स्वामीजी ने अपनी गोवा यात्रा के दौरान, वहां के धार्मिक स्थलों, पुराने गिरजाघरों, फोंडा के प्राचीन मंदिरों तथा प्राचीन जीर्ण-शीर्ण मंदिरों के अवशेषों आदि का दौरा किया। स्वामीजी ने हरिपद मित्र को लिखे एक पत्र में, पणजी शहर के सुंदर एवं स्वच्छ होने का उल्लेख किया है।
स्वामी विवेकानंद जी ने मानसिक दुर्बलता एवं परावलंबी, पराधीन वृत्ति से परिपूरित भारतीय समाज को जागृत कर, विश्व में भारत का शीश ऊंचा करने का महान कार्य किया। इस संदर्भ में जनसामान्य के प्रति उनकी आत्मीयता तथा प्रखर आशावाद उल्लेखनीय है। आधुनिक भारत को गढ़ना उनका स्वप्न था जिसके लिए उन्होंने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। भारत परिक्रमा के बाद शिकागो की विश्व धर्म परिषद में अपनी विद्वत्ता की छाप छोड़ना, इन्हीं प्रयासों का एक अंश था। स्वामीजी ने अपनी भारत परिक्रमा के अंतर्गत, भारत के प्रत्येक राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रांत (झेश्रळींळलरश्र रपव र्उीर्श्रीीींरश्र णपळीं) का दौरा किया। आगे चलकर सरदार वल्लभभाई पटेल ने एकीकृत एवं अखंड भारत का स्वप्न साकार करने के लिए छोटे-छोटे राज्यों अथवा रियासतों को भारत में सम्मिलित करने का जो कार्य किया था, उसका आरंभ स्वामीजी ने 100 वर्ष पूर्व ही कर दिया था। इसी परिक्रमा के अंतर्गत स्वामी विवेकानंद ने गोवा का भी दौरा किया। यह लेख उनकी उसी यात्रा का सारांश है।
1892 ई. में जब स्वामी विवेकानंद बेलगांव आए थे तब उन्होंने डॉ. विष्णुपंत वा. शिरगांवकर से गोवा जाने की इच्छा व्यक्त की। स्वामीजी ने उनसे कहा कि वे एक विशिष्ट कार्य के लिए गोवा जाने के इच्छुक हैं, तब डॉ. विष्णुपंत ने अपने मडगांव के एक विद्वान मित्र सुब्राय लक्ष्मण नायक के नाम एक परिचय-पत्र देकर, उनसे स्वामीजी के निवास एवं भोजन की व्यवस्था करने का अनुरोध किया।
स्वामीजी 27 अक्तूबर 1892 को मेल गाड़ी से मडगांव पहुंचे। रेलवे स्टेशन पर सुब्राय नायक ने सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में उनका स्वागत किया तथा अपनी घोड़ागाड़ी में बिठाकर, उन्हें समारोह पूर्वक अपने घर ले गए। उस समय मूर्ति पूजा पर प्रतिबंध था तथा हिंदू, पुर्तगालियों के अत्याचार से भयभीत थे।
इसके बावजूद नायक ने जनता के लिए अपने घर का एक बड़ा गर्भगृह, दामोदर की पूजा-अर्चना एवं प्रार्थना के लिए दे दिया था। (पुर्तगालियों द्वारा मडगांव के श्री दामोदर मंदिर को ध्वस्त कर देने के बाद वहां की मूर्ति जांबावली में स्थानांतरित कर दी गई थी। अतः श्रद्धालु मडगांव के सुब्राय नायक के घर में ही, इस वैकल्पिक व्यवस्था से अपना काम चलाते थे।) सुब्राय नायक स्वयं संस्कृत के विद्वान एवं वेद-विद्या के गहन अध्ययनकर्ता थे। 1882 ई. में उन्होंने ‘गोवा मित्र’ नामक एक मराठी मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया तथा उसके बंद होने के बाद 1885 में ‘गोवात्मा’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया।
उन्होंने मडगांव में एक पुस्तकालय की स्थापना भी की थी। उन्होंने 1912 में आचार्य शंकर, रामानुज तथा मध्व के मतों की संक्षिप्त मीमांसा कर, ‘त्रिमतोपन्यास’ नामक एक छोटी पुस्तक लिखी थी। स्वामी विवेकानंद ने ऐसे विद्वान व्यक्ति के घर निवास किया था। दोनों संस्कृत के विद्वान होने के कारण, उनकी चर्चाएं उच्च स्तर की होती थीं। नायक स्वामीजी के व्यवहार एवं उनके व्यक्तित्व से मुग्ध थे। स्वामीजी ने अपनी गोवा यात्रा के दौरान, वहां के धार्मिक स्थलों, पुराने गिरजाघरों, फोंडा के प्राचीन मंदिरों तथा प्राचीन जीर्ण-शीर्ण मंदिरों के अवशेषों आदि का दौरा किया। स्वामीजी ने हरिपद मित्र को लिखे एक पत्र में, पणजी शहर के सुंदर एवं स्वच्छ होने का उल्लेख किया है, उन्होंने पत्र में यह उल्लेख भी किया कि वहां के अधिकतर ईसाई लोग साक्षर हैं जबकि अधिकतर हिंदू अशिक्षित हैं। स्वामीजी ने नायक को अपनी गोवा यात्रा का उद्देश्य बताते हुए कहा था कि वे ईसाई धर्म के विषय में प्राचीन लैटिन धर्मग्रंथो द्वारा अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं जो उन्हें शेष भारत में प्राप्त नहीं हो सकती। नायक ने अपने एक विद्वान ईसाई मित्र जे.पी. अल्वारिस को बुलाकर, उनसे स्वामीजी का परिचय करवाया। स्वामीजी की अल्वारिस से चर्चा होने के बाद उन्होंने स्वामीजी के राशोल (रायतूर) की सेमिनरी का दौरा करने तथा वहां उनके निवास की व्यवस्था भी करवाई। राशोल, गोवा की बहुत पहले की कॉन्वेंट संस्था थी जो अभी भी विद्यमान है। स्वामीजी ने वहां अपने तीन दिनों के निवास में, ईसाई धर्म से संबंधित कई लैटिन धर्म ग्रंथ पढ़े तथा कई पांडुलिपियों का अध्ययन किया। स्वामीजी के ईसाई धर्म के प्रति गहन ज्ञान को देखकर, ईसाई धर्म प्रचारक (पादरी) एवं उनके मुख्य पादरी भी प्रसन्न हो गए। मडगांव वापस लौटने के बाद भी कई पादरी उनसे मिलने के लिए आते रहे। स्वामीजी के गोवा से विदा होते समय भी शहर के कार्यक्रम में, कई पादरियों के सम्मिलित होने का उल्लेख मिलता है।
स्वामीजी के उस मडगांव निवास के दौरान, एक अवसर पर उनके कला प्रेम के भी दर्शन हुए, तब गोवा के उत्कृष्ट तबलावादक लयभास्कर स्व. खाप्रुमामा पर्वतकर युवा थे। उन्होंने स्वामीजी के समक्ष तबलावादन किया जिसे सुनकर स्वामीजी ने पूछा, क्या आप तबले की ऊपरी चमड़े पर उंगलियां फिराकर आवाज निकाल सकते हैं? खापुर्जी को वह अविश्वसनीय जान पड़ा, तब स्वामीजी ने तख्त से नीचे उतरकर, तबले के चमड़े से मधुर आवाज निकालकर दिखाई। खापुर्जी सहित सभी लोग अचंभित रह गये। गायन के बारे में बातचीत करते हुए उन्होंने सहज ही कहा गायक का मुख फलां-फलां सेंटीमीटर से ज्यादा न खुला हो तभी रुचिकर लगता है।
इस तरह स्वामीजी ने अपनी छोटी किंतु चिरस्मरणीय यात्रा से, गोवा की भूमि को पवित्र कर दिया। आगे चलकर सुब्राय बाबा ने दीक्षा ली और वे स्वामी सुब्रह्मण्यानंद तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनकी उपस्थिति में 1915 ई. में मोरगांव में, स्वामीजी का जन्मदिवस मनाया गया। सुब्रायबाबा ने स्वामीजी से हुई भेंट में, उनका एक छायाचित्र मांगा था,जो आज भी सुरक्षित है। स्वामीजी जिस कमरे में रहे थे, उसी में सुब्रायबाबा ने 1916 में देह त्याग दी।
सुरभि