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काव्य वैविध्य

काव्य वैविध्य

by हिंदी विवेक
in दीपावली विशेषांक-नवम्बर २०२३, विशेष, सामाजिक, साहित्य
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कम शब्दों में अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुंचाने का सबसे सशक्त माध्यम है कविता। कविता ने जहां युद्ध में साहस बढ़ाने का काम किया, वहीं दर्द में राहत देने का भी काम किया। वेदों से लेकर आज की नई कविता तक ने हमें काव्य से सराबोर कर रखा है।

 

कविता कवि के मनोभावों को प्रकट करती है। वह मनोभाव जो उसे अपने ज्ञान और अनुभव से प्राप्त होता है। उस मनोभाव में कवि की कल्पना का भी मेल होता है। कवि वर्तमान के धरातल पर भविष्य का महल खड़ा करता है। उसकी दूरदृष्टि आने वाले समय का आभास करा देती है। इसीलिए कवि को ‘कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूः’ कहा गया है। वह मनीषी होता है, अपनी अनुभूति के क्षेत्र में सब कुछ समा लेने में सक्षम होता है और इस अनुभूति के लिए किसी का ऋणी नहीं होता है। अनुभूति उसकी अपनी होती है।

दुनिया की सबसे प्राचीन काव्य रचना वेद की ऋचाएं है। ये ऋचाएं ऋषि-मुनियों के ज्ञान से उत्पन्न हुई हैं। पहली कविता महर्षि वाल्मीकि के श्रीमुख से अकस्मात फूट पड़ी, जब उन्होंने बहलिए द्वारा कामभावना से ग्रस्त क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से एक का वध होते देखा। उनकी करुणा से कविता का जन्म हुआ। हिन्दी का यह कथन “वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान” भी काव्य के उद्भव का स्रोत करुणा को ही दर्शाता है।

हिन्दी साहित्य में कविता का प्रारम्भिक समय शौर्य का था। वीरोचित भावों को प्रकट करने का था। चन्दबरदाई, नरपति नाल्ह, जगनिक, विद्यापति, नल्ल सिंह इत्यादि कवियों ने राजाओं-महाराजाओं के जीवन को अनेक घटनाओं का ओजपूर्ण वर्णन किया है। वे आज भी गायी जाती हैं। आगे चलकर प्रेम, सौन्दर्य, श्रृंगार, अलंकारिता इत्यादि को प्रस्तुत करती हुई कविताओं की रचना बिहारी, धनानन्द, भूषण, दलपति राय, कुलपति मिश्र, द्विजदेव जैसे कवियों ने की। यह समय कविता के भावों और सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट काल था। इस कालखण्ड में देश में भारी उथल-पुथल थी। विदेशी आक्रांताओं के शासन में जनता त्रस्त और असहाय हो गयी थी। उस समय देश भर में सन्त कवियों का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने ईश्वर भक्ति के माध्यम से न केवल देश की जनता में आशा की लौ जगाई, अपितु हिन्दी साहित्य को भी अपनी रचनाओं से समृद्ध किया। कबीरदास, सूरदास, परमानन्द दास, मीराबाई, रसखान, स्वामी दरिदास, नन्ददास इत्यादि ने ईश्वर की भक्ति का एक मार्ग दिखाया, जिसमें भजन, कीर्तन, गायन का सहारा लिया गया। ‘रामचरित मानस’ के रूप में तुलसीदास ने दुनिया को एक अद्वितीय ग्रन्थ दिया। यह ग्रन्थ मानव जीवन और लोक जीवन का सर्वोच्च मार्गदर्शक है। कई सौ वर्षों के बाद भी ‘रामचरित मानस’ भारतीय समाज का मार्गदर्शन कर रहा है।

भक्तिकाल के उपरान्त हिन्दी कविता में एक बदलाव का युग शुरू हुआ। अब तक कविता बोलियों- अवधी, व्रज, भोजपुरी, मैथिली, बुन्देलखण्डी, मेवाड़ी इत्यादि में लिखी जाती थी। इन बोलियों की अपनी विशेषताएं थीं। अपना शब्द संसार था। अपनी शैली थी। सबसे बड़ी बात बात अपना भौगोलिक क्षेत्र था। इन सबको अंग करते हुए आधुनिक युग के कवियों- भारतेन्द्र हरिश्वन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, अंबिकादत्त व्यास, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, ठाकुर जगमोहन सिंह राधाकृष्ण दास इत्यादि ने हिन्दी भाषा का निर्माण किया। सभी बोलियों को मिलाकर जिस हिन्दी का निर्माण उस समय शुरू हुआ, वही आज की समृद्ध हिन्दी है। भारतेन्दु ने नैन भरि देखौ गोकुलचन्द, ऐली, ऊधौ जो अनेक मन होते, जागे मंगलरूप, दशरथ विलाप, गंगा वर्णन इत्यादि कविताओं की रचना की। गंगा-वर्णन का प्रारम्भ करते हुए वे लिखते हैं-

“नव उज्ज्वल जल घार हार हीरक सी सोहति।

बिच-बिच हरति बूँद मध्य मुक्ता मनि पोहति।”

भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा को अपने जीवन में सबसे अधिक महत्त्व दिया। मातृभाषा प्रेम उनके दोहों में प्रकट होता है-

‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सुल॥

 अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।

 पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन॥”

यह भारतेन्दु की दूरदर्शिता थी, जिसका प्रभाव आज दिखाई पड़ने लगा हैं। अपनी मातृभाषा को त्यागकर विदेशी भाषा को अंगीकार करना, केवल भाषा को प्रभावित करना नहीं होता है, अपितु एरी संस्कृति, पूरा लोकजीवन, पूरा चिलन, पूरे मानवमूल्य पूरा देश प्रेम और अपनापन बदल जाता है।

हिन्दी के निर्माण में महावीर प्रसाद द्विवेदी का बड़ा योगदान था। ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादक के रूप में उन्होंने अनेक कवियों को स्थापित किया। बोलियों में लिखने वाले कवियों को खड़ी बोली में लिखने के लिए प्रेरित ही नहीं किया, बल्कि उनकी रचनाओं को परिमार्जित भी किया। डॉ.नगेन्द्र ने उनके समय को ‘हिंदी का सुधार-काल’ कहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनके कार्यकाल को ‘नई धारा:वित्तीय उत्थान’ के अन्तर्गत रखा है। द्विवेदी युग के प्रमुख कवियों में मैथिली शरण गुप्त, गया प्रसाद शुक्ल, गोपाल शरण सिंह, लोचन प्रसाद पाण्डेय इत्यादि प्रमुख शुरू थे। मैथिली शरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ और ‘साकेत’ महाकाव्य के माध्यम से भारतवर्ष की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दशा का सुन्दर और यथार्थ वर्णन किया है। उन्होंने ‘भारत भारती’ में देश के प्राचीन वैभव, वर्तमान की वास्तविकता के साथ भविष्य के गौरव का वर्णन किया है। अंग्रेज सरकार ने इस महाकाव्य पर प्रतिबन्ध लगाने की कार्यवाई की थी। गुप्तजी ने ‘भारत-भारती’ के मंगलाचरण में लिखा है-  “मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती। भगवान भारत वर्ष में गूंजे हमारी भारती ॥ हो अद्भावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते । सीता पते सीतापते गीतामते गीता मते ॥” सरस्वती से प्रभावित होकर अयोध्या सिंह उपाध्याय, ‘हरिऔध’, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, गोपालकारण सिंह, सियाराम शरण गुप्त, जगन्नाथ दास रत्नाकर, लोचन प्रसाद पांडेय इत्यादि कवियों ने हिन्दी में उत्कृष्ट रचनाएं की। हरिऔध जी का ‘प्रिय प्रवास’ महाकाव्य खड़ी बोली का पहला महाकाव्य है।

हिन्दी की कविता का विकास बहुत ही सधी हुई पद्धति से युगानुकूल होता रहा। द्विवेदी युग के साथ ही छाया वाद का प्रभाव हो गया। महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रा – नन्दन पंत, जयशंकर प्रसाद और इनके साथ राम कुमार वर्मा ने आत्माभिव्यक्ति, प्रकृति प्रेम, सांस्कृतिक जागरण, रहस्यवाद, काल्पनिकता, भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन, सौन्दर्य को केन्द्र में रखकर कविताओं की रचना की। जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ के द्वारा भारतीय शैवदर्शन का अद्भुत चित्रण किया। ‘उर्वशी’ में स्त्री की प्रधानता को दर्शाया है। एक जगह पर महाराजा पुरुरवा प्रेम प्रस्ताव में उर्वशी से कहते है- “इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है। सिंह से बाहें मिलाकर खेल सकता है। फूल के आगे वही असहाय हो जाता। शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता। बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाखा से। जीत लेती रुपसी नारी उसे मुस्कान से।” यद्यपि इससे पहले अपना परिचय देते हुए कहा था,  “अपने समय का सूर्य हूँ मैं।” महादेवी वर्मा ने ‘मैं नीर भरी दुख की गगरी’ कविता में नारी की मर्यादा के साथ-साथ व्यक्तित्व के विस्तार का सुन्दर चित्रण किया है। निराला ने संस्कृतनिष्ठ शब्दों का ऐसा सुन्दर प्रयोग कविता में किया, जिससे हिन्दी का उत्कृष्ट स्वरूप सम्मुख आ गया। छायावादी कवियों का केन्द्र प्रयागराज रहा। पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा गया।

इन मार्गों से होती हुई हिन्दी की कविता वर्तमान काल तक पहुंची है। स्वतन्त्रता के उपरान्त हिन्दी साहित्य में कई धाराएं एक साथ चलती रहीं। एक तरफ पश्चिम से आयातित विचारधारा के घरातल पर अस्तित्ववाद और वादात्मक भौतिकवादी वामपंथी साठोत्तरी कविता लिखी जाती रही, जिसमें लय, छन्द, रस, ध्वनि, अलंकार का कोई स्थान नहीं था। वह अतुकान्त कविता बनी। प्रगतिशीलता है के नाम पर नागार्जुन, धूमिल, मुक्तिबोध, आलोक धन्वा, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, त्रिलोचन जैसे कवि गद्यात्मक कविता लिख रहे थे। उसी समय प्रयोगवादी सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन ‘अज्ञेय’ जी अपने ‘तार सप्तक’ के माध्यम से भारत भूषण अग्रवाल, नेमिचन्द जैन, गिरिजा कुमार माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, नन्दकिशोर आचार्य इत्यादि को स्थापित कर रहे थे। ये सभी कवि भारतीय चिन्तन को प्रस्तुत करने वाले कवि थे। यह वही कालखण्ड था जब कविता, अकविता, नई कविता इत्यादि के आन्दोलन चल रहे थे। इसी समय ‘दिनकर’ जैसे कवि सबसे अछूते अपनी गति से चल रहे थे।

प्रयागराज हिन्दी साहित्य का केन्द्र बना हुआ था। नई कविता का उदय भी इसी नगर से हुआ, जहां पर जगदीश गुप्त ने इस आन्दोलन का सूत्रपात किया। रामस्वरूप

चतुर्वेदी, कुंवर नारायण, भवानी प्रसाद मिश्र, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, उमाकान्त मालवीय इत्यादि नई कविता के रचनाकार थे। इसी समय गीत के समानान्तर नवगीत का चलन शुरू हुआ। यह सारा साहित्यिक आन्दोलन नब्बे के दशक तक चलता रहा। उसके पश्चात साहित्य में विचारधारा के बदलाव का युग शुरू हुआ। वामपंथी और पाश्चात्य चिन्तन का महत्व घटने लगा। एक संक्रमण काल आ गया। इस शताब्दी के पहले दशक तक हिन्दी साहित्य में भारी उलटफेर के साथ संक्रमण काल का समापन जैसा हो गया। अब पुन: भारतीय चिन्तन, भारतीय लोकमन, भारतीयता की स्थापना करने वाले कवियों ने गौरवपूर्ण साहित्य सृजन शुरू किया है। नवगीतकार ऋषिकुमार मिश्र, शिवहादुर सिंह भदौरिया, गुलाब सिंह, रामसनेहीलाल शर्मा, जीतसिंह ‘जीत’, विद्याबिन्दु सिंह, यश मालवीय, महेन्द्र ‘मधुकर’ इत्यादि छन्दबद्ध भारतीय काव्यशास्त्र पर आधारित कविताओं का सृजन कर रहे हैं। वर्तमान समय में हिन्दी कविता करवट ले रही है। उसके ऊपर का वामपंथी भार उतर गया है। उसमें पुन: गेयता और काव्य लालित्य की स्थापना हो रही है। पाठकों, साहित्यप्रमियों और साहित्यकारों के बीच कविता लोकप्रिय हो रही है।

                                                                                                                                                                                        शशिधर त्रिपाठी

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