स्पेशल इफेक्ट भी हो और कहानी भी

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फिल्मे ‘आदिपुरुष’ स्पेशल इफेक्ट के सहारे चाहे जितने ‘ब्रह्मास्त्र’ चला लें परंतु अगर कहानी में दम नहीं होगा या उसे तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाएगा तो दर्शकों का प्यार पाना सम्भव नहीं हो पाएगा। हिंदी सिनेमा का दर्शक अभी भी कहानी का भूखा है, केवल स्पेशल इफेक्ट का नहीं।

विवादों के घेरे में सेंसर बोर्ड?

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आदिपुरुष फिल्म के विवाद उपरांत सेंसर बोर्ड भी इसके लपेटे में आ गया है और उसके औचित्य पर प्रश्नचिह्न उठने लगे हैं। जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाने से नाराज इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली पर सवाल दागते हुए कहा कि सेंसर बोर्ड ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की? इस टिप्पणी को गम्भीरता से लेते हुए सरकार को भी चाहिए कि वह सेंसर बोर्ड में आवश्यक बदलाव, सुधार एवं परिवर्तन करे।

पठान का विरोध राजनीतिक या सामाजिक

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शाहरुख खान की फिल्म ‘पठान’ के गाने बेशर्म रंग ने बॉलीवुड की समाज विरोधी मानसिकता को ही प्रदर्शित किया है। उन्हें अब भी लगता है कि वे बहुसंख्यक विरोधी भावों का जहर फैलाकर पैसे पीटेंगे। पर अब जितनी जल्दी वे लोग चेत जाएं, उतना ही अच्छा है अन्यथा समाज जाग्रत हो चुका है। लोग भावनाओं का अपमान सहन करने के लिए कत्तई तैयार नहीं हैं।

बायकॉट बॉलीवुड

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आम जनता द्वारा किए जा रहे ‘बायकॉट बॉलिवुड’ ने फिल्मी धुरंधरों के हाथ- पांव फुला दिए हैं। सभी बड़े एक्टर्स अपने पुराने बयानी पापों को धोने के चक्कर में हैं लेकिन ‘लाल सिंह चड्ढा’ के आमिर की तरह नए पाप करने पर आमादा भी हैं। इसलिए अब लोगों ने मूड बना लिया है कि फिल्म वही हो जिसमें अपनी मिट्टी की सुगंध हो। मनोरंजन की आड़ में राष्ट्र-समाज विरोधी फिल्में बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

देश की आत्मा को झकझोरती द कश्मीर फाइल्स

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‘द कश्मीर फाइल्स’ वामपंथी एजेंडे पर काम करने वाले बॉलीवुड के मुंह पर करारा तमाचा है। अब दर्शक एक तरफा नैरेटिव बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। ये उन फिल्म निर्माताओं, जो अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अपना एजेंडा सेट करते हैं, को चेतावनी भी है कि अब बदलते भारत के तेवरों का ध्यान रखें।

रियल से रील पर

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का वक्त अब जा चुका है। अब वक्त उसे ठीक करने का है। इसमें दर्शक वर्ग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि वे अच्छे कंटेंट को अपना समर्थन देंगे तो उसी तरह का कंटेंट बनाने के लिए फिल्मकार मजबूर होंगे। आज का दर्शक जागरूक है। अब वे किसी बात को ऐसे ही स्वीकार नहीं करता है। ये बात ‘शेरशाह’ को मिली सफलता और ‘भुज द प्राइड‘ को मिली असफलता से सिद्ध हो जाती है। वहीं जिस तरह से ‘द एम्पायर’ का विरोध हो रहा है, उससे आगे की कड़ियों को बनाने से पहले निर्माताओं को अवश्य सोचना पड़ेगा।

फिर जरा मुस्कुराइये

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हिंदी सिनेमा के 108 वर्ष के इतिहास में यूं तो सैकड़ों अभिनेता-अभिनेत्रियां हुए हैं जिन्होंने अपने अभिनय से हिंदी फिल्मों में हास्य को जीवित रखा। ये ऐसे लोग थे जिनका चेहरा याद आते ही आदमी मुस्कुरा देता था। हास्य का यह रूप समय के साथ बदलता रहा है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर

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वेब सीरीज़ ‘पाताल लोक’ में पालतू कुतिया का नाम ‘सावित्री’ रख दिया गया। अब अगर ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो ये एकतरफ़ा क्यों हैं? आज से 40 वर्ष बाद विश्व में मुस्लिम समुदाय का चित्रण करने की हिम्मत किसी में हैं?

आत्मनिर्भरता में मनोरंजन क्षेत्र की भूमिका

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आज भारत को आत्मनिर्भर बनाने की बात हो रही है। उसी स्वर्णिम गौरव शाली वैभव को वापस पाने की बात की जा रही है जब हमारे देश को सोने की चिड़िया कहा जाता था। इस स्वप्न को साकार करने में मनोरंजन जगत की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है।

फिल्मों में बढ़ती अभारतीयता और इस्लामिक प्रभाव

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सच पूछिए तो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर फिल्मों ने एक मीठे जहर की तरह हमें हमारे ही विरुद्ध कब खड़ा कर दिया गया पता ही नहीं चला। आज भगवान का मज़ाक उड़ाती ‘ओह माई गॉड’, ‘पीके’ जैसी फिल्मों को देख कर लोग ताली बजाते हैं। लेकिन क्या कभी अल्लाह का मज़ाक उड़ाती किसी फिल्म को आपने देखा है?

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