आवाज की दुनिया के दोस्तों…

ऑर्केस्ट्रा से लेकर कॉन्सर्ट तक संगीत की महफिलों ने पिछले कई दशकों से लोगों का मनोरंजन किया है। जमाना बदला, वाद्य बदले, गाने के अंदाज बदले……नहीं बदला तो बस संगीत से लोगों का प्रेम। ये बढ़ता रहा और बढ़ता ही रहेगा।

जी हां बहनों और भाईयों रेडिओ पर अमीन सयानी साहब की आवाज गूंजी और इस आवाज से प्रेरित होकर आगे सैंकड़ो अमीन सयानी धूम मचाने के लिए तैयार हो गए। रेडिओ पर उनकी आवाज की नकल करते हुए कई अनाऊंसर आए और मंच पर संगीत कार्यक्रमों के जरिए भी सयानी साहब के अंदाज में ही लोग बोलने लगे। खैर अभी बात न सयानी साहब की है न ही हमारा विषय ‘अनाऊंसमेट’ है हमारा विषय तो अनाऊंसमेंट के साथ रंगीन होती संगीत महफिलों की आज तक की यात्रा है।

फिल्मों का हमारे समाज पर हमेशा ही जबरदस्त प्रभाव रहा। जो कुछ सिनेमा के परदे पर दिखायी देता है लोग उनमें से कई पसंदीदा चीजों को हकीकत में उतारने का प्रयास करते हैं। फैशन से लेकर रहन सहन तक। कुछ लोग फिल्मी सितारों की तरह चलने बोलने की कोशिश करते हैं और समाज उन्हें ‘फिल्मी’ कहकर हंसी मजाक के पात्र भी बना देते हैं। फिल्म संगीत की दिवानगी के बारे में क्या कहने? ‘कुंदनलाल सहगल’ से लेकर आज ‘अरिजीत सिंग’ तक ‘नौशाद’ से लेकर ‘प्रीतम’ तक सैंकड़ों कलाकारों के अनगिनत चाहनेवाले घर-घर में मिल जाएंगे। गली-नुक्कड़ पर दोस्तों-यारों की टोली अपने पसंदीदा कलाकारों के बारे में चर्चा करती हुई दिखाई देगी या दोस्त-यारों के जमावड़े में कई रफी-किशोर-मुकेश गीत गाते हुए नज़र आएंगे।

पहले भी इसी तरह कोई वादन में अपना कमाल दिखाते हुए तो कोई नृत्य के हुनर से लोगों से बधाईयां प्राप्त करता था। इनमें से ठीक-ठाक गाने-बजाने वाले या ठुमके लगाने वालों का हौसला उनकी दोस्त मंडली बढाती रहीं। धीरे-धीरे ऐसे कलाकार अपने ‘टैलेन्ट’ को लोगों के सामने लाने के लिए किसी मंच या महफिल की तलाश में निकल पड़े। समय के साथ एक समान रूची रखने वाले लोग जुड़ गए और शुरू हुआ दौर ‘ऑर्केस्ट्रा’ का।

उस समय के मशहूर पार्श्वगायक भी कभी-कभार किसी बड़े समारोह में या बड़ी संगीत महफिलों में अपने गीत गाते थे। अक्सर ऐसे ‘प्रोग्राम्स’ ‘फंड रेजिंग प्रोग्राम’ हुआ करते थे। गाने बजाने वाले भी मशहूर होते थे और दर्शकों में बैठे लोगों में भी कई जाने-पहचाने फिल्मी सितारे या अलग-अलग क्षेत्र के बड़ेे लोग होते थे। बड़े सितारों के ऐसे कार्यक्रमों को देखकर संगीत में रूचि रखनेवाले नए कलाकारों को प्रेरणा मिली। आसपड़ोस के या जान पहचान के कलाकार अपनी अपनी टीम बनाने लगे और जहां संभव हो वहां पर संगीत के कार्यक्रम करने लगे। आप में से भी कईयों को याद होगा वो दौर ‘महेश कुमार एन्ड पार्टी’, ‘मेलडी मेकर्स’ तथा प्रमिला दातार के ‘सुनहरी यादें’ जैसे संगीत कार्यक्रमों का। उस समय रंगमंच पर प्रस्तुत होनेवाली संगीत महफिलों के ये ‘स्टार’ कलाकार थे। मशहूर फिल्मों के मशहूर कलाकारों के मशहूर गीत गाकर खुद मशहूर होने की तमन्ना लेकर आहिस्ता-आहिस्ता कई और कलाकार इस श्रृंखला से जुड़ गए और ‘ऑर्केस्ट्रा’ मनोरंजन की दुनिया में लोगों की पसंद बनता चला गया।

बड़े कलाकारों को बुलाने पर ज्यादा पैसे खर्च होते थे इसलिए विकल्प के रूप में ऐसे कलाकारों को काम मिलने लगा जो नए जरूर थे परंतु प्रतिभाशाली थे, अपनी प्रतिभा दिखाना भी चाहते थे और उनकी पैसों की मांग भी ज्यादा नहीं होती थी। फिर क्या था, कभी किसी प्रोग्राम में हमें कोई ‘व्हॉईस ऑफ रफी’ मिलने लगा तो कभी ‘व्हॉईस ऑफ किशोर’ तो कोई मुकेश के गीत गाकर लोगों का मनोरंजन करने लगा। लता-आशा के गीत गाने वाली गायिकाएं भी पीछे नहीं थी। इस तरह अच्छा गाने बजाने वालों के लिए एक नया रास्ता खुल गया। उन्हें नई मंजिल मिल गई। कुछ लोग अपना नौकरी-धंधा संभालकर इस क्षेत्र में आते और जैसा समय मिलता गाने बजाने की महफिलों में शामिल होते तो कुछ ने अपनी पूरी जिंदगी यहां झोंक दी। हर किसी को अपनी अपनी योग्यता और काबिलियत के अनुसार काम मिलने लगा।

शुरू में ‘ऑकेस्ट्रा’ कम थे, इससे जुड़े कलाकार भी कम थे, इसलिए जो कलाकार अच्छा गाते बजाते थे, उन्हें सम्मान भी मिलता था और लोकप्रियता भी मिल जाती थी। देखते-देखते ‘ऑकेस्ट्रा’ का चलन बढ़ने लगा। गणेशोत्सव हो या नवरात्री गली-गली, रास्तों-चौराहों पर संगीत प्रेमियों की भीड़ लगने लगी और उनके सामने छोटी-बड़ी महफिलें सजने लगीं। जहां छोटी महफिलों में दो गायक और चार पांच वादक कलाकार भी दो ढाई घंटों की महफिलों में रंग भरने लगे वहीं किसी महफिल में पंद्रह- बीस-पैंतीस कलाकार भी शामिल होने लगे और लोग हर प्रकार की महफिल का मजा उठाने लगे।

ऐसा नहीं की गीत संगीत के कार्यक्रम सिर्फ किसी थिएटर या खुले मंच पर ही होते थे। कुछ गायक वादक बड़े होटल्स में आए हुए ग्राहकों का मनोरंजन करने के लिए वहां भी पहुंच गए। रात-रात भर जागकर ग्राहकों की फर्माइश पर गीत पेश करते रहे। अपनी कला को कहीं भी पेश करने की खुशी कहिए, जरूरत कहिए या मजबूरी पर गाने बजाने के लिए ये भी एक जगह कलाकारों को जरूर मिली, जहां से कई कलाकार फिल्मी पार्श्वगायन की दुनिया तक पहुंच गए।  बड़े होटल्स में अपनी कला को पेश करने के लिए हमारे देश से कई कलाकार विदेशों में भी जाते रहे हैं। वहां कम समय में अधिक कमाई के मौके मिलते हैं और जरूरतमंद कलाकारों की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। साल के छह महीने विदेशों में और छह महीने अपने देश में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले कई कलाकार हैं।

संगीत कार्यक्रमों ने फिल्मों को, फिल्म संगीत की दुनिया को कई कलाकार दिए फिर वे चाहे वादक हों, गायक हों या हास्य कलाकार। नाम तो कई हैं पर प्रमुखता से लिए जानेवाले दो नाम हैं ‘जॉनी लिवर’ और ‘सुदेश भोसले’। इन दोनों ने अपने करिअर की शुरूआत संगीत के मंच से ही की। दोनों की शानदार प्रस्तुतियों से हर महफिल को चार चांद लग जाते थे। ‘जॉनी लिवर’ की कॉमेडी से लोग हंस-हंस कर लोटपोट हो जाते थे। उन्हें यहां इतनी लोकप्रियता मिली की आगे फिल्मों में प्रवेश करने के लिए उनका रास्ता आसान हो गया। कुछ ऐसा ही करिअर राजू श्रीवास्तव का भी रहा। सुदेश भोसले एक अच्छे गायक और कॉमेडी आर्टिस्ट के रूप में विख्यात हैं। ‘मेलडी मेकर्स’ जैसे संगीत कार्यक्रमों से वे दर्शकों के सामने आते रहे और गायन तथा कॉमेडी से धूम मचाते रहे। मशहूर कलाकारों की आवाजें अपने गले से पेश करनेवाले सुदेश भोसले आगे महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज बन गए और मंच का यह कलाकार फिल्म संगीत की दुनिया में भी छा गया एक सफल पार्श्वगायक के रूप में।

आखिर फिल्मी दुनिया का आकर्षण हर कलाकार को होता है मंच पर कार्यक्रम प्रस्तुत करते समय उसका सपना यही होता है कि एक ना एक दिन उसे फिल्मों के लिए कोई मौका मिल जाए। किसी का सपना पूरा होता है तो किसी के लिए सपने सपने ही रह जाते हैं। कई बार फिल्मों के कलाकारों ने भी मंच पर आकर एक लंबी पारी खेली और अपनी लोकप्रियता का यहां खूब इस्तेमाल किया।

अब टेलीविजन चौबीस घंटे दर्शकों के मनोरंजन के लिए अखाड़े में उतरा था। संगीत कार्यक्रमों के कलाकारों को अब उड़ने के लिए जैसे खुला आसमान ही मिल गया। ढेरों चैनल्स और वहां दिन-रात पेश होनेवाले संगीत कार्यक्रम। टीवी के जरिए पहचान भी मिलने लगी, नाम भी होता रहा और लक्ष्मी की कृपा भी होने लगी। छोटे बच्चों से लेकर बड़े बुजुर्गों तक हर कलाकार को कहीं ना कहीं कभी ना कभी अपनी प्रतिभा को साबित करने के मौके टीवी ने दिए और कईयों का करिअर बन गया।

आज संगीत कार्यक्रमों में पहले के मुकाबले कई अधिक संभावनाएं हैं। अच्छी खासी नौकरी छोड़कर संगीत में ही फुलटाईम करिअर करनेवाले कलाकार भी मिल जाएंगे। कड़े संघर्ष, साधना, रियाज और मेहनत के बाद कई कलाकारों ने अपना ऐसा नाम बना लिया है कि आज उनके नाम पर थिएटर के बाहर ‘हाऊसफुल’ के बोर्ड लग जाते हैं। उनके गीतों पर संगीतप्रेमी झूम उठते हैं, साथ-साथ गाते हैं, जिंदगी के मज़े उठाते हैं।

अक्सर जो वाद्य अर्थात म्युजिकल इंस्ट्रूमेंट इन महफिलों में बजाए जाते हैं, उनमें प्रमुख हैं- हार्मोनियम, ऑर्गन की-बोर्ड, गिटार, मेंडोलिन, ट्रम्पेट, सॅक्सोफोन, बांसुरी, ऑक्टोपॅड, हैंन्डसोनिक, ढोलक-ढोलकी और तबला। साज और आवाज़ का सुरीला संगम होता है और महफिल यादगार बन जाती है। कभी सोलो तो कभी ड्युएट और कभी कोरस के गाने महफिल में रंग भर देते हैं।

कई गायक कलाकार ऐसे हैं जो अपने गीतों में खासकर ड्युएटस् में अभिनय के भी ऐसे रंग भर देते हैं की दर्शक भी उनकी जमकर सराहना करते हैं और ‘वन्स मोअर’ की आवाज देकर कलाकारों का सम्मान करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं की यह ‘वन्स मोअर’ की आवाज सुनकर कलाकार भी धन्य हो जाता है। उसकी मेहनत यहां सफल हो जाती है।

इन संगीत कार्यक्रमों के कारण आज कई कलाकार पूरी दुनिया की सैर कर रहे हैं। खासकर हिंदी फिल्मी गीत या गजलों के दीवाने आपको दुनिया के हर कोने में मिल जाएंगे। उनके मनोरंजन के लिए अपने देश से कई छोटे-बड़े कलाकर विदेशों में जाते-आते रहते हैं। इस तरह उन्हें प्रसिद्धी भी मिलती है और खूब पैसा भी। ऐसी संगीत यात्राओं को कलाकार भी बहुत पसंद करते हैं। इस बहाने गांव-गांव, शहर-शहर घूमने का मौका भी उन्हें मिलता है।

मनोरंजन का माहौल हर जगह अलग-अलग होता है। उसे ध्यान में रखकर सुननेवालों की पसंद के अनुसार कार्यक्रम पेश करने पर कलाकारों को खूब सराहा जाता है। ऐसी यात्राओं की मेरी भी कई मज़ेदार यादें हैं। किसी गांव में एक प्रोग्राम के लिए चार पांच गाडियों से कलाकार निकले। लेकिन दिनभर के सफर के बाद यहां-वहां घूमकर भी वो गांव हमें मिला ही नहीं। आज की तरह ना ही उस समय मोबाईल थे, ना ही रास्ता दिखानेवाला मैप। वादक, गायक सब हमारी गाड़ी में थे, उनके बिना प्रोग्राम भी कैसे होता? आखिर रात को एक जगह पर रुककर खाना खाकर हम मुंबई लौट आए। उस रात ‘गाने’ का नहीं  सिर्फ ‘खाने’ का कार्यक्रम ही कर पाए। एक ऐसे ही कार्यक्रम के लिए पहुंचना था शाम छह सात बजे लेकिन पहुंचे रात बारा बजे। पर संगीत और कला के प्रति दर्शकों की दिवानगी ये थी कि वे रुके रहे और आखिरकार रात एक बजे महफिल शुरू होकर रात तीन-साढ़े तीन बजे तक चलती रही। ऐसी कई यादें हैं।

बदलते वक्त ने कुछ गायक कलाकारों का काम और भी आसान कर दिया है। अब उन्हें हर बार कार्यक्रम पेश करने के लिए वादक कलाकारों को साथ ले चलने की जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकी अब ‘कराओके ट्रैक’ आसानी से मिल जाते हैं। बस महफिल को जितनी जरूरत है, उतने ट्रैक साथ लेकर दो-तीन गायक अपनी साऊंड सिस्टम लेकर चल पडते हैं और ‘म्युजिकल ट्रैक’ शो से लोगों का खूब मनोरंजन करते हैं। लेकिन यहां एक बात स्पष्ट रूप से बताने की जरूरत है कि वादकों के साथ संगीत के कार्यक्रमों का जो मजा है वो ‘कराओके ट्रेक’ में कम मिलता है। इतना ही नहीं ऐसे ट्रॅक्स सहजता से उपलब्ध होने के कारण अब कई बेसुरे भी बहती गंगा में हाथ धोने लगे हैं। खैर….

आखिर संगीत हर इंसान की भावना से जुड़ा है। सुख हो या दुख जो चाहे, जब चाहे अपने इसके साथ हो सकता है, कभी सुनकर तो कभी गाकर-गुनगुनाकर।

संगीत का ये साथ लोग हर खुशी के मौके पर चाहते हैं। बच्चे का जन्म होने की खुशी पर, उसके पहले जन्मदिन पर, सगाई-शादी में संगीत कार्यक्रमों की धूम मची रहती है। ‘वेडिंग शो’ में भी सम्मान के साथ गायक-वादक कलाकारों को बुलाया जाता है। एक ओर दुल्हा दुल्हन को परिवारजन और दोस्त-यार आशिर्वाद देने चले आते हैं तो दूसरी ओर किसी सजे हुए मंच पर कलाकार प्यार भरे गीतों से उस समारोह को चार चांद लगा देते हैं।

ना सिर्फ खुशी के मौके पर वरन कई बार घर के किसी सदस्य की मृत्यु के पश्चात उनकी यादों में परिवार जन एकसाथ आते हैं तब ‘भजन या भक्तिगीत’ गाने के लिए भी कलाकारों को बुलाया जाता है। शांत धीमे स्वर में गाई भक्ति रचनाओं के साथ मृतात्मा को श्रध्दांजलि अर्पित की जाती है। संगीत के इस प्रभाव से राजनीतिक कार्यक्रम भी नहीं छूटते। जब किसी बड़े मैदान में बड़े राजनैतिक नेता या पार्टी की सभा होती है तब सभा शुरू होने से पहले उमड़ी भीड़ का मनोरंजन करने के लिए भी संगीत कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। कई बार प्रमुख नेता आने में देर हो जाती है तब तक उपस्थित कार्यकर्ता और लोगों के मनोरंजन की जिम्मेदारी संगीत कार्यक्रमों के कलाकारों की ही होती है और अक्सर ये काम कलाकार बखूबी निभाते हैं।

तो ये रहा है करिश्मा संगीत का और संगीत की महफिलों का। बदलते समय के साथ अब इसके भव्य ‘इवेंट और कॉन्सर्ट’ होते हैं। बड़ी-बड़ी एलईडी स्क्रीन के साथ चकाचौंध रौशनी से जगमगाते स्टेज पर तगड़े साऊंड के साथ आकर्षक पोशाकें पहनकर कलाकार सामने आते हैं और नए-पुराने गीत पेश करते हैं।

‘दिवाळी पहाट’ जैसे कार्यक्रम, गणेशोत्सव, नवरात्री की धूम, होली के रंग, इत्यादि…. जहां उत्सव है वहां संगीत के कार्यक्रम हैं, संगीत है। और जहां संगीत है वहां उल्लास है, खुशी है, आनंद है। जिंदगी की बढती परेशानियों और भागदौड़ के बीच संगीत हमारा साथ दे रहा है। दो-ढाई घंटों की संगीत महफिलों को देखने के लिए लोग करीबी थिएटर की ओर दौड़ पड़ते है और कुछ समय के लिए अपनी सारी परेशानियां भूल जाते हैं। साथ में गाते हैं, गुनगुनाते हैं, झूमते हैं। समय बदला, संगीत कार्यक्रमों का रूप-रंग भी समय के साथ जरूर बदला। कायम है तो बस लोगों का मनोरंजन, समस्या-चिंताओं से उन्हें दूर ले जाकर उन्हें मस्ती के रंग से भिगोना और कहना ‘गाए जा… गाए जा और मुस्कुराए जा। ’

                                                                                                                                                                                          – मंदार खराडे 

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