संघ के वैचारिक आधार श्री गुरुजी

राष्ट्र की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु श्री गुरुजी के दूरगामी प्रखर विचार आज भी प्रासंगिक हैं। जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय तथा गोवा को मुक्त कराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहीं। श्री गुरुजी के वैचारिक शस्त्र से शत्रुओं को सबक सिखाया जाना चाहिए।

माधव सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी, शक्तिशाली भारत की अवधारणा के अद्भुत, उद्भट व अनुपम संवाहक थे। श्री गुरुजी के संदर्भ में ‘थे’ शब्द कहना सर्वथा अनुचित होगा, वे आज भी पराक्रमी भारत, ओजस्वी भारत, अजेय भारत, निर्भय भारत, संपन्न-समृद्ध-स्वस्थ भारत व राष्ट्रवाद भाव के झर-झर बहते निर्झर झरने बने हुए हैं। वे शक्तिशाली भारत के अग्रदूत, संवाहक, प्रणेता के रूप में आज भी हमारे मध्य हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय प. पू. सरसंघचालक श्री गुरुजी के संदर्भ में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पुस्तक ‘श्री गुरूजी एक स्वयंसेवक’ में लिखते हैं – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन 1925 में डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने की थी, लेकिन इसे वैचारिक आधार द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्री गुरुजी’ ने प्रदान किया था। संघ-स्थापना के मात्र पंद्रह साल बाद ही डॉ. हेडगेवार ने अपने अवसान से पहले श्री गुरुजी को संघ के द्वितीय सरसंघचालक के दायित्व पर नियुक्त कर दिया था।

द्वितीय विश्वयुद्ध, भारत छोड़ो आंदोलन, आजाद हिंद फौज और नेताजी द्वारा देश की आजादी में योगदान, भारत विभाजन, देश की आजादी, कश्मीर विलय, गांधी हत्या, देश का पहला आम चुनाव, चीन से भारत की हार, पाकिस्तान के साथ 1965 व 1971 की लड़ाई- इतिहास बदलने और बनाने वाली इन घटनाओं के महत्त्वपूर्ण काल में न केवल श्री गुरुजी संघ के प्रमुख थे, बल्कि अपनी सक्रियता और विचारधारा से उन्होंने इन सबको प्रभावित भी किया था।

शक्तिशाली भारत के श्री गुरुजी की अवधारणा को अटलबिहारी वाजपेयी व नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी हुई करीब आधा दर्जन से अधिक केंद्रीय सरकार ने स्वीकार किया था। शक्तिशाली राष्ट्र की गुरुजी की अवधारणा को स्वतंत्रता संघर्ष के मध्य ही कांग्रेस ने स्वतंत्रता के पश्चात बनी हुई जवाहरलाल नेहरू की सरकार एवं लाल बहादुर शास्त्री की सरकार ने भी स्वीकार किया है।

विकसित भारत की नेहरू की परिकल्पना पर श्री गुरूजी का शक्तिशाली भारत का योजना कल्पक अत्यंत भारी व परिणामकारी था। श्री गुरुजी की यह योजना, नेहरू की अंग्रेजों व मुस्लिम आक्रमणकारियों की नीतियों के दबाव में दबी हुई भारत संबंधित नीतियों पर बहुत भारी पड़ती हुई दिखने लगी थी। सार्वजनिक चौक-चौराहों, सड़क-संसद, मठ-मंदिर, व्यावसायिक परिसरों आदि सर्वत्र स्थानों पर श्री गुरुजी की शक्तिशाली भारत की योजना की चर्चा में भारतीय न केवल रुचि लेने लगे थे, अपितु श्री गुरूजी के प्रति भारतीयों में श्रद्धा का वातावरण बनता जा रहा था। यह सब तब था जबकि श्री गुरूजी का प्रत्यक्ष राजनीति से कतई कोई सीधा संबंध नहीं था।

श्री गुरूजी के कृतित्व को नेहरू व भारत की समूची जनता ने भारत-कश्मीर विलय में उनकी भूमिका से देख लिया था। वल्लभ भाई के कहने पर जब श्री गुरूजी श्रीनगर गए थे तब ही कश्मीर का भारत में विलय संभव हो पाया था।

प्रसिद्ध लेखक संदीप बोमजाई अपने एक लेख ‘डिसइक्यिलीब्रियम : वेन गोलवलकर रेसक्यूड हरि सिंह’ में लिखते हैं- सरदार पटेल के कहने और राज्य के प्रधान मंत्री मेहरचंद महाजन के हस्तक्षेप के बाद गोलवलकर श्रीनगर गए और 18 अक्तूबर, 1947 को उन्होंने महाराजा हरि सिंह से मुलाकात की। महाराजा हरि सिंह व श्री गुरूजी की भेंट के पश्चात् ही कश्मीर का भारत में विलय हो पाया था। श्री गुरूजी को अपने कश्मीर विलय के प्रयासों से परिणाम मिलने का आत्मविश्वास तो था किंतु तब भी सावधान रहते हुए उन्होंने अपने सभी स्वयंसेवकों से कश्मीर के लिए प्राणपण से जागृत, चैतन्य व जीने-मरने-मारने को तैयार रहने हेतु कहा था।

पंजाब के प्रांत प्रचारक माधवराव मुले ने लिखा है कि महाराजा हरि सिंह ने गोलवलकर से कहा, मेरा राज्य पूरी तरह से पाकिस्तान पर निर्भर है। कश्मीर से बाहर जाने वाले सभी रास्ते रावलपिंडी और सियालकोट से गुजरते है। मेरा हवाई अड्डा लाहौर है। मैं भारत से किसी तरह संबंध रख सकता हूं।’

श्री गुरुजी ने उनसे कहा, आप हिंदू राजा है। पाकिस्तान के साथ विलय के बाद आपकी हिंदू प्रजा पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा। ये सही है कि आपका भारत के साथ कोई रेल, सड़क या हवाई संपर्क नहीं है, लेकिन इसको बनाया जा सकता है। आपके और जम्मू और कश्मीर के हित में अच्छा यही होगा कि आप भारत के साथ अपने राज्य का विलय कर लें। अरुण भटनागर की पुस्तक, इंडिया: शेडिंग द पास्ट, एम्ब्रेसिंग द फ्यूचर, 1906-2017 में भी श्री गुरुजी की कश्मीर विलय में भूमिका, का उल्लेख है।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में तो फिर जैसे श्री गुरुजी की अवधारणा से लोग ऐसे प्रभावित होने लगे थे कि उनके प्रति श्रद्धा का ज्वार उमड़ने लगा था। तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नीतिगत व सामरिक विषयों पर परामर्श करके कुछ नीतियां तय की थी।

गोवा मुक्ति आंदोलन व गोवा के भारत विलय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका उनकी शक्तिशाली भारत की अवधारणा का ही परिणाम था। इसके विपरीत भारत सरकार गोवा मुक्ति आंदोलन में लगे राष्ट्रभक्तों के साथ शत्रुता का आचरण बरत रही थी। गोवा मुक्ति आंदोलन में उस समय की कांग्रेस नीत भारत सरकार की भूमिका राष्ट्रहित की पीठ में ही छुरा घोपने वाली थी। श्री गुरुजी ने तब कहा था, गोवा में पुलिस कार्रवाई करने और गोवा को मुक्त कराने का इससे ज्यादा अच्छा अवसर कोई न आएगा। इससे हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और आसपास के जो राष्ट्र सदा हमें धमकाते रहते हैं, उन्हें भी पाठ मिल जाएगा। भारत सरकार ने गोवा मुक्ति आंदोलन का साथ न देने की घोषणा करके मुक्ति आंदोलन की पीठ में छुरा मारा है। भारत सरकार को चाहिए कि भारतीय नागरिकों पर हुए इस अमानुषिक गोलीबारी का प्रत्युत्तर दे और मातृभूमि का जो भाग अभी तक विदेशियों की दासता में सड़ रहा है, उसे अविलम्ब मुक्त करने के उपाय करें।

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