नई हिन्दी कविता के विविध रंग

तुकांत-अतुकांत, छंदयुक्त-छंदमुक्त, हायकू इत्यादि कविता के कई रूप हैं। कम शब्दों में भावों की अभिव्यक्ति ही कविता की पहचान रही है। समय के साथ इसमें कई धाराएं बनीं और कई धाराएं मिली परंतु कविता रूपी भागिरथी निरंतर प्रवाहमान है।

कविता में जीवन के अनुभव संग्रहीत होते हैं। अतः, नई पीढ़ी कविता के माध्यम से अपने पूर्वजों के अनुभवों से सहज ही परिचित हो जाती है। लेकिन, वर्तमान जीवन केवल पुराने अनुभवों से नहीं चलता। उसमें नए जीवन के नए अनुभवों का भी महत्व होता है। नए जीवन के नए अनुभव जिस कविता में व्यक्त होते हैं उसे हम नई कविता कह सकते हैं।

जिस प्रकार युग के अनुरूप वस्तु और वस्तु के अनुरूप पात्र बदलता है, उसी प्रकार युग के अनुरूप कविता के भाव और उस भाव को अभिव्यक्त करने वाले काव्य-रूप अर्थात छंद में भी परिवर्तन अवश्यंभावी है। उत्तराधिकार में प्राप्त भावों और काव्य-रूपों के संग्रहण तथा उसमें नए भावों और काव्य-रूपों के योग से ही कविता की भागीरथी निरंतर प्रवाहमान रह सकती है।

हिन्दी की नई कविता अपनी काव्य विरासत ओर नई काव्यानुभूतियों का संगम है, यह दृष्टि रखकर ही हम नई कविता का आनंद ले सकते हैं।

दोहा हिंदी का सबसे प्राचीन छंद है और प्रेमानुभूति तथा जीवन में सुख की आकांक्षा कविता का आदिम रंग। दिनेश शुक्ल के निम्न दोहों में जीवन की इन अनुभूतियों की युग की भाषा में अभिव्यक्ति दर्शनीय है-

अंखियों से जादू करे, नज़रों मारे मूठ।

गुदना गोदे प्रीत के, बोले सौ-सौ झूठ॥

इक चुटकी भर चांदनी, इक चुटकी भर शाम।

बरसों से देखे यही, सपने यहां अवाम॥

पुरानी कविता में चतुष्पदी के नाम से प्रसिद्ध छंद नई कविता में मुक्तक नाम से जाना जाता है। डा. कुंवर वीरेन्द्र विक्रम सिंह के मुक्तक में भावों की ताजगी देखिए –

फूल क्या जिसकी न खुशबू सांस को भाए कभी,

वह नजर क्या जो किसी को खींच न पाए कभी,

जिंदगी यूं भी गुजर सकती है सबकी, पर नहीं,

जिंदगी क्या जो किसी के काम न आए कभी ।

गजल फारसी से हिन्दी में आई और हिन्दी काव्य मंचों से लेकर पाठ्य कविता तक छा गई। शुद्धतावादियों के विरोध के बावजूद नई हिन्दी कविता में गजल की लोकप्रियता बनी हुई है। समर्थ गजलकारों ने हिन्दी गजल को नई भाषा भी दी और उसे वर्तमान जीवन की समस्याओं को अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य भी दिया। रामावतार त्यागी और राजेश रेड्डी के कुछ शेर प्रस्तुत हैं-

पहले धारा बने फिर किनारे बने।

देखिए किस तरह हम तुम्हारे बने॥

जख्मेदिल आग में जब बहुत तप चुके।

बाद मुद्दत के तब ये सितारे बने॥

काम दिल का जुबां से न जब चल सका।

गुफ्तगू  के  लिए  तब  इशारे  बने ॥

(रामावतार त्यागी)

शाम को जिस वक्त खाली हाथ घर जाता हूं मैं।

मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूं मैं॥

कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिए।

कुछ को लेकिन आसमानों के खजाने चाहिए॥ 

(राजेश रेड्डी)

गोपाल दास नीरज गजल को गीतिका कहते थे और आज डॉ. महेश दिवाकर गजल को सजल कहने का आंदोलन छेड़े हुए हैं।

नई कविता के युग में गीत ने अपना कलेवर भी बदल दिया और भाषा, शैली, बिम्ब और प्रतीक विधान भी कि उसे गीत नहीं नवगीत कहा जाने लगा है। वर्तमान जीवन की आशाओं, आकांक्षाओं और विसंगतियों का जितना सटीक चित्रण नवगीत कर रहा है उसका मुकाबला नहीं है। नवगीत के कुछ उदाहरण अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं –

मन अनमन है, पल भर को

अपना मन देना

दही ज़माने को थोडा सा

जामन देना

सिर्फ तुम्हारे छू लेने से

चाय, चाय हो जाती

धूप छलकती दूध सरीखी

सुबह गाय हो जाती

उमस बढ़ी है, अगर हो सके

सावन देना

-(यश मालवीय)

जिंदगी अब रह गयी

फूहड़ लतीफों सी

पेटियम कंगाल होकर

थूकते हम पर

पट रहा हां कर्ज

क्रेडिट कार्ड के दम पर

काफियों सी तंग

ढीली है रदीफ़ों सी

-(ऋषि कुमार मिश्र)

डा. सरोजिनी प्रीतम ने हिंदी कविता में एक नई विधा ‘हंसिका’ का आविष्कार किया था। धर्मयुग और कादम्बिनी में उनकी हंसिकाओं के स्तंभ छपते थे। कुछ और कवियों ने भी हंसिका लेखन में हाथ आजमाया लेकिन सरोजिनी हंसिका विधा की बेताज मल्लिका बनी हुई हैं। देखें –

 

आयकर अधिकारी ने

रूपसी अभिनेत्री के घर छपा मारा

तो उसका रूप सौंदर्य देखकर ठगे से

हिरनी सी आंखें, तोते सी नाक देख

इतना ही कह सके

आपके सौंदर्य की धाक् रहेगी

हाथों के ही तोते उड़ेंगे

नाक रहेगी

क्षणिका भी हिंदी कविता की विचार प्रधान नई विधा है। बात को बहुत कम शब्दों में कह देना क्षणिका की विशेषता है। घमंडीलाल जायसवाल, ममता व्यास और शर्मिष्ठा पांडे की क्षणिकाएं बहुत प्रसिद्ध हैं। शर्मिष्ठा की ही एक क्षणिका बानगी के लिए प्रस्तुत है-

कितनी निगरानी रखी

लहरों पर

गिनती रही फिर भी

एक जा मिली सागर से

सच है – प्यार पर जोर नहीं 

हाइकू कविता की जापानी विधा है जिसे हिंदी के नए कवियों ने भी अपना लिया है। हाइकू कविता का मुख्य प्रतिपाद्य प्रकृति तथा प्राणिमात्र के प्रति प्रेम भाव है। मानव की अंतः प्रकृति भी उसका विषय हो सकता है। हिंदी में हाइकू कविता की प्रतिष्ठा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बड़े से बड़े कवियों ने हाइकू लिखे हैं और विश्वविद्यालयों में हाइकू पर शोध कार्य भी हो रहे हैं। कुछ प्रसिद्ध कवियों के हाइकू उदहारण के लिए प्रस्तुत हैं –

याद उमस

एकाएक गहरे बादल

कौंध जगमगा गई

-(अज्ञेय)

ओस की बूंद

फूल पर सोई जो

धूल में मिली

-(नीरज)

धूप दरोगा

गश्त पर निकला

आग बबूला

-(सुधा गुप्ता)

छंद मुक्त कविता के बिना नई हिन्दी कविता की चर्चा अधूरी रहेगी। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हिंदी में छंद मुक्त कविता के जनक माने गए हैं। उनकी ‘वह आता/दो टूक कलेजे के करता/ पछताता पथ पर आता’ हिंदी की मुक्त छंद की पहली कविता है। भावों की सघनता को बांध रखने की छंद की असमर्थता का विचार कालांतर में छंद मुक्त कविता के पक्ष में प्रबल तर्क बना। बहरहाल, कविता ‘छंद युक्त’ होनी चाहिए या ‘छंद मुक्त’ यह हिंदी कविता का सबसे विवादित विषय आज भी बना हुआ है।

यदि अर्थहीन छंदमुक्त कविता के सैकड़ों उदहारण दिए जा सकते हैं तो रद्दी छंदबद्ध कविता के भी उदाहरणों की कमी नहीं है। सारी की सारी छंदमुक्त कविता को व्यर्थ मानना भी नई हिंदी कविता के साथ अन्याय होगा। कुछ भावपूर्ण छंद मुक्त कविताओं का वाचन पाठकों को सुखद लगेगा –

बदल गए हैं अंधेरों के दिन/ अब वे नहीं निकलते/ सहमें, ठिठके, चुपके-चुपके रात के वक्त/ वे दिन दहाड़े घूमते हैं बस्ती में/ सीना ताने/ कहकहे लगाते/ नहीं डरते उजालों से/ बल्कि उजाले ही सहम जाते हैं इनसे/ अक्सर वे धमकाते भी हैं उजालों को/ बादल गए हैं अंधेरों के दिन-(लक्ष्मीशंकर बाजपेई) तेजी से एक दर्द/ मन में जागा/ मैंने पी लिया/ छोटी सी एक ख़ुशी/ अधरों में आई/ मैंने उसको फैला दिया/ मुझको संतोष हुआ/ और लगा/ हर छोटे को/ बड़ा करना धर्म है – (दुष्यंत कुमार)

 

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