1946 में डॉक्टर लोहिया ने गोवा में क्रांतिकारी काल की नींव रखी। उस समय महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि एक बार भारत स्वतंत्र हो गया तो गोवा भी विदेशियों की गुलामी से मुक्त हुए बिना नहीं रहेगा। गोवा में पुर्तगालियों को हटाने के लिए सन 1787 में पहला प्रयास किया गया। जो पिंटू का विद्रोह के नाम से प्रसिद्ध है।
गोमांतक अथवा गोवा क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का सबसे छोटा राज्य है। सन 1961 में गोवा की मुक्ति के समय उसकी जनसंख्या 6 लाख से अधिक नहीं थी। भारत के क्षेत्रफल की विशालता का विचार करते हुए गोवा बहुत ही छोटा क्षेत्र है। सन 1946 में डॉक्टर लोहिया ने गोवा में क्रांतिकारी काल की नींव रखी। उस समय महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि एक बार भारत स्वतंत्र हो गया तो गोवा भी विदेशियों की गुलामी से मुक्त हुए बिना नहीं रहेगा। इससे ऐसा दिखाई देता है कि महात्मा गांधी को ऐसा लगता था कि पूरे देश के स्वतंत्रता संग्राम की तुलना में गोवा मुक्ति का प्रश्न बहुत ही छोटा है। स्वयं पंडित नेहरू ने गोवा मुक्ति के संदर्भ में बोलते हुए कहा था कि गोवा भारत के गाल पर एक मुहांसा है। इसका अर्थ गोवा का प्रश्न पंडित नेहरू को किसी के गाल पर आने और रहने वाले मुहांसे जैसा छोटा लगता था। परंतु उस समय भारत की स्वतंत्रता के बाद की सरकार की गोवा मुक्ति के बारे में नीति और उस नीति का फायदा लेकर पुर्तगाल द्वारा गोवा में लागू की गई औपनिवेशिक नीति का यदि विचार किया जाए तो यह भारत के गाल का मुहांसा भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी कुल 14 वर्षों से अधिक समय तक वैसा ही रहा। अंत में दिसंबर 1961 में नेहरू सरकार को ही सैनिक कार्यवाही रुपी शल्य चिकित्सा कर इसे भारत के गाल से हटाना पड़ा।
गोमांतक में दमन और दीव का भी समावेश होता है। गोवा की मुक्ति सैनिक कार्यवाही से होने के कारण देश के तथा देश के बाहर के अनेक लोगों को ऐसा लगता है कि यहां स्वतंत्रता संग्राम हुआ ही नहीं। यदि हुआ भी होगा तो नाम मात्र हुआ होगा। गोवा मुक्ति भारतीय सैनिकों की कार्यवाही के कारण हुई है, जनता द्वारा स्वतंत्रता संग्राम किया ही नहीं गया, ऐसी मान्यता आज भी प्रचलित है। स्वयं हमारे देश में ही अनेक लोग गोवा के स्वतंत्रता संग्राम के विषय में अनभिज्ञ हैं। गोवा में भी जो पुर्तगालियों को मानने वाले थे, वह भी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि यह स्वतंत्रता संग्राम है। सच बात तो यह है कि, उस समय गोवा में निर्दयी फासिस्ट पुलिस राज्य था। जिसके कारण सामान्य जनता को पता चले ऐसा कोई भी आंदोलन या संग्राम खड़ा करना असंभव था।
गोवा में रहकर गोवा के लिए सशस्त्र संघर्ष करना कठिन था, अहिंसक स्वरूप के आंदोलन करना संभव था। परंतु हमारे ही बीच के कुछ चुगलीखोरों और दगाबाजों से इस तरह के आंदोलन को खतरा था। इसलिए कुछ भी करना हो तो गोवा की सीमा के पार जाकर ही सारी तैयारी करनी पड़ती थी। सशस्त्र आंदोलन के सामने तो इससे भी अधिक खतरा था। इसलिए इस प्रकार की लड़ाई में सैनिकों को गोवा के सीमा भागों के जंगलों में या सीमा पार के परिसर में रहकर ही सारे कार्य करने पड़ते थे। परंतु ऐसी विपरीत परिस्थिति पर मात कर, गोवा में ही रहकर बम बनाने वाले वीर भी हमारे बीच थे। यह सब उस समय की परिस्थितियों के अनुसार सीमित था। इसी कारण गोवा के बाहर भारत में अन्य जगहों पर आंदोलन तथा संग्राम गांव-गांव में सामान्य जनता की आंखों के सामने होते गए, परंतु गोवा में ऐसा नहीं हुआ। भले ही गोवा के स्वतंत्रता संग्राम में सैकड़ों गोमांतकियों ने भाग लिया था, परंतु सामान्य जनता राष्ट्र प्रेमी होकर भी उसके और स्वतंत्रता सेनानियों के बीच दूरी ही रही। इसीलिए अंदर से परेशान गोवा ऊपर से शांत दिखाई देता था। इसीका अर्थ यह लगाया गया कि स्वतंत्रता संग्राम गोवा में हुआ ही नहीं। इस बात का फायदा पुर्तगाली शासनकर्ताओं ने उठाया। वे प्रभावशाली रूप से ऐसा प्रचार करने लगे कि गोवा शांत है परंतु गोवा के बाहर के भारतीय क्षेत्र से आने वाले गोवा की शांति को बिगाड़ रहे हैं। यह प्रचार बहुत ही आक्रामक स्वरूप का था। इसे ध्यान में रखते हुए हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारत की ओर से हमारा प्रचार मोर्चा बहुत ही कमजोर था। भारत सरकार की ओर से विशेषत: उस समय के मुंबई राज्य के मोरारजी देसाई प्रशासन की ओर से गोवा में आने वाले सत्याग्रहियों के मार्ग में सुविधाओं की अपेक्षा कठिनाइयां ही निर्माण की जाती थी। सशस्त्र संघर्ष चलाने वालों पर तो मोरारजी सरकार का विशेष ध्यान था। सशस्त्र संघर्ष के स्वतंत्रता सेनानियों ने पुर्तगालियों के विरुद्ध संग्राम करने के लिए जमा किए हुए शस्त्र या उन स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा पुर्तगालियों के थानों पर हमला कर प्राप्त किए हुए शस्त्र, कई बार मुंबई प्रशासन के पुलिस अधिकारी ले लेते थे।
15 अगस्त 1955 को नि:शस्त्र सत्याग्रहियों पर पुर्तगालियों ने गोलियां चलाई। एक ही दिन में लगभग 30 सत्याग्रहियों की निर्दयता से हत्या की गई। इस घटना से पूरा देश गुस्से में था। लोग भारत सरकार की ओर से पुर्तगालियों के विरोध में कार्यवाही की जाने की अपेक्षा करने लगे। इस समय भी भारत सरकार शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत द्वारा ही गोवा मुक्ति के प्रश्न का समाधान करने का पुराना मंत्र ही जपती रही। एक तरह से देखा जाए तो भारत सरकार की नीति गोमांतकियों के स्वतंत्रता संग्राम की तीव्रता को नष्ट करने वाली ही थी। परंतु सरकार की इस नीति के कारण गोवा के स्वतंत्रता संग्राम के नेता और अन्य सैनिक नहीं डगमगाए। सन 1946 से चल रहा है यह सत्याग्रह आंदोलन केवल इसलिए बंद किया गया ताकि निशस्त्र लोगों की पुर्तगालियों द्वारा हत्या न की जा सके। इसके बाद सही अर्थों में सशस्त्र संग्राम अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए अंतिम समय तक अर्थात गोवा की मुक्ति तक चलता रहा। गोवा मुक्ति का क्रांति पर्व सन 1946 में डॉक्टर लोहिया की प्रेरणा से पुन: शुरू हो गया। क्रांति पर्व स्वतंत्रता के लिए अंतिम लड़ाई थी। गोवा में पुर्तगालियों को हटाने के लिए सन 1787 में पहला प्रयास किया गया, जो पिंटू का विद्रोह के नाम से प्रसिद्ध है। पुर्तगालियों की सत्ता के विरोध में सत्तरी के राणे ने 18वीं शताब्दी के अंत में 22 बार विद्रोह किया। जिसके अंतिम दो विद्रोहों में सहभागी व्यक्तियों को कठोर कारावास की सजा दी गई और उन्हें अफ्रीका तथा तिमारे जैसी जगह पर स्थाई रूप से भेज दिया गया।
पंडित नेहरू और गोवा
पंडित नेहरू के गोवा के बारे मे यह बातें गोवा भारत के गाल पर एक सुंदर तिल है या अजीब है गोवा के लोग प्रसिद्ध है। 18 जून सन 1946 को राममनोहर लोहिया ने गोमांतकिय स्वतंत्रता आंदोलन की ज्योत जलायी। दूसरे महीने में 20 जुलाई 1946 को पंडित नेहरू ने लोकसभा में गोवा के विषय में पहला विधान किया वह यह कि गोवा भारत के पश्चिमी तट पर एक छोटा सा टुकड़ा है। हम इस पर अपनी आंखें नहीं मूंद सकते और इसे भूल नहीं सकते। इसके बाद सन 1948 से पाद्रोआद (पुर्तगाल को गोवा के साथ-साथ शेष भारत में बिशप की नियुक्ति का अधिकार भी मिल गया) प्रश्न के संबंध में नेहरू जी ने प्रयास शुरू किया। उसके बाद पुर्तगाली सरकार ने डॉ. पुंडलिक गायतोंडे को पुर्तगाल में सजा के रूप में भेजा। इसका निषेध करते हुए पंडित नेहरू ने पुर्तगाल सरकार को पत्र लिखा। लेकिन नेहरू द्वारा कई सत्याग्रहियों को गोवा में प्रवेश पर लगाया गया प्रतिबंध और शुरुआत में गोवा मुक्ति के लिए सैनिक कार्यवाही करने में उनकी देरी के कारण गोमांतकियों के मन में उनके बारे में मिश्रित भावनाएं हैं। अंत में ऑपरेशन विजय की सैनिक कार्यवाही के कारण ही गोवा मुक्त हुआ।
20वीं शताब्दी के पहले का समय यानी महान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का कालखंड। इस कालखंड में त्रिस्तांव ब्रागांझा कुन्हा, इस महान गोमांतकीय देशभक्त ने ऐसी घोषणा की कि, गोवा का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय संग्राम का ही एक अंश है। सन 1928 में गोवा कांग्रेस कमेटी के प्रयासों के बाद के समय में गोमांतकीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए कमेटी की स्थापना की गई। यह कमेटी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संलग्न थी। जिसके कारण कार्य को प्रत्यक्ष रूप से आकार देने वाला नेतृत्व और कार्यकर्ता भी निर्माण हो सके। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष रूप से भाग लिए हुए अनेक गोमांतकीय स्वतंत्रता सेनानी थे। पुरुषोत्तम काकोडकर उनमें से एक है। उनकी पहल पर सन 1943 में गोवा सेवा संघ का निर्माण हुआ। बाद के समय में इस संघ ने सन 1946 वर्ष का क्रांति पर्व शुरू करने के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
ल्या गोवन यूथ लीग ने तब तक, स्वतंत्रता की इच्छा से दूर रहे सामान्य युवकों को, और उसके बाद गोवा मुक्ति तक नि:शस्त्र तथा सशस्त्र संग्राम खड़ा कर, स्वतंत्रता संग्राम में सबको खींचकर लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इतनी बड़ी पुर्तगाली सत्ता से टक्कर देने वाले क्रांतिपर्व को छोटे से गोवा के इतिहास की प्रेरक और संस्मरणीय शौर्य गाथा कही जानी चाहिए। समाज के सभी स्तरों के व्यक्तियों ने इस क्रांति पर्व के यज्ञ में अपना अपना सहयोग दिया है। सन 1946 से 1961 तक के समय में गोवा मुक्ति के लिए कम से कम 1000 से 1200 व्यक्तियों ने कारावास भोगा। इनमें से कुछ लोगों को लंबे समय की सजा हुई थी। कुछ लोगों को पुर्तगाल के कारागृह में दिन बिताने पड़े थे। कुछ लोगों को अफ्रीका के अंगोल जैसी जगह भेजा गया था। गोवा के आखाद कारावास में तो गोवा के अधिकांश स्वतंत्रता सेनानियों को बंदी बनाकर रखा गया था। जिन स्वतंत्रता सेनानियों ने सशस्त्र संघर्ष किया और बाहर से आकर आजादी की लड़ाई लड़ी, उन स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या गिनना मुश्किल है। गोवा के इस क्रांति पर्व में लगभग 70 स्वतंत्रता सेनानियों को वीरगति प्राप्त हुई। इनमें से आधे से ज्यादा गोमांतकीय थे तथा अन्य लोग भारत के अलग-अलग प्रदेशों से आए हुए वीर योद्धा थे। इसके अलावा सामूहिक सत्याग्रह में भाग लेने के लिए देशभर से हजारों लोगों ने गोवा मुक्ति के लिए योगदान दिया है। इनमें ना.ग. गोरे, मधु लिमये, त्रिदिप चौधरी जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता शामिल थे। यह सारा इतिहास इन छोटी-छोटी घटनाओं का विवरण नहीं है। बल्कि यह महान और स्फूर्तिदायी स्वतंत्रता संग्राम की, कुछ दुर्लभ मामलों में खून से सनी हुई कहानी है। गोमांतक की इस क्रांतिरूपी वीरगाथा में सामान्य व्यक्ति अपने उपलब्धियों से नायक और नायिका बन गए हैं। उनके त्याग की और पराक्रम की गाथा कभी ना खत्म होने वाली है। इन सब ने भारतीय आजादी को परिपूर्णता लाने वाला भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक बहुत शानदार अध्याय लिखा है। वह अध्याय है, गोवा का मुक्ति संग्राम।
महेश पालीवाल