…के दिल अभी भरा नहीं

भारतीय घरों में बच्चे के जन्म से ही उसका नाता परिवार के सदस्यों के साथ-साथ हिंदी फिल्मी संगीत से भी जुड़ जाता है। लोरी, भजन, तीज-त्यौहार गाने, रोमांटिक और दर्द भरे गीतों से हमारे जीवन को संगीतमय करने वाले फिल्मी दुनिया से जुड़े सभी का आभार….।

पता नहीं यह प्रश्न लोगों के मन में क्यों उठता है कि भारतीय फिल्मों में ही गाने क्यों होते हैं, जबकि दुनिया के अन्य किसी भी देश में बनने वाली फिल्मों में गाने नहीं होते। जरा सोचिए अगर भारतीय मनुष्यों के जीवन से फिल्म संगीत हटा दिया जाए तो क्या होगा? हमारा जीवन तो बिलकुल ऐसा हो जाएगा जैसे बिना रंगों का इंद्रधनुष, बिना चाशनी के गुलाब जामुन या बिना चार्जिंग का मोबाइल। जीवन में किसी का भी आभार न मानने वाला व्यक्ति भी भारतीय फिल्म संगीत, विशेषत: हिंदी फिल्म संगीत का आभार अवश्य मानता होगा, इतना प्रभावी है हिंदी फिल्म संगीत। जिस तरह हम अनजाने में सांस लेते रहते हैं और किसी का धन्यवाद नहीं कहते, उसी तरह हम हिंदी फिल्म संगीत का भी धन्यवाद नहीं करते, परंतु वह तो हमारी रग-रग में बसा है।

जरा भारतीय घरों की सुबह की कल्पना कीजिए। घर में कोई न कोई ‘सत्यं-शिवम-सुंदरम’, ‘अल्ला तेरो नाम’, ‘शिरडी वाले साईं बाबा’, ‘कान्हा आन पडी मैं तेरे द्वार’, ‘तूने मुझे बुलाया शेरावालिए’, ‘ज्योति कलश छलके’ जरूर बजाता मिलेगा। ये और इसके जैसे कई अन्य भजन बचपन से हमारे जीवन में भक्ति भाव जाग्रत कर रहे हैं।

समय के साथ हिंदी फिल्म संगीत तो बदला ही, उसे हम तक पहुंचाने के माध्यम भी बदले। शुरू में ग्रामोफोन से बडे गुलामअली साहब की आवाज के साथ-साथ के.एल.सहगल, लता-आशा, मुकेश-रफी, गीता दत्त, सुरैया बेगम आदि को भी सुना जाता था। फिर फैशन आया रेडियो-ट्रांजिस्टर का। रेडियो पर भले ही ‘बाबू समझो इशारे हॉरन पुकारे’ बज रहा हो पर उस डब्बे को कान से सटाए कुछ नमूने अपनी ही धुन पर ऐसे चलते थे, मानों रास्ते पर उनके अलावा कोई न हो। रेडियो पर जब भी आवाज की दुनिया के दोस्तों….. सुनाई देता लोगों में अलग तरह का रोमांच भर जाता था। टीवी के आने के बाद तो फिल्म संगीत की दुनिया ही बदल गई। दूरदर्शन के चित्रहार और रंगोली जैसे कार्यक्रमों की सप्ताह भर प्रतीक्षा होती रहती थी। इन कार्यक्रमों ने भी अपने दर्शकों की नस पहचान रखी थी। तीज-त्योहारों के आते ही उनसे जुडे फिल्मी गानों का विशेष कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता। दीपावली के दिनों में ‘दीपावली मनाएं सुहानी, मेरे साईं के हाथों में जादू का पानी’ या ‘मेले हैं चिरागों के रंगीन दिवाली है’ जैसे गाने दिखाए जाते थे। होली के आस-पास ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली’, ‘होली के दिन दिल मिल जाते हैं’ या ‘जोगी जी सारारारा’…..दिखाई दे जाता था। इसी तरह रक्षाबंधन पर ‘भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना’, नवरात्रि में ‘हे नाम रे.. सबसे बडा तेरा नाम’, गणेशोत्सव में ‘देवा हो देवा गणपति देवा’ बजना तो लाजमी ही होता था। आज भले ही जमाना डीजे का हो परंतु गाने यही बजते हैं। उन गानों की सूचि में अब बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी या होली खेले रघुवीरा अवध में भी शामिल हो गया है।

फिल्मी तरानों को जब मन चाहे, जो मन चाहे, जहां मन चाहे सुनने की आजादी कैसेट ने दे दी। टेप रिकॉर्डर, वॉकमैन धीरे-धीरे आम होने लगे। अब चुंकि इनके रिबन पर कुछ ही गाने समा पाते थे, तो लोगों ने अपनी पसंद की प्ले लिस्ट बनाकर उसे ‘भरवाना’ शुरू कर दिया। ऑडियो कैसेट की दुकानों पर किसी एक फिल्म की पूरी कैसेट लेने से ज्यादा ग्राहकों की भीड अपनी पसंद के गाने ‘भरवाने’ के लिए होती थी। कोई संगीतकार के हिसाब से गाने भरवाता तो कोई गायक-गायिका के हिसाब से तो कोई मूड के हिसाब से। सबकी अपनी-अपनी प्ले-लिस्ट होती थी। ये शौक सीडी आने के बाद भी चलता रहा। अब तो पेनड्राइव का जमाना है और मोबाइल में भी दुनिया भर के एप हैं, जिनमें बनी बनाई प्ले लिस्ट मिल जाती है। लेकिन वो कैसेट भरवाने का मजा कुछ और ही था।

एक किस्सा याद आता जब एक बार मैंने लता मंगेशकर के गाए ‘गुमनाम है कोई’, ‘झूम-झूम ढ़लती रात’, ‘आएगा आने वाला’, ‘मेरा साया साथ होगा’, जैसे कुछ गाने भरवाने के लिए दिए थे। कैसेट भरवाने वाले ने जब मुझे वो कैसेट भरकर दी तो पूछा “आपने इतने सारे ‘भूतहा’ गाने क्यों भरवाए हैं?” उसका प्रश्न सुनकर मुझे हंसी जरूर आ गई थी, परंतु उसके प्रश्न का ‘मुझे पसंद है’ से अधिक उत्तर मैं नहीं दे सकी थी। आज यूट्यूब पर लता मंगेशकर हॉन्टेड सॉन्ग के नाम से यही सारे गाने बजते मिलेंगे। ये ‘पसंद’ ही वह चीज है जो आपके मूड के हिसाब से बदलती रहती है। आपके मन में जब जिन भावों का संचार होता है, उस समय वैसे गाने आपको ‘पसंद’ आते हैं। समय के साथ फिल्मी गानों की ‘चॉइस’ बदलती है पर मन के भाव तो वैसे ही रहते हैं।

प्रेम, रोमांस ऐसा ही एक स्थाई भाव है। चाहे जमाना कोई भी हो न प्रेम बदला न उसे प्रदर्शित करने का तरीका। समय के साथ प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए गानों का चुनाव बदला परंतु प्रदर्शन वही रहा। प्यार में डूबा कोई युगल ‘कभी आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम’ गाता है तो ‘कभी देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’ गाता है। कभी नायक को लगता है ‘चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था’ या कभी वह सोचता है ‘तुम मिले दिल खिले और जीने को क्या चाहिए’। कभी प्रेमिका की तारीफ में वो ‘ये चांद सा रौशन चेहरा जुल्फों का रंग सुनहरा’ गाता है तो कभी प्रेमिका ‘तन भी सुंदर मन भी सुंदर तू सुंदरता की मूरत है’ गाती है। जब प्रेमिका का घर पास हो और आतेजाते उसका दीदार होता रहे तो प्रेमी गाता है ‘घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही रस्ते में उसका घर’ और प्रेमी से मिलने के बाद जब प्रेमिका घर जाने के लिए निकलती है तो गाती है ‘दिन सारा गुजारा तोरे अंगना, अब जाने दो मुझे मेरे सजना…..।’

प्रेमी प्रेमिका को एक दूसरे से शिकायतें भी बहुत होती हैं। कभी प्रेमी गाता है ‘हमसे तो अच्छी तेरी पायल है गोरी जो बार-बार तेरा बदन चूमे’……और प्रेमिका गाती है ‘हाय-हाय ये मजबूरी ये मौसम और ये दूरी’।

बारिश या सावन प्रेमियों का पसंदीदा मौसम है। एक छाते में आधे गीले आधे सूखे प्रेमी युगल कभी ‘रिमझिम गिरे सावन गाते हैं’, कभी ‘प्यार हुआ इकरार हुआ है’ गाते हैं, कभी ‘आज रपट जाएं तो’ गाते हैं, तो कभी ‘सावन बरसे तरसे दिल’ गाते हैं। अपने समय का ‘हिट’ और ‘हॉट’ गाना ‘भीगी-भीगी रातों में’ आज भी लोगों का पसंदीदा गाना है। इसके आज तक कितनी ही बार रीमिक्स बन चुके हैं। साउंड ट्रैक के साथ कुछ परिवर्तन करके पुन: श्रोताओं के सामने परोसते ही श्रोता उसे सर आंखों पर उठा लेते हैं। नवरात्रि में गरबा खेलने के लिए भी यह गाना बजाया जाता है।

इस एक गाने का इतना ‘ऑपरेशन’ इसलिए किया जिससे यह पता चल सके कि संगीतकार के गाने बनाने का उद्देश्य या उसके पीछे की भावना जो हो, श्रोता या दर्शक उसे अपने अनुरूप ढ़ालकर उसका उपयोग कर लेते हैं।

हालांकि हमारे संगीतकारों ने हर दशक में श्रोताओं को कुछ अलग देने का प्रयास किया। शंकर-जयकिशन मैलोडी किंग कहलाए। उनके द्वारा स्वरबद्ध और हेमंत कुमार-लता मंगेशकर की आवाज वाला गाना ‘याद किया दिल ने कहां हो तुम’ गीत आज भी दिल को अलग सुकून पहुंचाता है। ‘ये रात भी-भीगी’, ‘अजीब दासतां है ये’, ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’ जैसे गाने उनको मैलोडी किंग क्यों कहा जाता है, इसके सशक्त प्रमाण हैं। लेकिन उन्होंने इतने सीधे-साधे ही गाने नहीं बनाए। बर्फ पर कूदते-फांदते-फिसलते शम्मी कपूर के लिए उन्होंने ‘याहू…….चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ भी बनाया था। जरा सोचिए….शांत, मधुर, रोमांटिक आवाज वाले मोहम्मद रफी को इस गाने के लिए कितना चिल्लाना पडा होगा।

ये कहर उनपर आर.डी. बर्मन ने भी बरपाया उनसे ‘यम्मा यम्मा, ये खूबसूरत समां..’ गवाकर। भारतीय संगीत में पाश्चात्य संगीत मिला कर फ्यूजन तैयार करनेवाले पंचम दा हमेशा ‘एक्सपेरिमेंट’ करते रहते थे। आपको शोले याद है? कैसे नहीं होगी? फिर तो डाकू गब्बर सिंग के सामने ‘महबूबा….महबूबा, गुलशन में गुल खिलते हैं’ गाकर नाचने वाली हेलन और जलाल आगा भी याद होंगे। बंजारों पर फिल्माए गए गीतों को पसंद करने वाला भी एक विशेष वर्ग है। ‘महबूबा-महबूबा’, ‘दिलबर दिल से प्यारे दिलबर’ जैसे ‘बंजारा स्टाइल’ के गाने देने का श्रेय आर.डी. बर्मन को जाता है।

ओ.पी.नैयर ने घोडे की टापों को संगीत में ढ़ाला और उस समय ‘फीमेल प्लेबैक सिंगर’ का पर्याय बन चुकी लता मंगेशकर के साथ काम किए बिना भी एक से बढ़ कर एक गाने दिए। ‘मांग के साथ तुम्हारा’, ‘पिया-पिया-पिया मोरा जिया पुकारे’, ‘यूं तो हमने लाख हंसीं देखे हैं’, जैसे गाने देकर ओ.पी.नैयर हमेशा के लिए लोगों के मन में बस गए।

अब तो संगीतकारों की बाढ़ सी आ गई है। पहले के ‘एक फिल्म एक संगीतकार’ के चलन को तोड कर आजकल एक ही फिल्म के अलग-अलग गाने अलग-अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध किए जा रहे हैं। इसलिए किसी फिल्म के सारे गाने हिट होने का श्रेय किसी एक संगीतकार को नहीं मिलता या कोई धुन किसी एक संगीतकार की सिग्नेचर ट्यून नहीं बन पाती। पर इसका ये मतलब कतई नहीं है कि आज के गानों से मेलोडी खतम हो गई।

शंकर-एहसान-लॉय द्वारा संगीतबद्ध ‘कल हो न हो’, ‘जाने क्यों लोग प्यार करते हैं’, ‘गल्लागूडियां’, ‘कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नैना’, ‘मन मस्त मगन’ जैसे गीतों को जहां युवाओं ने अपने सिर आंखों पर बिठाया वहीं विशाल-शेखर के ‘दिल दिया गल्लां’, ‘जग घुमया’, गाने भी खूब पसंद किए गए।

कहते हैं सच्चा संगीत वो है जो आपके चले जाने के बाद भी लोगों को याद रहे। वीर-जारा के गीतों को मदन मोहन ने बनाया जरूर था लेकिन जब तक वे जीवित रहे तब तक उन गीतों को किसी फिल्म में नहीं लिया गया था। मदन मोहन के संगीत ने तो उनकी मृत्यु के बाद वीर-जारा को भी अमर कर दिया। ‘लग जा गले’, ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां’, ‘तेरी आंखों के सिवा’ जैसे गीतों को सुरीली धुन देने वाले मदन मोहन को भुलाना आसान नहीं है।

मदन मोहन का ही संगीतबद्ध एक गीत है ‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए’। सलमा आगा का गाया हुआ और उन्हीं पर चित्रित यह गीत दर्द, उदासी बेचैनी को बयां करता है। प्यार और रोमान्स की तरह ही दुख और दर्द भी जीवन के अभिन्न अंग हैं। इसलिए ‘दर्द भरे नगमें’ फिल्मी गानों का अहम हिस्सा रहे हैं। गायक मुकेश को तो दर्द भरे गीतों के लिए ही अधिक याद किया जाता है। महबूबा की याद में तडपने वाले महबूब के दर्द को मुकेश ने ‘सारंगा तेरी याद में’, ‘मैं तो एक ख्वाब हूं’, ‘मुझको इस रात की तनहाई में’, ‘ये मेरा दीवानापन है’, ‘वफा जिनसे की बेवफा हो गए’ जैसे गानों में बखूबी उतारा था। हालांकि दर्द केवल महबूबा के दूर जाने से ही नहीं होता। छोटी बहन फिल्म में अपनी छोटी बहन (नंदा) के साथ बदसलूकी करने वाले बडे भाई (रहमान) को जब पछतावा होता है तो वो गाता है ‘जाऊं कहां बता ऐ दिल..’। अपना पूरा जीवन तबाह हो जाने के दर्द में जब एक रुदाली सच्चा गीत गाती है तो उसकी कसक ‘दिल हूम-हूम करे’ जैसे गीत में महसूस होती है। एक मासूम बच्चे को जब अपने पिता, अपनी सौतेली मां और बहनों के बारे में पता चलता है तो उसके मन में कई सवाल उठने लगते हैं जिनका जवाब बडों के पास भी नहीं होता और तब गाना बनता है ‘तुझसे नाराज नहीं जिंदगी हैरान हूं मैं…’।

आज जीवन की रफ्तार इतनी तेज है शायद इसलिए या फिर भावनाओं का गुबार जल्दी शांत हो जाता है इसलिए दर्द भरे नगमें भी उतने दर्द नहीं देते। आज का नायक नायिका से बिछडते समय भी मुस्कुराते हुए ‘अच्छा चलता हूं, दुआओं में याद रखना गाता है’ या सीधे ‘अब रोता नहीं ये दिल’ कह देता है। खैर दर्द तो है उसे दिखाने का तरीका भले ही बदल गया हो।

आज जो पीढ़ी 40-50 साल की उम्र में है उनके लिए सन 80-90 के दशक के गानों का क्रेज अभी भी उतना बरकरार है। ये वो पीढ़ी है जिसने संगीत सुनने के लिए कैसेट से लेकर आज के एप सभी का प्रयोग किया है। अपने जमाने में कमरे के हर कोने में स्पीकर और जमीन पर वूफर लगाकर फुल साउंड में गाने सुनने के लिए भी माता-पिता की जोरदार डांट खाई है और इयरफोन लगाकर जगजीत की गजलों में खो जाने के लिए भी।

इनका दिल धक-धक गर्ल माधुरी के लिए भी धडकता था और प्यारी हंसी वाली जूही चावला के लिए भी। आशिकी, तेजाब, मि. इंडिया, हिना, लाल दुपट्टा मलमल का, फिर तेरी कहानी याद आई, साजन जैसी फिल्मों के गाने सुनते-सुनते बडी हुई यह पीढ़ी आज ‘ये मोह मोह के धागे’, ‘मैं तेनु समझावां कि’, ‘जिया लागे ना तुम बिन मोरा‘, ‘तू ही तो मेरी स्वीटहार्ट है’, ‘तू है तो मुझे फिर और क्या चाहिए’ जैसे गानों को भी खूब पसंद करती है।

हिंदी फिल्म संगीत ने अभी तक जितने ‘एक्सपेरिमेंट’ देखे होंगे उतने शायद ही किसी ने देखे हों। ये ‘एक्सपेरिमेंट’ कभी वाद्यों के साथ हुए कभी धुनों के साथ तो कभी आवाज के साथ भी। चांदी की घंटी की तरह बजनेवाली पतली और मधुर अवाज वाली लता मंगेशकर की आवाज को जब लोग पसंद कर रहे थे तभी तुलनात्मक रूप से काफी मोटी और गहरी आवाज वाली सलमा आगा को लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया। आज भी जहां श्रेया घोषाल जैसी मधुर आवाज को लोग चाहते हैं तो सुनिधि चौहान के गानों पर भी थिरकते हैं।

कुल मिलाकर बात यह है कि इस ‘वैरायटी’ के कारण ही हिंदी फिल्म संगीत ने दशकों से भारतीय दर्शकों-श्रोताओं को अपने से जोडे रखा है। यह एक ऐसा सागर है जिसमें हर किसी के लिए मोती है। जरूरत है बस अपने मोती को ढूंढ़ने की। जो जितनी गहराई में जाता है, उसको उतने मोती मिलते जाते हैं। हिंदी फिल्मों के गानों ने मानव मन के हर मनोभाव की तार को छेडा है। अब ये तो हो नहीं सकता न कि कोई तार छेडे और सुर न निकले और जब सुर निकलने लगते हैं तो बस यही कहने का मन करता है ‘अभी न जाओ छोडकर, के दिल अभी भरा नहीं’।

 

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