लोकाभिमुख धर्मज्ञ राजा

मर्यादा पुरुष श्रीराम की महिमा अपरम्पार है। एक आदर्श और नीतिगत जीवन जीने के लिए श्रीराम के आदर्श को अपने जीवन में उतारना होगा। भगवान राम केवल शस्त्र ही नहीं बल्कि शास्त्र के भी ज्ञाता थे। उनके जीवन के आदर्श हमारे लिए अमृत कलश के समान हैं। 

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम और उनका जीवनादर्श सम्पूर्ण सृष्टि के सम्यक ढंग से संचालन के लिए अमृत सूत्र हैं। वे भारत की आत्मा के रूप में सतत् अमृत कलश से राष्ट्र की रग-रग में प्रवाहित तो हो ही रहे हैं, साथ ही पुण्यता की दैवीय आभा से भी राष्ट्र जीवन का पालन-पोषण कर रहे हैं। राम पुत्र के रूप में, भाई के रूप में, पति के रूप में, शिष्य के रूप में, आदर्श राजा के रूप में अपने समस्त कर्त्तव्यों के पालनकर्ता के रूप में जन- जन के मन में रचे बसे हुए हैं। गुरुभक्ति, मातृभक्ति, पितृभक्ति, प्रजापालन, धर्मपालन, जन्मभूमि, मातृभूमि के प्रति अनन्य निष्ठावान श्रीराम का आदर्श-जीवन के प्रत्येक कर्म में सबको धर्म की राह दिखाता है। वे नीति धर्म-विधान-संचालन के नियामक हैं। किसी भी सीमा या विभाजन से परे घट-घटवासी राम सबके हैं और सबमें राम है, यह बोध वाक्य ही उन्हें सर्वत्र व्याप्त करता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने उनकी महिमा का बखान करते हुए कहा है कि –

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।

प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं।

कहहु सो कहा जहां प्रभु नाहीं॥

प्रभु श्रीराम भारत ही नहीं अपितु अखिल विश्व को ‘धर्म-राज्य – राम-राज्य’ का पथ प्रशस्त करते हैं। इस लोक से लेकर परलोक की कामना तक में श्रीराम की महिमा सबको एकसूत्र में बांधे रखती है। उनके अवतरण काल से लेकर उनका सम्पूर्ण जीवन आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना का काल रहा है। ठीक इसी भांति उनके द्वारा स्थापित ‘राम राज्य’ भी राज्य के संचालन के सर्वश्रेष्ठ आदर्श के रूप में सबके मानस में विद्यमान है। एक राजा कैसा होना चाहिए? राजा या शासनकर्ता की प्रजापालन, धर्मपालन की नीति कैसी होनी चाहिए? यदि इन आदर्शों को सीखना है, अनुकरण करना है तो श्रीराम को देखना चाीहए।

कुछ उदाहरणों से राम कैसे थे और राम राज्य क्या था? वे किस प्रकार से राजा के रूप में आदर्श बनें? उनके राज्य में प्रजा कैसी थी? यहां सार संक्षेप में महर्षि वाल्मीकि और बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी की दृष्टि से जानने समझने का प्रयत्न करेंगे।

राम क्या हैं? यह यहां पर और अधिक सुस्पष्ट हो जाता है –

रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः।

राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः॥

अर्थात् श्रीराम धर्म के मूर्तिमान् स्वरूप हैं। वे साधु और सत्यपराक्रमी हैं। जैसे इन्द्र समस्त देवताओं के अधिपति हैं, उसी प्रकार श्रीराम भी सम्पूर्ण जगत् के राजा हैं। भगवान राम केवल शस्त्र ही नहीं बल्कि शास्त्र के भी ज्ञाता थे। अतएव वे धर्मानुसार शास्त्र की आज्ञा से राज्य का संचालन करते थे। वेद के विद्वान के रूप में भी उनकी ख्याति थी। भगवान श्रीराम को जब राजा के आदर्श के रूप में देखते हैं तो वह आदर्श ‘तत्वनिष्ठ-धर्मनिष्ठ’ स्वरूप में महान रुप में प्रतिष्ठित है। एक राजा के शासन की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उसके राज्य में सर्वत्र प्रसन्नता, सुख समृध्दि, शान्ति, आरोग्य, समन्वय, साहचर्य, आत्मानुशासन, प्राणिमात्र के प्रति कल्याण के भाव विचार और कार्य सर्वत्र दिखाई दें। सभी ओर सौमनस्य प्रेमभाव- धर्मभाव दृष्टिगोचर हो। कहीं भी किसी भी प्रकार की विपत्ति न हो। किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो। सब अपने अपने ‘स्वधर्म’ का पालन करते हुए जीवन निर्वाह करें। इन समस्त वैशिष्टयों के अतिरिक्त भी मनुष्य एवं प्राणिमात्र के कल्याण एवं उन्नति के जितने भी प्रयोजन/कार्य हो सकते हैं। वे सभी भगवान श्रीराम के राज्य का स्वभाव रहे हैं। इसीलिए ‘रामराज्य’ मानक राज्य के रूप में जन-जन की चेतना में विद्यमान है।

बाबा गोस्वामी तुलसीदास ने रामराज्य के विषय में लिखा है –

दैहिक दैविक भौतिक तापा।

राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥

सब नर करहिं परस्पर प्रीती।

चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

अर्थात् ‘रामराज्य’ में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते (सताते) हैं। सभी मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) के अनुसार अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं।

इसी प्रकार राम राज्य में सर्वत्र ‘धर्म’ ही दृष्टव्य होता है। अभिप्रायत: धर्म ही नियामक तत्व बनकर सभी में विद्यमान हो चुका है।

चारिउ चरन धर्म जग माहीं।

पूरि रहा सपनेहुं अघ नाहीं॥

राम भगति रत नर अरु नारी।

सकल परम गति के अधिकारी॥

अर्थात् धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगत में परिपूर्ण हो रहा है, स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति (मोक्ष) के अधिकारी हैं।

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।

सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।

नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥

अर्थात् अल्पायु में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है।

भगवान राम के राज्य में प्रजाजन कैसे हैं इसका सुंदर वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि –

सब निर्दंभ धर्मरत पुनी।

नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥

सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।

सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी॥

अर्थात सभी दम्भरहित हैं, धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान हैं। सभी गुणों का आदर करने वाले और पण्डित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ (दूसरे के किए हुए उपकार को मानने वाले) हैं, कपट-चतुराई (धूर्तता) किसी में नहीं है।

इसके अतिरिक्त रामराज्य में प्रकृति-सहचरी के रूप में थी। प्रकृति का इतना अनुपमेय संतुलन अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता है। इस सन्दर्भ में –

लता बिटप मागें मधु चवहीं।

 मन भावतो धेनु पय स्रवहीं॥

ससि संपन्न सदा रह धरनी।

त्रेतां भइ कृतजुग कै करनी॥

अर्थात् बेलें और वृक्ष मांगने से ही मधु (मकरन्द) टपका देते हैं। गायें मनचाहा दूध देती हैं। धरती सदा खेती से भरी रहती है। त्रेता में सत्ययुग की करनी (स्थिति) हो गई।

भगवान राम के राज्य में उनके नेतृत्व में प्रकृति का जो अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। वह सर्वत्र सर्वोच्च आदर्श के रूप में राह दिखाता है। इसी सन्दर्भ में ‘राम राज्य’में –

सागर निज मरजादां रहहीं।

डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥

सरसिज संकुल सकल तड़ागा।

अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा॥

अर्थात् श्रीरामचंद्रजी के राज्य में चंद्रमा अपनी (अमृतमयी) किरणों से पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं। सूर्य उतना ही तपते हैं, जितने की आवश्यकता होती है और मेघ मांगने से (जब जहां जितना चाहिए उतना ही) जल देते हैं।

ऐसे प्रजापालक-धर्म के साक्षात् स्वरूप भगवान श्रीराम ने धर्म की मर्यादा का जो अवर्णनीय उदाहरण अपने रामावतार में प्रस्तुत किया, वह युगों-युगों तक, जब तक भारत का अस्तित्व है, जब तक सृष्टि का अस्तित्व है। सभी के लिए अनुकरणीय है। उनके राज्य की समस्त मर्यादाओं का एक ही आदर्श है-वह है धर्म। रामराज्य में वस्तुत: कोई किसी का शत्रु नहीं है। किन्तु फिर भी धर्मविमुखों को धर्मानुसार आचरण करने का विधान है। राम के अश्वमेध यज्ञ भी ‘धर्म’ की सत्ता स्वीकार कर धर्म राज्य चलाने के प्रतीक थे। भगवान राम इसलिए राजा के आदर्श के रूप में युगों युगों से अधिष्ठित हैं, क्योंकि उन्होंने सभी को अपना माना, उसे अपने परिवार का अभिन्न अंग मानकर स्वीकार किया। वे राम ही थे जो धर्म की मर्यादा में बंधकर-पितृ आज्ञा को धर्म आज्ञा मानकर वनवास को स्वीकार कर अयोध्या का राजसिंहासन छोड़कर चले गए, क्योंकि सिंहासन नहीं बल्कि धर्म की मर्यादा और अनुशासन उनका स्वभाव था। वनवास काल में उन्होंने किन्हें अपना सहयोगी बनाया? क्या किन्हीं राजवंशों को-राजा महाराजाओं को? नहीं..! उन्होंने वानर, भालू, रीछ, वनवासियों को अपना सहचर बनाया। ऋषि मुनियों के चरणों की सेवा कर उनके वचनों को धर्म आज्ञा मानी। राम जहां जहां से गुजरे वे वहां-वहां के हो गए। उनसे जुड़ा हुआ प्रत्येक स्थान श्रद्वा केन्द्र एवं देवालय के रूप में प्रतिष्ठित होकर लोक के साथ जुड़ गया। रामायणकालीन अखण्ड भारतवर्ष का एक एक कोना राममय हो गया। सर्वत्र श्रीराम का आदर्श स्वमेव समाविष्ट हो गया।

उन्होंने निषादराज गुह, केवट, भीलनी माता शबरी, सुग्रीव, अंगद, हनुमान, जाम्बवंत, नल-नील सहित अन्यान्य वनवासियों/गिरिजनों को अपना सहयोगी बनाया, मित्र बनाया। रावण सहित समस्त आसुरी शक्तियों का संहार किया। विभीषण को लंका के राजसिंहासन पर आसीन किया। लंका विजय के पश्चात माता और मातृभूमि की महत्ता बतलाते हुए उन्होंने कहा था –

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥

अर्थात् – हे! लक्ष्मण! मुझे स्वर्णमयी लंका भी अच्छी नहीं लगती। माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है।

भारतवर्ष को अपने स्वत्वबोध के साथ विश्वगुरु के सिंहासन पर पुनः विराजमान होने का पथ राजा रामचन्द्र के आदर्श एवं उनके द्वारा प्रणीत नीतियों के आलोक में ही दिखाई देता है। भारत भूमि तो वैसे भी सौभाग्यशाली रही है कि यहां धर्ममय-ज्ञान विज्ञान अनुसंधान एवं मनुष्य ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के कल्याण का सुपंथ विकसित हुआ। धर्म अध्यात्म ज्ञान की भूमि भारत से ऐसे ऐसे ईश्वरीय अवतारों एवं ऋषि महर्षियों का अवतरण हुआ जिन्होंने सम्पूर्ण सृष्टि के मंगल का दिशाबोध युगबोध प्रदान किया। प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राजा रामचन्द्र के आदर्शों का अनुकरण करें ‘राम राज्य’ के सहभागी बनें और नव्य- भव्य- दिव्य भारतवर्ष का निर्माण करें।

                                                                                                                                                                                      कृष्णमुरारी त्रिपाठी 

 

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