग मिलता है। वैदिक संहिताओं में यूपव्रस्क नामक काष्ठवर्ध की कुल्हाड़ी वसूल से लेकर जंगल में जाते और यूपों के लिए वनस्पती वृक्ष का छेदन करने का उल्लेख प्राप्त होता है। शतवल्स और सहस्रवल्स वनस्पती अर्थात सौ सहस्र शाखाओं वाले वन सम्राट जैसे महावृक्षों का उल्लेख मिलता है। ऐसे वृक्षों का उपयोग करके भारी-भारी महल बनाने की प्रथा थी, जिन्हें सहस्र-स्थूण प्रासाद कहा गया है। अथर्ववेद के शाला सूक्त में कहा गया है कि भवन-निर्माण से पूर्व लकड़ी संभार का प्रबंध कर लेना चाहिए। पहाड़ी इलाकों में, जहां देवदार और साल के लंबे वृक्ष होते हैं, अब भी यही प्रथा है कि मकान बनाने से पहले सौ -सौ फुट लंबे और ऊंचे भारी पेटे और ठोस गाभे के 10-20 वृक्षों को एकत्र कर लिया जाता है। तब गांव के बढ़ई उनसे भीत, खंभे, पटाव, अटारी आदि का निर्माण करते है। इसी प्रकार के काष्ठ शिल्प से प्राचीन काल में प्रासादों का निर्माण होता था। कालक्रम में वे  सड़गल गए और उनके चिन्ह अब शेष नहीं रहे। यही दशा वैदिक और महाजनपद युग के प्रासादों की हुई। उनका बचे न रहना कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि भारतीय जलवायु में वृद्धि और ग्रीष्म ऋतुओं का खुले हुए काष्ठशिल्प पर विध्वंसकारी प्रभाव होता है। काष्ठशिल्प के पूर्व अस्तित्व का सुनिश्चित प्रमाण पश्चिमी भारत के गुहा रचित चैत्य गृहों मेें सुरक्षित हैं। जहां कीर्तिमुखों के द्वार में बने हुए काष्ठपंजर या वातायन एवं भीतर की छत के कंठभाग में पहनाए हुए लकड़ी की बहुत भारी गर्दनें अभी तक बच गए हैं। भुवनों को रचने वालों को भौवन विश्वकर्मा कहा गया। यह भी कल्पना की गई कि संसाररुपी महावृक्ष को गढ़-छील कर या तक्षण करके द्यावापृथिवी का निर्माण किया गया। (ब्रम्ह उस वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्ष:)। इससे भी आगे बढ़कर यह सोचा गया कि इस प्रकार के शत सहस्त्र वृक्षों की समष्टि का एक महावन है जैसे पृथ्वी के बड़े-बड़े अरण्य होते हैं। ऐसे अरण्यों की अधिष्ठात्री देवी “अरण्यानी” मानी गई जो अपने जंगलों में झंकारते नूपुरों से स्वच्छंद विचरण करती है। वह एक जंगल प्रदेश से दूसरी ओर चली जाती है और गांवों की ओर देखती भी नहीं। देवी अरण्यानी किसी का हनन नहीं करती जब तक कोई हिंस्र शत्रु न हो।

भारतीय सघन वनों के इस वर्णन को पढ़कर विश्वास होता है कि काले चैत्यग्रह ढोलाकर छत में लगे हुए महाकाय गर्दनों के काष्ठशिल्प की सामग्री प्राप्त करने के लिए ये ही स्रोत थे। हाथी शेर और गैंडों से भरे हुए जंगलों में दिव्य वनों की अधिष्ठात्री के रूप में अरण्यानी देवी की कल्पना वास्तविक जीवन से संबंधित कविता है। इन बड़े जंगलों में वृक्षों के काटने और गिराने का निश्चित उल्लेख इस सुक्त में आया है जिससे वैदिक काष्ठशिल्प या दारुकर्म के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है।

ऋग्वेद में रूपों के निर्माण का प्राय: उल्लेख आता है। देवों के वर्धकी या बढ़ई को त्वष्टा कहा गया है, जो विश्वकर्मा की भांति एक देवता की ही संज्ञा है। रुपपिंशन या तक्षणकर्म द्वारा विविध वस्तुओं का निर्माण करना त्वष्टा का काम था (त्वष्टा रुपाणि पिंशत) वस्तुओं के भौतिक रूप का अधिक महत्व माना जाता था। इंद्र के संबंध में भी कहा गया है कि वह अपनी माया या शक्ति से अनेक रूपों को रचता है।

वर्धकियों के काष्ठशिल्प की भांति ही ऋग्वेद में कर्मार या लोहार के पेशे का भी उल्लेख है। कहा है कि लुहार अपनी भट्टी के सामने बैठकर धातुओं का संधमन करता या गलाता है। ब्रम्हणस्पति प्रजापति सब देवताओं के रूपों को ढालता है (ब्रम्हणवनस्पतिरेत: स कर्मार इवाधमत् ऋग्वेद 10/77/7)।

कला और उद्योगों के लिए शिल्पशब्द था। सौर्क्ष्यमय शिल्प के रचयिता को स्वरुप कृलु कहा गया है। उत्तम सुगठित शरीर के लिए सुशिल्प विशेषण आया है। सौंदर्य की अधिष्ठात्री देवी की संज्ञा श्री थी। उसी की सहचारिणी लक्ष्मी थी। दोनों मिलकर कालांतर में देवी श्री लक्ष्मी के रूप में विकसित हुई। देवी लक्ष्मी को भारतीय कला के मूर्त सौंदर्य की अधिष्ठात्री देवी कहा जा सकता है। उसकी पूजा और मान्यता वैदिक युग से लेकर आज तक चली आ रही है।

काष्ठ के बड़े खंबे को स्तंभ कहा जाता था। उसकी लाट की ऊंचाई को वर्ष्मन कहते थे। ऊंचे खंभे को महान लोकव्यापी सौभाग्य का प्रतीक माना जाता था। उसी से यूप या इंद्रध्वज का विकास हुआ। लिखा है कि इंद्र ने ऊंचे खंबे पर द्युलोक को स्तंभित कर रखा है। (अयं महान महता स्तम्भनेनोद द्यामस्तभनाद् वृषभो मरुतवान, ऋ 6/47/5)। इस मंत्र में उत्तरकालीन लौकिक संस्कृत के स्तंभ शब्द की स्तभ धातु का प्रयोग हुआ है, उसी का यह सहयोगी स्तंभ है। उनसे हिंदी यंभ और खंभ शब्द निकले हैं। काष्ठकर्म शिल्पी वनों में जाकर ऊंचे वृक्षों को मापते थे और स्वधितिया कुल्हाड़ी से उन्हें काटकर गिराते थे। उन्हें ही बड़े खंबों का रूप दिया जाता था।

काष्ठ कला का एक अदभुत उदाहरण ‘रथ’ का है। रथ बनाने की कला का वैदिक युग में बहुत विकास हुआ था। कई देवताओं के रथों का वर्णन मिलता है। रथ बनाने वाले वर्धकी को रथकार कहा जाता है। रथ के विभिन्न भाग या रथांगों का भी कितनी बार उल्लेख आया है, जैसे रथ, अक्ष(धुरा), चक्र (पहिया), अर (पहिए के डंडे) नम्य (नाह), प्रधि या पहिए का बाहरी गोलभाग, नेमि (प्रधि के उपर जड़ा हुआ गोल चक्कर) कोष (रथ का कलेवर या मुख्यभाग), बंधुर या गर्त (रथ के भीतर बैठने का स्थान इसे ही रथोपस्थ कहने लगे, कभी इनकी संख्या तीन होती थी जिसके कारण रथ को त्रिबंधुर कहा जाता था)। ईषा (रथ के अग्रभाग लंबा डंडा) युग (जुआ), रथवहन (कड़ौची, जिसके सहारे रथ खड़ा किया जाता था या जिस पर रथ सहारते थे); रथमुख (रथ के सामने का खुला भाग)। भारी बोझ ढ़ोने की गाड़ी को अनस या शकटी कहते थे। इसे खींचने वाले तगड़े बैल अनड्वान कहे जाते थे।

शतपथ ब्राम्हण में कहा है काम्यक वन के गृहपति अयस्थूण वाले घरों में रहते थे। अयस्थूण का तात्पर्य ताम्बे की पच्चीकारी से युक्त लकड़ी के खंभे ज्ञात होता है। संभव है लकड़ी पर तांंबे की पतली चादर या खोल चढ़ाने की प्रथा रही हो। लकड़ी के ऊंचे स्तंभ वास्तु या गृह निर्माण कला के सबसे प्रभावी अंग थे।

कुलमिलाकर काष्ठकला की भारतीय परम्परा इतनी समुन्नत रही कि आगे चलकर यह अन्य कलाओं की पूर्वपीठिका बन गई।

                                                                                                                                                                                  प्रो.  त्रिभुवननाथ शुक्ल 

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