स्पेशल इफेक्ट भी हो और कहानी भी

फिल्मे ‘आदिपुरुष’ स्पेशल इफेक्ट के सहारे चाहे जितने ‘ब्रह्मास्त्र’ चला लें परंतु अगर कहानी में दम नहीं होगा या उसे तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाएगा तो दर्शकों का प्यार पाना सम्भव नहीं हो पाएगा। हिंदी सिनेमा का दर्शक अभी भी कहानी का भूखा है, केवल स्पेशल इफेक्ट का नहीं।

भारत में सिनेमा मात्र मनोरंजन नहीं है। सिनेमा को दर्शक दीवानगी की हद तक प्यार करते हैं। दक्षिण में तो सिनेमा जन-जन में रचा बसा है। उनके सितारे उनके लिए किसी भगवान से कम नहीं हैं। यही स्थिति कमोबेश उत्तर भारत में भी है। सिनेमा के नायक अपने प्रशंसकों के दिलो-दिमाग पर छाये रहते हैं। हर सिने प्रेमी अपने नायक को सफल देखना चाहता है। वह चाहता है कि उसका नायक उसकी कल्पनाओं, ख्वाबों को रूपहले पर्दे पर साकार करे। वो अपने बारे में जैसा चाहता है, जैसे ख्वाब देखता है, उसके क्रोध, उसके प्रेम उसके सारे भावों को वो अपने नायक-नायिका के माध्यम से पर्दे पर साकार होते देखना चाहता है। शायद यही कारण है 120 वर्ष से भी अधिक का होने के बावजूद सिनेमा का प्रभाव कभी कम नहीं हुआ है।

भारत में सिनेमा अपने आरंभ से ही आम लोगो के बीच कौतुहल का विषय रहा है। लुमिएर ब्रदर्स ने जब पहली बार 7 जुलाई 1896 के दिन मुंबई के वाटसन होटल में चलते-फिरते चित्रों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया तो लोगों में एक रोमांच फैल गया। भारत में दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का प्रदर्शन 3 मई 1913 के दिन मुंबई के कोरोनेशन सिनेमा में हुआ था। तब से लेकर आज तक सिनेमा के महारथी सिनेमा को बेहतर बनाने के लिए नयी नयी खोज करते रहते हैं। उद्देश्य सिर्फ इतना की दर्शकों को मनोरंजन मिल सके। मूक फिल्मों को आवाज़ मिली। श्वेत-श्याम फिल्मों में रंग भरे गए। 35 एम.एम. से 70 एम.एम., सिनेमास्कोप, स्टीरियो साउंड से डिजिटल डॉल्बी साउंड जैसे अनेक अविष्कार सिनेमा को अधिक से अधिक मनोरंजक बनाने के लिए किए गए। इसमें से एक अविष्कार था स्पेशल इफेक्ट्स।

फिल्मों के प्रभाव को बढ़ाने के लिए उनमें नए रोमांच को जोड़ने के लिए स्पेशल इफेक्टस का इस्तेमाल किया जाने लगा। ऐसी ही एक विदेशी फिल्म ‘द इन्विसेबल मैन’ को देखकर भारत में भी फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट्स का सहारा लेने का प्रयास हुआ। इससे प्रभावित होकर 1937 में एक फिल्म बनी जिसका नाम था ‘ख्वाब की दुनिया’। इस फिल्म में एक काले धागे की सहायता से बाबू भाई मिस्त्री ने कई रोमांचकारी दृश्यों की रचना की। इस फिल्म की सफलता ने बाबू भाई को स्पेशल इफेक्टस के क्षेत्र में स्थापित कर दिया और उनके लिए एक नए नाम का प्रयोग किया जाने लगा ‘काला धागा’। बाबू भाई मिस्त्री को इस विधा का आदि पुरुष कहा जा सकता हैं। भारतीय सिनेमा में वर्ष 1937 में शुरु हुआ ये सफर निरंतर आगे बढ़ता रहा। समय के साथ नई नई तकनीकों से सिनेमा को समृद्ध बनाने का काम होता रहा।

टू डी फिल्मों ने थ्री डी फिल्मों में अपने को अपडेट किया लेकिन इन फिल्मों का रोमांच दर्शकों को लंबे समय तक प्रभावित नहीं कर सका। भारत में 1984 में प्रदर्शित ‘माई डियर कुट्टीचातन’ (हिंदी में छोटा चेतन), ‘शिवा का इंसाफ’, ‘सामरी’ आदि फिल्मों ने शुरुआत में तो दर्शकों को रोमांचित तो किया लेकिन बाद में कमजोर कथानक एवं बचकाने स्पेशल इफेक्टस ने इन फिल्मों से दर्शकों को दूर कर दिया। फिलहाल बड़ी फिल्मों के टू-डी प्रदर्शन के साथ सीमित संख्या में अपवाद स्वरुप उनका प्रदर्शन किया जाता है। हालांकि भारतीय सिनेमा की बड़ी हिट फिल्मों में गिनी जाने वाली शोले को भी हाल ही में थ्री डी में रिलीज किया गया लेकिन शोले बॉक्स ऑफिस पर इस नए अवतार में कोई आग नहीं लगा सकी।

पिछले कुछ वर्षों में जब से सिनेमा रील से डिजीटल हुआ है, सिनेमा में कल्पना को साकार करने के नए दरवाजे खुल गए हैं। कंम्पयूटर्स और नवीनतम ग्राफिक्स सॉप्टवेयर के सहारे विश्व सिनेमा में फिल्मों का रोमांच बढ़ाया गया। ‘अवतार’, ‘लॉर्ड ऑफ द रिंग्स’ (3भाग), ‘ग्रेविटी’, ‘द जंगल बुक’, ‘पाइरेट्स ऑफ द केरेबियन’, ‘लाइफ ऑफ पाई’, ‘ज्यूरासिक पार्क’ और ‘टाइटैनिक’ जैसी अनेक फिल्मों में स्पेशल इफेक्टस का प्रयोग किया गया जिन्हें दर्शकों का भी बेहद प्यार मिला। इनकी सफलता को देखते हुए भारत में भी विशेष तकनीक पर आधारित फिल्मों का निर्माण होना शुरु हुआ। ऋतिक रोशन की ‘कृष’ (दो भाग), दक्षिण में बनी ‘मगधीरा’, ‘ईगा’ (हिंदी में ‘मक्खी’), शाहरुख खान की ‘फैन’, ‘रा वन’, ‘धूम’ फ्रेंचाइजी , रजनीकांत की ‘रोबोट 2.0’, अजय देवगन की ‘शिवाय’, प्रभास की ‘बाहुबली’-एक एवं दो, मल्टी स्टारर ‘ब्रहमास्त्र’, प्रभास की ‘आदिपुरुष’ जैसी अनेक फिल्मों में स्पेशल ईफ्क्टस का सहारा लेकर दर्शकों को लुभाने का प्रयास किया। हालांकि ‘कृष’, ‘मक्खी’, ’धूम’, ‘रोबोट 2.0’, ‘बाहुबली’ को छोड़कर अन्य फिल्में अपना जादू बिखेरने में अधिक सफल नहीं हो पायी। आखिर इसकी वजह क्या थी… क्या स्पेशल ईफेक्टस का चमत्कार दर्शकों को नहीं भाया या फिर कुछ ओर वजह थी इनकी असफलता की।

अगर हम भारतीय परिपेक्ष्य में इनकी सफलता या असफलता के कारणों का अगर विश्लेषण करेंगे तो हमें मोटे तौर पर ये समझ में आ जायेगा कि जो फिल्में सफल हुई उनकी सफलता के मूल में कहीं ना कहीं अनके कथानक का भी बड़ा योगदान था। कहीं ना कहीं उनकी कहानी से दर्शकों ने अपने को जोड़ा और उसमें स्पेशल ईफेक्टस के समावेश ने उनके रोमांच को बढ़ाया। हम कह सकते हैं कि एक बार फिर दर्शकों को सिनेमा हॉल में खींचने में ये फिल्में सफल रही। ‘कृष’ के रूप में बच्चों को अपना सुपरमेन मिला। फिल्म के दोनों भागों ने सफलता का इतिहास रच दिया। यही स्थिति ‘बाहुबली’ की भी रही। एक काल्पनिक कहानी को विश्वसनीय बनाने में स्पेशल इफेक्ट्स का इस्तेमाल किया गया, उसके इर्द-गिर्द कहानी का ताना बाना बुना गया। प्रभावशाली संगीत, मुख्य पात्रों का अभिनय अगर हम यूं कहें कि कि सिनेमा के सभी पहलुओं का मिश्रण इस खूबसूरती से किया गया कि फिल्म के दोनों भागों ने सफलता के नए इतिहास रच दिए।

कहानी के प्रस्तुतिकरण साथ दर्शकों के ना जुड़ पाने के कारण जन-जन में लोकप्रिय राम कथा के फिल्मी रुपांतरण ‘आदिपुरुष’ की असफलता ने भी निर्माताओं को सीख दी है। शायद प्रचलित मान्यताओं के साथ प्रयोग करने के लिए दर्शक वर्ग अभी तैयार नहीं है। शानदार ग्रफिक्स, स्पेशल इफेक्ट्स होने के बावजूद फिल्म को आलोचना का शिकार होना पड़ा और बॉक्स ऑफिस पर असफलता का सामना करना पड़ा। इसलिए मान्य-प्रचलित मान्यताओं के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए ये संदेश फिल्म निर्माताओं तक पहुंचा है। डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की महत्वाकांक्षी फिल्म ‘पृथ्वीराज’ की असफलता यही दर्शाती है।

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं स्पेशल इफेक्ट्स के सहारे हम फिल्म का रोमांच तो बढ़ा सकते हैं लेकिन दर्शकों को सिनेमा हॉल में लाकर उसे सीट पर टिका कर बैठाने और फिर वापिस लाने के लिए सिनेमाई चमत्कारों के साथ फिल्म के अन्य पक्षों को भी समुचित स्थान देना आवश्यक है। कहानी-पटकथा-संवाद किसी भी फिल्म की सफलता का मूल आधार हैं। इनके साथ खिलवाड़ या समझौता करना यानि फिल्म की असफलता की पटकथा लिखना है। एक फिल्म को बनाने में कड़ी मेहनत लगती है। थोड़ी सावधानी रखने से उसके बनाने का उद्देश्य सफल होता है। इसलिए आने वाले भविष्य में भारत में वही सिनेमा चलेगा जो तकनीक के साथ कहानी का संतुलन बनाए रखेगा।

 

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