भाऊ से भाई तक गोवा की राजनीति

भाऊसाहब का सिद्धांत था कि प्रशासन लोकोन्मुख और केवल जनता की सुविधा के लिए होना चाहिए। यही सिद्धांत पर्रिकर ने अनेक वर्षों के बाद चलाया। इन सभी प्रयासों और ईमानदारी के कारण सन 2002 में हुए चुनाव में पार्टी के 17 विधायक विजयी हुए।

भाऊ साहेब बांदोडकर और मनोहर पर्रिकर दोनों को ही गोवा के मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बात प्रमुखता से करनी पड़ी थी। भाऊ साहेब के ऊपर जिम्मेदारी थी, राज्य के आधार का पुनर्निर्माण करने की तो पर्रिकर के ऊपर जिम्मेदारी थी राज्य की बिखरी हुई व्यवस्था को नए तरीके से ठीक करने की। दोनों का ही काम उतना ही महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी का था। 20 दिसंबर 1963 से 12 अगस्त 1973 की कालावधि में मुख्यमंत्री के रूप में जो कार्य भाऊ ने गोवा के लिए किया है लोग आज भी भूले नहीं है।

गोवा के लिए सन 1990 से 2000 तक का समय एक बुरे सपने की तरह था। राजकीय अस्थिरता, अव्यवस्थित एवं ढहता प्रशासन, बिगड़ी हुई आर्थिक स्थितियां, बढ़ती हुई बेरोजगारी और इन सब के कारण व्याप्त भ्रष्टाचार, इससे 10 वर्षों में गोवा सभी स्तरों पर पिछड़ गया। गोवा की प्रतिमा देश-विदेश में धुंधली हो गई। एक सभ्य राज्य असभ्यों की श्रेणी में चला गया। राज्य के उद्योग धंधे भी बैठ गए। गोवा का अब क्या होगा, यह प्रश्न सरेआम पूछा जाने लगा। राजनीतिक क्षेत्र में तो विश्वास शब्द को कोई भी कीमत नहीं थी। सरकारें आती थीं, सरकारें गिरती थीं। स्वार्थ राजकीय लोगों का स्वभाव बन गया था। ऐसी स्थिति में 24 अक्टूबर 2002 को मनोहर पर्रिकर राज्य के मुख्यमंत्री बने। उनके कंधों पर राज्य की पूरी तरह बिखरी हुई व्यवस्था को ठीक करने की कठिन जिम्मेदारी थी। पर्रिकर ने यह जिम्मेदारी बहुत अच्छी तरह निभायी। इसके साथ ही गोवा को बहुत समय के बाद राजनीतिक स्थिरता देने में भी वे सफल हुए।

गोवा के इतिहास में भाऊ साहेब बांदोडकर ने ऐसे अनेक कार्य किए हैं, जो इतिहास में हमेशा दर्ज रहेंगे। बहुजन समाज को बिना डरे जीने का मंत्र दिया। सामान्य जनता के लिए शिक्षा के द्वार खोले। गरीबों को उनका हक दिया। आज गोवा में शान से खड़ी हुई अनेक चीजों का श्रेय भाऊसाहेब को जाता है। बोंडला का अभयारण्य, सालवाली का बांध, गांव-गांव में दिखने वाले प्राथमिक विद्यालय, कला अकादमी, गोवा विश्वविद्यालय आदि। राज्य की विभिन्न नदियों पर पुल बनाने का विचार भाऊ का ही था। गोवा के सर्वांगीण विकास की स्पष्ट कल्पनाएं उनके दिमाग में थी। यदि भाऊ कुछ और वर्ष जीवित होते तो गोवा का बदला हुआ चेहरा आज हमें देखने को मिलता। भाऊ साहेब के सामाजिक सरोकार जितने सामान्य लोगों को आकर्षित करने वाले तथा दिलचस्प थे, उतनी उनकी राजनीति भी लोगों को पसंद आती थी। भाऊ के कारण लोगों को सामाजिक सरोकार और राजनीति कभी अलग नहीं लगे।

ऐसी बात नहीं है कि, भाऊसाहेब के समय राजनीतिक कठिनाइयां, दल के अंदर असंतुष्टि, दल की फूट, दल- बदल इत्यादि बातें नहीं हुई। सन 1970 में कृष्णराय बाबूराव नाईक के नेतृत्व में विद्रोह हुआ और सात विधायक म. गो. दल से बाहर निकल गए। तब इस पक्ष के पुराने विरोधी दल यूनाइटेड गोवन्स के पांच विधायक अपने दल में मिलाकर सरकार बचाने की कुशलता भाऊ ने दिखाई। इसका गोवा के राजनीतिक इतिहास में कोई तोड़ नहीं है।

आज गोवा के लोगों को दल की फूट और दल- बदल से अत्यंत चिढ़ है। उस समय भी नहीं थी, ऐसी बात नहीं है। अंतर इतना ही है कि, कृष्णराय बाबूराव नाईक तथा दत्ताराम चोपड़ेकर नेतृत्व में म. गो. दल में पड़ी हुई फूट लोगों को अच्छी नहीं लगी। इसीलिए इन सबको लोगों का रोष सहना पड़ा। परंतु यूनाइटेड गोवन्स में फूट डालकर सरकार बचाने की भाऊसाहब की कोशिशों की लोगों ने तारीफ की। लोगों की यह भावना थी कि, भाऊ साहब सब कुछ समाज के लिए ही कर रहे हैं। भाऊ साहब की राजनीति समाज उन्मुख थी। यह इसका अच्छा उदाहरण है।

भाऊ साहब के पश्चात उनकी कन्या शशिकला काकोडकर ने उनकी विरासत चलाने का प्रयास किया। परंतु भाऊ की तरह राजनीति और सामाजिक सरोकार उन्हें नहीं आया। दल के अंदर के विवाद और कलह का सफलता पूर्वक सामना अधिक समय तक नहीं कर पाईं। भाऊ साहेब की तरह समाज पर उनकी इतनी पकड़ भी नहीं थी। जिसके परिणामस्वरूप 23 अप्रैल 1979 को 5 वर्ष का कार्यकाल खत्म होने के लिए, जब 3 वर्ष का समय बाकी था, उनकी सरकार गिर गई। दल की बगावत ही उसका कारण था। वैसे देखा जाए तो शशिकला दीदी ने भाऊ के पद चिन्हों पर चलकर गोवा के विकास को तेज करने का अच्छा प्रयत्न किया था। भाऊ के सपनों की कुछ योजनाएं भी उन्होंने पूरी की। कुछ नई योजनाएं भी शुरू की। परंतु दिलखुश देसाई, दयानंद नार्वेकर, शंकर लाड आदि ने जो उनके मार्ग में राजनीतिक गतिरोध पैदा किया था, वह उन्हें दूर नहीं कर सकीं।

सन 1980 में प्रताप सिंह राणे गोवा के मुख्यमंत्री बनें। राणे म. गो. दल की ओर से राजनीति में प्रवेश करने वाले भाऊ और बाद में शशिकला दीदी के सरकार में मंत्री थे। सन 1977 में दल के अंतर्गत कलह से तंग आकर उन्होंने म. गो. दल छोड़ दिया। प्रताप सिंह राणे की साफ सुथरी छवि का फायदा कांग्रेस ने सन 1980 के चुनाव में उठाया। इस चुनाव में राणे को आगामी मुख्य मंत्री के रूप में आगे किया गया। गोमांतकीय जनता ने कांग्रेस को मत दिया। इस चुनाव में म. गो. दल पूरी तरह से नष्ट होने की कगार पर था। कांग्रेस के लिए यह अच्छा अवसर था। गोवा की राजनीति में आने के लिए उसे लगभग 17 वर्ष तक राह देखनी पड़ी थी। प्रताप सिंह राणे ने पहले 5 वर्ष तक लोगों की अपेक्षाएं पूरी की। अनेक अच्छी योजनाएं चलाईं। राज्य में बुनियादी सुविधाएं बढ़ाने के प्रयत्न किए। सड़कें, बिजली, पानी, शिक्षा, पुल बनाना, खेती, परिवहन आदि की ओर ज्यादा जोर दिया। परंतु आगे चलकर उन्हें भी दल के अंतर्गत कलह, प्रशासन का भ्रष्टाचार, दल के लोगों का असंतोष आदि को झेलना पड़ा।

लगातार तीसरी बार सत्ता आने के बाद राणे की सरकार केवल साढ़े 3 महीने में ही गिर गई। कांग्रेस के लुईस प्रोत बारबोझ, (सभापती) चर्चिल अलेमाव, सोमनाथ जुवाटकर, मावीन गुदीन्दो, जे. बी. गोनसाल्वीस, लुईस आलेक्स कारदोज एवम फरेल फुटार्दो के अलग हो जाने से राणे सरकार अल्पमत में आ गई। इसके बाद अगले 10 वर्षों तक गोवा की राजनीति वस्तुतः अराजकता की स्थिति में रही। राणे सरकार को गिराकर म. गो. दल की सहायता से 24 मार्च सन 1990 को सत्ता में आए हुए पु. लो. आ. (पुरोगामी लोकतांत्रिक गठबंधन) सरकार केवल 9 महीने में ही गिर गई। पहले 15 दिन चर्चिल आलेगाव को छोड़कर बचे हुए समय में डॉक्टर लुईस आलक्स बारबोझा इस सरकार में मुख्य मंत्री थे। ऐसा कहा जा सकता है कि विचार न मिलने के कारण, कुछ मुद्दों पर असहमति के कारण और दोनों दलों में राजनीतिक गहराई और परिपक्वता की कमी के कारण सरकार गिर गयी। कांग्रेस उस समय नयी थी। अकेले लुइस प्रोत बारबोझा को छोड़ दिया जाए तो, सभी पहली बार चुन कर आए थे। म. गो. मे रमाकांत खलप, शशिकला काकोडकर, रवि नाईक, डॉक्टर काशीनाथ जलमी, सुरेंद्र शिरसाट आदि लोग काफी अनुभवी थे। परंतु सरकार को टिका कर रखने में उनके अनुभव का कोई भी उपयोग नहीं हुआ। दल में दीदी-भाई की राजनीति चल रही थी। मैं या पहले तू की प्रतियोगिता रवि नाईक ने जीती। सात लोगों सहित दल से बाहर निकल गये। पहले कांग्रेस की सहायता से उन्होंने सरकार स्थापित की और बाद में सीधे कांग्रेस में ही शामिल हो गए। इस तरह रवि नाईक गोवा के छठवें मुख्यमंत्री बने। गोवा की राजनीति का पतन यहीं से शुरू हुआ। मूल्य आधारित राजनीति को किनारे कर दिया गया और सत्ता के लिए राजनीति शुरू हो गई। डॉक्टर विल्फ्रेड डिसूजा काफी दिनों से मुख्यमंत्री बनना चाह रहे थे। उन्होंने अगले दो वर्षों में रवि नाईक को नीचे गिरा दिया। डॉ विली सरकार में रवि नाईक उपमुख्यमंत्री भी बने। आगे रवि ने तत्कालीन राज्यपाल भानु प्रकाश सिंह की मदद से विली सरकार को बर्खास्त कर दिया। इसके कारण केवल तीन दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने रवि को जाना तो पड़ा ही, राज्यपाल भानुप्रकाश सिंह भी मुश्किल में आ गए। केंद्र ने उनका त्यागपत्र मांग लिया। इन 5 वर्षों में राज्य की आर्थिक स्थिति पूरी तरह डगमगा गई।

सन 1994 के चुनाव के बाद प्रताप सिंह राणे फिर से एक बार मुख्यमंत्री बने। इस समय कांग्रेस का यह निर्णय योग्य था। क्योंकि राणे ने अगले साढ़े तीन वर्षों तक गोवा को स्थिर प्रशासन दिया। एक बात यहां प्रमुखता से बतानी आवश्यक है, कि प्रताप सिंह राणे को सन 1990 में हराने के लिए जिन माविन गुदिन्दो, सोमनाथ जुवटकर, लुईस आलेक्स अरदोज आदि ने पहल की थी, उन्हीं को सन 1994 के चुनाव में कांग्रेस ने फिर से अपने दल में लेकर टिकट दिए और आगे राणे की सरकार में सन 1995 में तीनों को मंत्री भी बना दिया। राणे की सरकार पहले की तरह लोकप्रिय नहीं थी। उनके कार्यकाल में राज्य की आर्थिक स्थिति पूरी तरह से नीचे आ गई थी। योजनाएं चल नहीं रही थी। विकास के कार्य पूरी तरह से रुके हुए थे। मंत्रिमंडल में नाराजगी थी। अंत में राणे के एक सहकर्मी डॉ विली ने फूट डालकर 10 लोगों को सरकार से बाहर निकाला। विली को इस समय सरकार की स्थापना के लिए म. गो. दल से सहायता भी मिली, म. गो. दल के कुछ लोग सरकार में मंत्री भी हुए परंतु यह सरकार भी अधिक समय तक नहीं टिकी। लुईझिन फालेरो ने कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए सरकार गिराई और कुछ समय तक वह भी मुख्यमंत्री रहे। सरकार के ही कुछ लोगों द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण वह सरकार भी गिर गई। भारतीय जनता पार्टी ने पुनः विली को सत्ता में आने के लिए समर्थन देने से मना कर दिया। परिणाम स्वरूप गोवा में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। राष्ट्रपति शासन के लगभग 4 महीने के बाद जून सन 1999 में राज्य में चुनाव हुए। इस चुनाव की विशेषता यह थी कि कांग्रेस ने पुन:एक बार सभी दलबदलुओं को टिकट दिए। दुर्भाग्य से जिस फूट और दल -बदल के कारण म. गो. कठिनाई में आया था उसी फूट और दल -बदल को प्रोत्साहन दिया। सन 1989 के चुनाव के बाद सत्ता में आई हुई राणे सरकार को नीचे गिराने के लिए जिस चर्चिल आलेमाव ने पहल की थी, उसी दल के साथ सरकार बनाने के लिए म. गो. दल आगे बढ़ा था। परंतु यह बात अलग है कि, पुलोवा सरकार अधिक समय तक नहीं चल पाई। गोवा में इसी समय भाजपा ने धीरे-धीरे अपनी बुनियाद मजबूत करने की दिशा में प्रयत्न करने शुरू कर दिए थे। सरकार विरोधी मोर्चा, धरना, तथा अन्य प्रकार के आंदोलन करने के साथ-साथ पार्टी, संगठन को भी मजबूत करने का कार्य भी चल रहा था। गोवा विधानसभा में सन 1994 तक भाजपा का एक भी विधायक नहीं था। समय-समय पर चुनाव में उम्मीदवारों को जब खड़ा किया गया, तो उन्हें 500 वोट मिलना भी मुश्किल था। भाजपा के द्वारा सन 1990 से 1994 तक की गई जन जागृति तथा विभिन्न विषयों पर किए गए आंदोलनों की सफलता के रूप में सन 1994 के चुनाव में भाजपा के मनोहर पर्रिकर, दिगंबर कामत, श्रीपाद नाईक तथा नरहरि हलदणकर नामक चार विधायक विजयी हुए। इस चुनाव में म. गो. तथा भाजपा का गठबंधन था। म. गो. के चार विधायक विजयी हुए। परंतु प्रताप सिंह राणे की सरकार बनाने के लिए उसमें से 4 विधायक तोडे और म. गो. और भाजपा विधानसभा के प्रमुख विपक्ष बन गए। भाजपा को छोटे से पौधे से वट वृक्ष बनाने का श्रेय पार्टी के जी-जान से मेहनत करने वाले, रात दिन ईमानदारी से काम करने वाले, अनेक कार्यकर्ताओं तथा इस पार्टी के नेताओं को जाता है। इस सफलता में सभी ने अपनी अपनी भूमिका निभाई है। मनोहर पर्रिकर ने अपनी तर्कसंगत और समझौताहीन मुद्दों से विधानसभा में और विधानसभा के बाहर भी अपनी पार्टी की एक स्वतंत्र और साफ सुथरी प्रतिमा निर्माण करने का प्रयास किया। जिस- जिस समय पार्टी कठिनाई में आने की संभावना होती थी, तब -तब उन्होंने स्वयं ढाल बनकर पार्टी को उसे संकट से बाहर निकालने का प्रयास किया। विधानसभा में म. गो. जैसी सक्षम पार्टी थी, फिर भी पर्रिकर ने भाजपा की स्वतंत्रता छाप निर्माण की। उन्होंने विभिन्न विषयों पर विचार किया। कई मामलों को प्रकाश में लाया और भ्रष्टाचार के कई मामलों को उजागर किया। बिजली भ्रष्टाचार मामला, नागरिक आपूर्ति भ्रष्टाचार मामला जैसे अनेक मामलों को उजागर करने के कारण वे प्रसिद्ध हुए। विरोधी पक्ष के नेता के रूप में पार्रिकर सफल रहे। उनके विरोधी पक्ष नेता के पद के समय भाजपा की साफ सुथरी छवि और भी प्रसिद्ध हुई। दल को बहुत बड़ी मात्रा में जनता का समर्थन मिला। जिसने पार्टी के पूरे दायरे को व्यापक बना दिया।

24 अक्टूबर सन 2000 में मनोहर पर्रिकर मुख्य मंत्री बने। तब लोगों की भाजपा से अपेक्षाएं बहुत ज्यादा बढ़ गई थीं। परंतु उन्हें पूरा करना इतना आसान नहीं था। पहले की सरकार के समय राज्य की ढलती हुई आर्थिक स्थिति, अस्त-व्यस्त प्रशासन, प्रशासन में बढ़ा हुआ भ्रष्टाचार, निधि के अभाव में रुके हुए विकास कार्य, बढ़ती हुई बेरोजगारी, शिक्षा की गुणवत्ता में आई हुई गिरावट, राज्य के राजस्व में भी गिरावट ऐसी एक दो नहीं काफी बातें थी। इस तरह की कुल अस्थिरता के कारण राज्य की बिगड़ी हुई छवि सुधारने की जिम्मेदारी भी उन पर ही थी। अक्टूबर 2000 से फरवरी 2002 इन 16 महीनों में प्रशासन की आर्थिक स्थिति को ठीक करने का महत्वपूर्ण कार्य पर्रिकर को करना था। उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य का राजस्व लगभग 65 से 70 करोड़ रुपये प्रति माह था। केवल 16 महीनों में वह 50% बढ़ाने में पर्रिकर सफल हुए। मई 2002 में हुए चुनाव के पहले राज्य का राजस्व 70 करोड़ से कुल 105 करोड़ तक पहुंच गया था। राज्य में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की योजना उन्होंने सफलतापूर्वक लागू की। कुल डेढ़ हजार कर्मचारियों ने इस योजना का फायदा उठाया। कर्मचारियों की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति से सरकार के प्रति माह कुछ करोड़ रूपए बच गए। इसी समय शिक्षा क्षेत्र को ठीक करने का भी उन्होंने प्रयास किया। नए युवा शिक्षकों का समावेश किया गया। नए कर्मचारी भर्ती के लिए पूर्व प्रशिक्षण योजना चलाई गयी। इस योजना के कारण सैकड़ों बेरोजगार युवक युवतियों को प्रशिक्षणकालीन अनुदान दिया जाने लगा। बिजली क्षेत्र को भी ठीक तरह से समायोजित कर घाटे मे चल रहे विभाग को लाभ में लाने में पर्रिकर सफल हुए। इसमें विद्युत मंत्री दिगंबर कामत का भी बहुत बड़ा योगदान है। पर्रिकर ने पुलिस विभाग को सक्षम कर राज्य की बिगड़ी हुई कानून और व्यवस्था को बेहतर बनाने का प्रयास किया। प्रशिक्षण कालीन अनुदान पर 1000 से अधिक युवक- युवतियों को पुलिस में दाखिल कर लिया गया। एक विशेष बात यह थी कि राज्य का राजस्व बढ़ते समय उन्होंने जो बजट प्रस्तुत किया था वह कर मुक्त था। इसीलिए राजस्व बढ़ाने के प्रयासों का परिणाम सामान्य जनता पर नहीं हुआ।

मुख्यमंत्री के रूप में प्रशासन चलाते समय उन्होंने अधिक पारदर्शिता बनाए रखने, प्रशासन को लोकोन्मुख बनाने तथा कोई भी निर्णय लेते समय लोगों को विश्वास में लेने का कदम उठाया। प्रशासन में स्थित भ्रष्टाचार कम किया। उन्होंने ऐसा प्रयास किया कि जिन विभागों का सामान्य जनता से सीधा संबंध आता है, वे विभाग और उन विभागों के कर्मचारी अधिक संवेदनशील रूप से व्यवहार करें। उन्होंने स्मार्ट कार्ड जैसी योजनाएं चलाईं। सूचना प्रौद्योगिकी को अपनाया। रुके हुए विकास कार्य फिर से शुरू किए। ऐसी अनेक बातों का श्रेय पर्रिकर को जाता है। इसीलिए लोग पर्रिकर की तुलना बांदोडकर से करते हैं। भाऊसाहब का सिद्धांत था कि प्रशासन लोकोन्मुख और केवल जनता की सुविधा के लिए होना चाहिए। यही सिद्धांत पर्रिकर ने अनेक वर्षों के बाद चलाया, यह एक सच्चाई है। इन सभी प्रयासों और ईमानदारी के कारण सन 2002 में हुए चुनाव में पार्टी के 17 विधायक विजयी हुए। सरकार बनाने के लिए आवश्यक विधायक मिलने में उन्हें कठिनाई नहीं हुई। महाराष्ट्रवादी गोमांतक दल के दो और युगोडेपा दल के तीन ऐसे पांच विधायकों ने पर्रिकर को उत्साह पूर्वक अपना समर्थन दिया राज्य में पुनः भाजपा की सरकार सत्ता पर आई। पर्रिकर की घुडदौड़ प्रारंभ हो गई। सन 1994 में चार विधायक 1999 में 10 विधायक और 2002 में 18 विधायक। यह विकास का आलेख किसी भी पार्टी और पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए गौरवपूर्ण है। निश्चित ही इसके पीछे ईमानदारी से किया गया कार्य तथा मेहनत की बहुत बड़ी भूमिका है।

मनोहर पर्रिकर के द्वारा गोवा विकास के जिन बीजों को बोया गया था, आज उन्हें डॉ. प्रमोद सावंत सींच  रहे हैं। उनको देखरेख में गोवा विकास के नये आयामों को छू रहा है।

 

 

 

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