भारत में पत्रकारिता भी धर्म है और इसके विपरीत कार्य करना अधर्म की श्रेणी में आता है। भारतीय पत्रकारिता के आदर्श पुरूष कहे जाने वाले माखनलाल चतुर्वेदी के दिखाए मार्ग पर चलकर हमें भी धर्म-संस्कृति और राष्ट्रबोध से ओत-प्रोत मूल्याधारित पत्रकारिता करनी चाहिए।
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी उन बिरले स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिभा को राष्ट्रीयता के जागरण एवं स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। पत्रकारिता की दिशा और धारा कैसी होनी चाहिए, इसका उदाहरण उन्होंने अपने समाचारपत्र ‘कर्मवीर’ से दिया है। उन्होंने कुशलतापूर्वक ‘प्रभा’ और गणेश शंकर विद्यार्थी के तेजस्वी समाचारपत्र ‘प्रताप’ का संपादन भी किया था, परंतु माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का आदर्श ‘कर्मवीर’ के संपादन में ही पूर्ण रूप में प्रकट होता है।
कर्मवीर और माखनलाल एकाकार हो गए। दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। वे पत्रकारिता में आ रही विकृतियों और समझौतावादी प्रवृत्तियों को देखकर चिंतित हुए। वे तो पत्रकारिता को अधिक उत्तरदायी एवं जिम्मेदार माध्यम के रूप में विकसित करने का स्वप्न देख रहे थे। पत्रकारिता को नाना प्रकार के लांछनों से बचाने के लिए उस समय आचार-सहिंता की आवश्यकता और महत्ता को रेखांकित किया। उनका यह चिंतन बताता है कि वे बहुत दूर की देख लेते थे। भविष्य में उत्पन्न होने वाले संकटों का अनुमान उन्होंने अपने समय में ही लगा लिया था। बहुत महत्व की बात है कि उन्होंने पत्रकारिता के सिद्धांतों एवं आदर्शों की केवल बात ही नहीं कि अपितु उन्हें धरातल पर उतारकर दिखाया। समाचारपत्रों के प्रकाशन के लिए जिस प्रकार की आचार सहिंता की बात उन्होंने कही थी, उसे सबसे पहले स्वयं के समाचारपत्र पर लागू किया।
माखनलाल चतुर्वेदी ऐसे समाचार पत्रों की निंदा करते थे, जिनका न कोई आदर्श व उद्देश्य है और न ही कोई दायित्व। वे साहित्यकारों से भी यही अपेक्षा करते थे कि उनकी लेखनी राष्ट्र निर्माण के लिए चलनी चाहिए। माखनलाल चतुर्वेदी ने मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित कराया था कि ‘साहित्यकार स्वराज्य प्राप्त करने के ध्येय से लिखें’। जीवन को हम एक रामायण मान लें। रामायण जीवन के प्रारम्भ का मनोरम बालकाण्ड ही नहीं किन्तु करुणा रस में ओत-प्रोत अरण्यकाण्ड भी है और धधकती हुई युद्धाग्नि से प्रज्वलित लंकाकाण्ड भी है। जीवन के प्रति माखनलाल चतुर्वेदी की इस अवधारणा से ही स्पष्ट होता है कि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघर्ष के लिए तैयार रहने के आग्रही थे।
अपने लंबे पत्रकारीय जीवन के माध्यम से माखनलाल ने रचना, संघर्ष और आदर्श का जो पाठ पढ़ाया वह आज भी हतप्रभ कर देने वाला है। इस आदर्श की स्थापना के लिए उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उनके संपादकीय कार्यालय यानी घर पर 63 बार छापे पड़े, तलाशियां हुई, 12 बार वे जेल गए। कर्मवीर को अर्थाभाव में कई बार बंद होना पड़ा। उनके द्वारा सम्पादित समाचार पत्र ‘कर्मवीर’ में प्रकाशित सामग्री का चयन राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक मूल्यों की कसौटी पर ही किया जाता था।
पत्रकारिता के दायित्व बोध पर उन्होंने 1927 में भरतपुर संपादक सम्मलेन में अध्यक्षीय आसंदी से बहुत महत्वपूर्ण अभिभाषण दिया था। उन्होंने कहा था- यदि समाचार पत्र संसार की एक बड़ी ताकत है तो उसके सर जोखिम भी कम नहीं। पर्वत के जो शिखर हिम से चमकते और राष्ट्रीय रक्षा की महान दीवार बनते हैं, उन्हें ऊंचा होना पड़ता है। जगत में समाचार पत्र यदि बड़प्पन पाए हुए हैं, तो उनकी जिम्मेदारी भी भारी है। बिना जिम्मेदारी के बड़प्पन का मूल्य ही क्या है? और वह बड़प्पन तो मिट्टी के मोल हो जाता है, जो अपनी जिम्मेदारी को संभाल नहीं सकता। समाचार पत्र तो अपनी गैर-जिम्मेदारी से, स्वयं ही मिट्टी के मोल का हो जाता है, वरन वह देश के अनेक अनर्थों का उत्पादक और पोषक हो जाता है। अतः पत्रकारिता का जिम्मेदार होना किसी भी देश के स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। यह भी आवश्यक है कि उसके ध्यान में देश के राष्ट्रीय महत्व के प्रश्न और सांस्कृतिक मूल्य भी हों।
माखनलाल चतुर्वेदी मानते थे कि समाचार पत्र ‘जनमत निर्माण’ का कार्य करते हैं। यदि पत्रकारिता राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्य विहीन होगी तो निस्संदेह वे अनर्थ कर सकती हैं, ऐसी आशंका माखनलाल चतुर्वेदी ने जताई थी। उन्होंने राष्ट्रीयता, राष्ट्रभाव, स्वदेशी और गो-संरक्षण जैसे मुद्दों पर भी भारतीय दृष्टि प्रस्तुत की, जिन पर बात करने वालों को कट्टरपंथी, साम्प्रदायिक और संकीर्ण घोषित कर दिया जाता है। गोहत्या के विरोध में तो उन्होंने अपनी पत्रकारिता के बल पर राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा कर दिया था।
आज की पत्रकारिता के समक्ष जैसे ही गो-हत्या का प्रश्न आता है, वह हिंदुत्व और सेकुलरिज्म की बहस में उलझ जाता है। इस बहस में मीडिया का बड़ा हिस्सा गाय के विरुद्ध ही खड़ा दिखाई देता है। सेकुलरिज्म की आधी-अधूरी परिभाषाओं ने उसे इतना भ्रमित कर दिया है कि वह गो-संरक्षण जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय को सांप्रदायिक मुद्दा मान बैठा है जबकि गोवंश-संरक्षण शुद्ध तौर पर भारतीयता का मूल है। इसलिए ही ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से विख्यात महान संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी पत्रकारिता के माध्यम से देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर देते हैं। 1920 में मध्य प्रदेश के शहर सागर के समीप रतौना में ब्रिटिश सरकार ने बहुत बड़ा कसाईखाना खोलने का निर्णय लिया। इस कसाईखाने में केवल गोवंश काटा जाना था। प्रतिमाह ढाई लाख गोवंश का कत्ल करने की योजना थी। माखनलाल ने ‘कर्मवीर’ में रतौना कसाईखाने के विरोध में तीखा संपादकीय लिखा और गो-संरक्षण के समर्थन में कसाईखाने के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाने का आह्वान किया। कसाईखाने के विरुद्ध माखनलाल चतुर्वेदी की कलम से निकले आंदोलन ने जल्द ही राष्ट्रव्यापी रूप ले लिया। देशभर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में रतौना कसाईखाने के विरोध में लिखा जाने लगा। उनकी पत्रकारिता का प्रभाव था कि मध्य भारत में अंग्रेजों की पहली हार हुई। मात्र तीन माह में ही अंग्रेजों को कसाईखाना खोलने का निर्णय वापस लेना पड़ा।
दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का यह प्रसंग किसी भव्य मंदिर के शिखर कलश के दर्शन के समान है। यह प्रसंग पत्रकारिता के मूल्यों, सिद्धांतों और प्राथमिकता को रेखांकित करता है।
लोकेन्द्र सिंह