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जनमानस का भाव संसार

जनमानस का भाव संसार

by प्रवीण गुगनानी
in अध्यात्म, ट्रेंडींग, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
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कानून के गलियारों से होते हुए राजनीतिक दांव-पेंच व खींचातानी को झेलते हुए आखिरकार संघर्ष पर विराम लगा। भव्य मंदिर का निर्माण हो  रहा है और उसमें रामलला विराजित होंगे। एक लम्बे समय के बाद, एक लम्बे संघर्ष के बाद हमारी सांस्कृतिक परतंत्रता समाप्त हुई। ये जनआंदोलन नहीं तो और क्या था।

सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।

चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥

श्रीराम जन्मभूमि के भव्य निर्माण व उसके  लोकार्पण को केवल मंदिर निर्माण व लोकार्पण का अवसर मात्र कहना, भारत को कतई व्यक्त नहीं कर पाएगा। इस जन्मभूमि निर्माण और उसकी भूमिका के श्रीवर्धन वृतांत को हम बाबा तुलसी के शब्दों में श्रीराम का अयोध्या आगमन कहें तब संभवतः यह अवसर भारतीयजन के भवसंसार को अंशतः ही प्रकट कर पाएगा। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं –

भगवान श्रीराम अपने महल की ओर जा रहे हैं। आकाश फूलों की वृष्टि से भर गया। नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अपने -अपने घरों की छत पर खड़े होकर उनके दर्शन कर रहे हैं।

कंचन कलस बिचित्र संवारे।  सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।

बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।

अर्थात सोने के कलशों को सब भारतवासियों ने अपने-अपने दरवाजे पर सजा दिया है। द्वार पर बंदनवार, पताकाएं और श्रीचिह्न सज गए हैं।

हम कितने भाग्यशाली हैं। हम बाबा तुलसी की इस हर्षित अभिव्यक्ति में प्रकट हो पा रहे हैं। भगवान श्रीराम द्वारा रावण वध के पश्चात अयोध्या लौटने का तुलसी रचित दृष्य वृतांत, आज के हम भारतीयों जैसा ही है। हम भी तो श्रीराम के अंश हैं। हम बाबरी विध्वंस में सफल हुए हैं और उसके पश्चात भव्य मंदिर निर्माण पूर्ण कर उसमें रामलला को विराजित करने के अपने लक्ष्य में सफल हो गए हैं। हम इन पलों में, इन दिनों में, इतिहास के इस अनुपम कालखंड में श्रीराम के अयोध्या लौटने के अध्याय को पूर्णतः, अद्यतन रूप से, उसकी पूर्णता से व जीवंतता से जी पा रहे हैं।

जन्मभूमि मंदिर निर्माण व लोकार्पण के इस कालखंड के भवसंसार की चर्चा करें तो हमें विदेशियों के व्यंग्यों व उपालंभों की भी तनिक सी चर्चा करके हमारी मूर्छा, बेहोशी या मतिभ्रम के कालखंड का स्मरण करना चाहिए। वस्तुतः वर्ष पंद्रह सौ अट्ठाईस से लेकर वर्तमान के वर्ष दो हजार तेईस तक हम मतिभ्रम के कालखंड में ही तो थे।

इस मतिभ्रम व विभ्रम के कालखंड में हम जैसे मेघनाथ के शक्ति-बाण से मूछिर्ंत होकर युद्धभूमि में बेसुध पड़े लक्ष्मण ही तो थे।

तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउं नाथ तुरंत।

अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥

भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।

मन महुं जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥

लक्ष्मण के मूर्छित होने के बाद भगवान श्रीराम अपने अनुज की दशा देखकर विलाप कर रहे थे। संजीवनी लेने गए हनुमंत की लौटते समय, अयोध्या में भरत से भेंट हो गई। हनुमान ने वैद्य सुषेण की औषधि की पहचान नहीं कर पाने के कारण समूचा पर्वत ही अपने कंधों पर उठाकर ले आए थे।

श्रीराम कृपा से हम भारतीय जो भैया लक्ष्मण की भांति मूर्च्छित अवस्था में पड़े थे, हनुमंत में परिवर्तित हो गए हैं। अब हम मेघनाथ की शक्ति का निवारण भी करते हैं और रावण की लंका में जाकर उसका विध्वंस करके विजय श्री का वरण भी करने लगे हैं। हम हमारी व्यवस्था जन्य परतंत्रता से ही मुक्त नहीं होते हैं, अपितु सांस्कृतिक परतंत्रता का भी निवारण कर पाने में समर्थ हो गए हैं। श्रीराम जन्मभूमि का भव्य निर्माण हमारी सांस्कृतिक परतंत्रता की समाप्ति का एक महत्वपूर्ण अध्याय ही है। मुगल आक्रांता औरंगजेब द्वारा काशी, मथुरा का विध्वंस करना हो या अन्य हजारों मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट करके वहां अपनी मस्जिदों के निर्माण की घटनाएं हों, ये सभी हमारी मूर्च्छा के प्रतीक ही तो थे।

लंदन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल हिस्ट्री के प्रोफेसर व इतिहासकार अर्नाल्ड जे. टॉयनबी ने वर्ष 1960 के अपने भारत प्रवास के मध्य हम भारतीयों को उलाहना व उपालंभ देते हुए कहा था – आपने बड़े अपमान के बाद भी औरंगजेब द्वारा अपने देश में बनवाई गई मस्जिदों को संरक्षित व सुरक्षित रखा है। जब उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में रूस ने पोलैंड पर कब्जा कर लिया, तो उन्होंने वहां अपनी विजय की स्मृति में वारसां के मध्य में एक रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च का निर्माण किया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब पोलैंड को स्वतंत्रता मिली, तो उसने सबसे पहला काम रूस द्वारा निर्मित चर्च को ध्वस्त कर दिया और रूसी प्रभुत्व के प्रतीक को खत्म कर दिया, क्योंकि यह इमारत वहां के लोगों को उनके अपमान की निरंतर याद दिलाती थी। हम भारतीय आज अर्नाल्ड जे. टायनबी के उस उपालंभ, उस व्यंग्योक्ति से मुक्त हो गये हैं। हम सांस्कृतिक रूप से जागृत हो गए हैं।

ऐसा भी कतई नहीं हैं कि हम और हमारा भारत विगत सात सौ वर्षों में विशुद्ध मूर्च्छावस्था में ही थे। हमारे भारतीय जनमानस के इस दिशा में प्रयास सतत-निरंतर चल बढ़ रहे थे। हमारा सामाजिक जगत, साहित्यिक जगत, सांस्कृतिक जगत, धार्मिक जगत हमारे मंदिरों के विध्वंस और उन पर तने हुए विदेशी मुस्लिम कंगूरों को देख देखकर सदा ही पीड़ित, व्यथित होता रहा है। हम एक दीर्घ कालखंड तक इस संत्रास को भोगते हुए और उस संत्रास को अपनी अगली पीढ़ी को सौंपते हुए यहां तक आए हैं। हमारा शासक वर्ग व सत्ता सदन अवश्य जन भावनाओं को कभी कभी समझकर विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध प्रयास भी करता रहा है और कभी कभी सत्ता के मद-मोह में इस ओर से आंखें भी मोड़ता रहा है। हमें इस कालखंड में छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे अनेकों प्रणम्य शासक भी मिले हैं। छत्रपति शिवाजी ने हमें बताया कि विदेशी आक्रांताओं द्वारा दिए गए ये परतंत्रता व दासता के इन चिन्हों को मिटाना भी देश के राजा का एक अनिवार्य कार्य है। शिवाजी महाराज ने इस दिशा में अनथक श्रम करते हुए कई अभियानों को सफल भी बनाया। इस अभियान में उन्होंने गोवा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में मंदिरों का जीर्णोद्धार किया, जिनमें गोवा में सप्तकोटेश्वर और आंध्र प्रदेश में श्रीशैलम भी शामिल थे। वो माता जीजा के पुत्र शिवाजी महाराज ही थे, जिन्होंने मुगलों से कहा, यदि आप हमारे मंदिरों को ध्वस्त करके हमारे स्वाभिमान का अपमान करेंगे, तो हम हठपूर्वक उनका पुनर्निर्माण करेंगे।

 

 

प्रवीण गुगनानी

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