दुनिया का सबसे शक्तिशाली भारतीय गणतंत्र

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का बढ़ता कद केवल भारत के लिए ही हितकारी नहीं है, बल्कि विश्व कल्याण के लिए भी शुभ संकेत है इसलिए विश्व के अधिकतर छोटे-बड़े राष्ट्रों को लगने लगा है कि वैश्विक शांति की राह भी भारत से होकर ही जाएगी। अब समय आ गया है कि भारत इस मौके का कूटनीतिक उपयोग करे तथा संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता की सुगम राह बनाने का प्रभावी प्रयास करें।

अब तक विश्व के जितने भी मंच हैं, उनका नेतृत्व अमेरिका, ब्रिटेन, रूस और यूरोपीय संघ करते रहे हैं। चीन ने भी वैश्विक हस्तक्षेप बढ़ाया है। लेकिन उसकी नीतियां और प्रक्रियाएं अलोकतांत्रिक होने के कारण उसे वैश्विक स्वीकार्यता नहीं मिली। लेकिन इस बार के भारतीय गणतंत्र को दुनिया के सबसे शक्तिशाली समूह जी-20 का नेतृत्व करने का गौरव हासिल हुआ है। भारत ने दिसम्बर 2022 में जी-20 देशों की अध्यक्षता का कार्य सम्भाल लिया है। चूंकि इसका नेतृत्व प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे, इसलिए इस जिम्मेदारी को वैश्विक अवधारणाओं में बदलाव की द़ृष्टि से भी देखा जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में दुनिया में भारत की विश्वसनीयता बढ़ी है और ज्यादातर बहुपक्षीय मंचों पर भारत का दखल न केवल बढ़ा है, बल्कि उसे स्वीकार्यता भी मिली है। भारत के लिए यह एक ऐसा स्वर्ण अवसर है, जो विकासशील देशों के लिए कल्याण के अवसर खोलेगा। जो आर्थिक अजेंडे अब तक महाशक्तियों के इशारे पर तय होते थे, उन्हें निर्धारित करने में भारत समेत अन्य विकासशील देशों की भूमिका बढ़ जाएगी। तय है, नए सिरे से विश्व स्तर पर प्रचलित अवधारणाओं में परिवर्तन के द्वार खुलेंगे। सम्भव है, रूस और यूक्रेन के बीच 10 माह से चल रहे भीषण युद्ध को समाप्त करने में भारत की अहम् भूमिका नजर आए। क्योंकि इस युद्ध के दौरान भारत की मजबूत विदेश नीति सामने आई हैं।

इस नेतृत्व के जरिए भारत विकासशील देशों की आवाज बनकर उभरेगा। अर्थात वैश्विक स्तर पर वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने में भारत की भूमिका रेखांकित होगी। चूंकि भारत जनधन, आधार और मोबाइल सेवा के जरिए डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा दे रहा है। जिसका सबसे बड़ा लाभ उन वंचित वर्ग को मिल रहा है, जिनके लिए लोक-कल्याणकारी योजनाएं चलाई जाती हैं। इन सेवाओं से अब पारदार्शिता आई है और रिश्वतखोरी पर लगाम लगी है। भारत के इस तकनीकी मॉडल की सराहना दुनियाभर में हो रही है। इसीलिए जी-20 की जो पहली वित्तीय बैठक होने जा रही है, उसका विषय ‘वित्तीय समावेशन के लिए वैश्विक साझेदारी’ रखा गया है। भारत की अब कोशिश होगी कि अन्य विकासशील देश भारतीय मॉडल को अपनाएं और वंचितों तक लोक-कल्याणकारी योजनाओं को पूरी पारदार्शिता के साथ पहुंचाने में सफलता प्राप्त करें। इस अवधारणा को स्वीकार्यता मिलती है तो एक तरह से वैश्विक अवधारणाओं में बदलाव की बड़ी पहल होगी।

विकसित देशों का नियंत्रण संयुक्त राष्ट्र, विश्व-बैंक, विश्व स्वास्थ्य संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं न्यायालय पर है। इस कारण इनके माध्यम से जो विश्वव्यापी सर्वेक्षण कराए जाते है, उनमें से ज्यादातर पक्षपात करते दिखाई देते हैं। अकसर भारत एवं अन्य विकासशील देशों को इन सर्वेक्षणों के सूचकांक में अत्यंत पिछड़ा दिखा देते हैं। इनमें भूख, स्वास्थ्य एवं कुपोषण, मानवाधिकार आर्थिक पिछड़ापन ऐसे विषय हैं,  जिनके कथित सर्वेक्षण किसी भी देश की छवि बिगाड़ने में कोई संकोच नहीं करते हैं। इसी साल आई भुखमरी के सूचकांक में भारत को अत्यंत गिरी हालत में दर्शाया है। जबकि भारत देश के 81 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को निःशुल्क या नितांत सस्ती दरों पर अनाज दे रहा है। यही नहीं भूख के मुहाने पर खड़े अफगानिस्तान को भी भारत ने ही लाखों टन अनाज दान में दिया है। खासतौर से यूरोपीय और अमेरिकी देश ऐसा भेदभाव इसलिए बरतते हैं, जिससे विकासशील देशों की खराब छवि को देखते हुए धनी देश इन देशों में निवेश न करें। इसलिए भारत ने इन हालातों को सुधारने की द़ृष्टि से विश्व बैंक के ‘वर्ल्ड गवर्नेंस इंडिकेटर (डब्ल्यूजीआई)’ को जी-20 के जरिए भविष्य के सर्वे सूचकांकों को सुधारने की हिदायत दी है। क्योंकि किसी भी देश की रेटिंग बिगाड़ने का दारोमदार इन्हीं पर होता है।

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध के चलते दुनिया संक्रमण काल से गुजर रही है। दस माह से चले आ रहे युद्ध का कोई हल न तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं सुझा पा रही हैं और न ही वैश्विक महाशक्तियां कोई समाधान तलाश पाई हैं। इसका बड़ा कारण रूस और अमेरिका के वर्चस्व की लड़ाई भी है, जो अब यूरोपीय देशों और रूस के बीच बदल गई है। नतीजतन संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक, विश्व स्वास्थ्य संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे जिन अंतरराष्ट्रीय मंचों का गठन वैश्विक समस्याओं के हल के लिए हुआ था, वे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बौनी दिखाई दे रही हैं। क्योंकि इन संस्थाओं पर नियंत्रण मुख्य रूप से पाश्चात्य देशों का ही है। अतएव जब ये देश खुले रूप में यूक्रेन के समर्थन में आ खड़े हुए हों तो फिर इनके द्वारा नियंत्रित संस्थाएं निष्पक्ष निर्णय कैसे ले सकती हैं? ऐसे में जी-20 समूह के देशों को भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी में विश्व नेतृत्व की झलक दिखाई देना स्वाभाविक है।

यही नहीं अंतरराष्ट्रीय मंचों से शांति की पहल भी मोदी ने ही वजनदारी से की है। साफ है, यह हस्तक्षेप मोदी की वैश्विक नेतृत्व क्षमता को स्थापित करता है। अतएव इसी हस्तक्षेप का नतीजा रहा कि दुनिया कि बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के समूह जी-20 की अध्यक्षता का दायित्व सर्वसम्मति से नरेंद्र मोदी को दे दिया गया। इससे साबित हुआ है कि विश्व मंच पर भारत का रुतबा और सहमति बढ़ रहे हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि भारत के प्रति दुनिया का विश्वास बढ़ रहा है। दुनिया समझ रही है कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ ही भारत का वह सनातन संदेश है, जो विश्व शांति का पर्याय बन सकता है। इसीलिए मोदी ने अध्यक्ष पद की घोषणा होते ही समूह के अगले सम्मेलन के लोगों, थीम और बेवसाइट को नए रूप व प्रतीक के साथ जारी कर दिया है। अब इस समूह की अध्यक्षता करते हुए भारत ही मुद्दों का एजेंडा तय करेगा। तय है, महाशक्तियां भारत की बताई राह पर आगे बढ़ेंगी। इसीलिए अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और ब्रिटेन के भारतीय मूल के प्रधान मंत्री ऋषि सुनक ने आयोजन स्थल इंडोनेशिया के बाली में मोदी से मुलाकात कर वैश्विक समस्याओं के निदान पर चर्चा की। इस चर्चा में रूस-यूक्रेन युद्ध भी शामिल रहा है। यानी महाशक्तियां भी मोदी में आशा की किरण तलाश रही हैं। क्योंकि अब किसी भी देश को आर्थिक और कूटनीतिक द़ृष्टि से भारत की अनदेखी करना कठिन हो रहा है।

1945 में परिषद् के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक दुनिया बड़े परिवर्तनों की वाहक बन चुकी है। इसीलिए भारत लम्बे समय से परिषद् के पुनर्गठन का प्रश्न परिषद् की बैठकों में उठाता रहा है। कालांतर में इसका प्रभाव यह पड़ा कि संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य देश भी इस प्रश्न की कड़ी के साझेदार बनते चले गए। परिषद् के स्थायी व वीटोधारी देशों में अमेरिका, रूस और ब्रिटेन भी अपना मौखिक समर्थन इस प्रश्न के पक्ष में देते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से दो तिहाई से भी अधिक देशों ने सुधार और विस्तार के लिखित प्रस्ताव को मंजूरी 2015 में दे दी है। इस मंजूरी के चलते अब यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे का अहम् मुद्दा बन गया है। नतीजतन अब यह मसला एक तो परिषद् में सुधार की मांग करने वाले भारत जैसे चंद देशों का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि महासभा के सदस्य देशों की सामूहिक कार्यसूची का प्रश्न बन गया है। यदि पुनर्गठन होता है तो सुरक्षा परिषद् के प्रतिनिधित्व को समतामूलक बनाए जाने की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मकसद पूर्ति के लिए परिषद् के सदस्य देशों में से नए स्थायी सदस्य देशों की संख्या बढ़ानी होगी। यह संख्या बढ़ती है तो परिषद् की असमानता दूर होने के साथ इसकी कार्य-संस्कृति में लोकतांत्रिक सम्भावनाएं स्वत: बढ़ जाएंगी

 

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