यूसीसी ः राष्ट्रहित में आवश्यक

इन दिनों समान नागरिक संहिता पर देश में खूब चर्चा चल रही है। अधिकतर लोग इसके समर्थन में तर्क दे रहे हैं और इसके लाभ गिना रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर समुदाय विशेष के कुछ लोग केवल विरोध ही नहीं कर रहे बल्कि समाज में भ्रम भी फैला रहे हैं। इन अलगाववादी तत्वों से सचेत रहते हुए भेदभाव से मुक्ति हेतु समान नागरिक संहिता के पक्ष में आज पूरा देश उठ खड़ा हुआ है।

हमारा देश वेद-पुराण गीता-रामायण या बाइबिल-कुरान से नहीं बल्कि संविधान से चलता है और संविधान (सम+विधान) का अर्थ है ऐसा विधान जो सब पर समान रूप से लागू हो। बेटा हो या बेटी, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई, मां के पेट में बच्चा नौ महीने ही रहता है और प्रसव पीड़ा भी बेटा-बेटी के लिए एक समान होती है इससे स्पष्ट है कि महिला-पुरुष में भेदभाव भगवान, खुदा या जीसस ने नहीं बल्कि इंसान ने किया है। समाज में महिला-पुरुष में जो भेदभाव व्याप्त है वह रीति नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा शुरू की गई कुरीति है, धार्मिक प्रथा नहीं बल्कि इंसान द्वारा द्वारा शुरू की गई कुप्रथा है और कुरीतियों और कुप्रथाओं को धर्म, मजहब या रिलिजन से जोड़ना बिलकुल गलत है। आर्टिकल 14 के अनुसार हम सब समान हैं। कुछ लोग आर्टिकल 25 में प्रदत्त धार्मिक आजादी की दुहाई देकर ‘समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता’ का विरोध करते है लेकिन वास्तव में ऐसे लोग समाज को गुमराह कर रहे हैं। आर्टिकल 25 की तो शुरुआत ही होती है- ‘सब्जेक्ट टू पब्लिक ऑर्डर, हेल्थ एंड मोरैलिटी’ अर्थात रीति और प्रथा का पालन करने का अधिकार है लेकिन किसी भी प्रकार की ‘कुप्रथा, कुरीति, पाखंड और भेदभाव’ को आर्टिकल 25 का संरक्षण प्राप्त नहीं है।

विवाह की न्यूनतम उम्र, विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार, गुजारा भत्ता, गोद लेने का नियम, विरासत का नियम और संपत्ति का अधिकार सहित उपरोक्त सभी विषय सिविल राइट से सम्बन्धित हैं जिनका न तो मजहब से किसी तरह का संबंध है और न तो इन्हें धार्मिक या मजहबी व्यवहार कहा जा सकता है लेकिन आजादी के 74 साल बाद भी धर्म या मजहब के नाम पर महिला-पुरुष में भेदभाव जारी है।

सच्चाई तो यह है कि इसका फायदा हिंदू बेटियों को ज्यादा नहीं मिलेगा क्योंकि हिंदू मैरिज ऐक्ट में महिला-पुरुष को लगभग समान अधिकार पहले से ही प्राप्त है। इसका सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम बेटियों को मिलेगा क्योंकि शरिया कानून में उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है।

आर्टिकल 37 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है। जिस प्रकार संविधान का पालन करना सभी नागरिकों की फंडामेंटल ड्यूटी है उसी प्रकार संविधान को शत प्रतिशत लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है। किसी भी सेक्युलर देश में धार्मिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होता है लेकिन हमारे यहां आज भी हिंदू मैरिज एक्ट, पारसी मैरिज एक्ट और ईसाई मैरिज एक्ट लागू है, जब तक भारतीय नागरिक संहिता लागू नहीं होगी तब तक भारत को सेक्युलर कहना सेक्युलर शब्द को गाली देना है। यदि गोवा के सभी नागरिकों के लिए एक ’समान नागरिक संहिता’ लागू हो सकती है तो देश के सभी नागरिकों के लिए एक ’भारतीय नागरिक संहिता’ क्यों नहीं लागू हो सकती है?

जाति धर्म भाषा क्षेत्र और लिंग आधारित अलग-अलग कानून 1947 के विभाजन की बुझ चुकी आग में सुलगते हुए धुएं की तरह हैं जो विस्फोटक होकर देश की एकता को कभी भी खण्डित कर सकते हैं इसलिए इन्हें समाप्त कर एक ’भारतीय नागरिक संहिता’ लागू करना न केवल धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए बल्कि देश की एकता-अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी अति आवश्यक है। दुर्भाग्य से ’भारतीय नागरिक संहिता’ को हमेशा तुष्टीकरण के चश्मे से देखा जाता रहा है।

बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था- व्यवहारिक रूप से इस देश में एक सिविल संहिता लागू है जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। केवल विवाह और उत्तराधिकार का क्षेत्र है जहां एक समान कानून लागू नहीं है. यह बहुत छोटा सा क्षेत्र है जिस पर हम समान कानून नहीं बना सके हैं इसलिए हमारी इच्छा है कि अनुच्छेद 35 को संविधान का भाग बनाकर सकारात्मक बदलाव लाया जाए। यह आवश्यक नहीं है कि उत्तराधिकार के कानून धर्म द्वारा संचालित हों। धर्म को इतना विस्तृत और व्यापक क्षेत्र क्यों दिया जाए कि वह संपूर्ण जीवन पर कब्जा कर ले और विधायिका को इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने से रोके।

शाहबानो केस (1985) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- यह अत्यधिक दुख का विषय है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत अक्षर बनकर रह गया है। यह प्रावधान करता है कि सरकार सभी नागरिकों के लिए एक ’समान नागरिक संहिता’ बनाए लेकिन इसे बनाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। समान नागरिक संहिता विरोधाभासी विचारों वाले कानूनों के प्रति पृथक्करणीय भाव को समाप्त कर राष्ट्रीय अखंडता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयोग करेगा।

जॉन बलवत्तम केस (2003) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा- यह दुख की बात है कि अनुच्छेद 44 को आज तक लागू नहीं किया गया, संसद को अभी भी देश में एक समान नागरिक संहिता लागू के लिए कदम उठाना है। समान नागरिक संहिता वैचारिक मतभेदों को दूर कर देश की एकता-अखंडता को मजबूत करने में सहायक होगी।

सायरा बानो केस (2017) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- हम सरकार को निर्देशित करते हैं कि वह उचित विधान बनाने पर विचार करें। जब ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय दंड संहिता के माध्यम सबके लिए एक कानून लागू किया जा सकता है तो भारत के पीछे रहने का कोई कारण नहीं है।

डॉ. राम मनोहर लोहिया जी ने कहा था- एक ही विषय पर हिंदू मुस्लिम, ईसाई, पारसी के लिए अलग-अलग कानून, धर्मनिरपेक्षता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों और देश की एकता-अखंडता के लिए अत्यधिक खतरनाक है।

अटल बिहारी वाजपेई जी ने कहा था- मेरी समझ में नहीं आ रहा है, जब संविधान निर्माताओं ने विवाह के लिए एक कानून बनाने की सिफारिश की है और कहा है कि राज्य इसकी तरफ ध्यान देगा, तो क्या वे सांप्रदायिक थे, क्या यह सांप्रदायिक मुद्दा है? जब क्रिमिनल लॉ एक है तो सिविल लॉ क्यों नहीं एक हो सकता है?

अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व सदस्य ताहिर महमूद कहते हैं- परंपरागत कानून के लिए धार्मिक राजनीतिक दबाव बनाने की बजाय मुसलमानों को समान नागरिक संहिता की मांग करना चाहिए।

23.11.1948 को आर्टिकल 44 संविधान में जोड़ा गया था और सरकार को समान नागरिक संहिता लागू करने का निर्देश दिया गया था। संविधान निर्माताओं की हार्दिक इच्छा थी कि अलग-अलग धर्म के लिए अलग-अलग कानून के स्थान पर ’भारतीय दंड संहिता’ की तरह सबके लिए धमर्, भाषा, क्षेत्र, लिंग निरपेक्ष एक ’भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होना चाहिए। इसलिए आपसे निवेदन है कि इस वर्ष संविधान दिवस (26 नवंबर) को आर्टिकल 44 को लागू करें।

समान नागरिक संहिता हमारे संविधान की

आत्मा है और इसके एक नहीं अनेक लाभ हैं

भारतीय दंड संहिता के तर्ज पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से देश और समाज को सैकड़ों जटिल, बेकार और पुराने कानूनों से मुक्ति मिलेगी।

अलग-अलग धर्म के लिए लागू अलग-अलग ब्रिटिश कानूनों से सबके मन में हीन भावना व्याप्त है इसलिए सबके लिए एक ’भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होने से हीन भावना से मुक्ति मिलेगी।

‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम सब पर समान रूप से लागू होगा और बांझपन या नपुंसकता जैसे अपवाद का लाभ एक समान रूप से मिलेगा चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.

विवाह-विच्छेद का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा। विशेष परिस्थितियों में मौखिक तरीके से विवाह विच्छेद की अनुमति भी सभी को होगी।

पैतृक संपति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को एक समान अधिकार प्राप्त होगा। संपत्ति को लेकर धर्म जाति क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी।

विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा।

वसीयत, दान, धर्मजत्व संरक्षकता, बंटवारा, गोद के संबंध में सभी पर एक समान कानून लागू होगा।

राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा और सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होगा।

जाति धर्म क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग कानून होने से पैदा होने वाली अलगाववादी मानसिकता समाप्त होगी और एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में हम तेजी से आगे बढ़ सकेंगे।

अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून होने के कारण अनावश्यक मुकदमे में उलझना पड़ता है। सबके लिए एक नागरिक संहिता होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा।

भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से रूढ़िवाद, कट्टरवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद समाप्त होगा, वैज्ञानिक सोच विकसित होगी तथा बेटियों के अधिकारों मे भेदभाव खत्म होगा।

                                                                                                                                                                                       अश्विनी उपाध्याय

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