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अंतर्कथा कहती आर्टिकल 370 फिल्म

अंतर्कथा कहती आर्टिकल 370 फिल्म

by हिंदी विवेक
in अप्रैल -२०२४, ट्रेंडींग, विशेष, सामाजिक
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जम्मू कश्मीर और देश के लिए आर्टिकल 370 कैसे एक नासूर बना हुुआ था, उसे यथावत रखने के लिए कैसे-कैसे षडयंत्र तत्कालीन राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए तथा वर्तमान केंद्र सरकार ने किस प्रकार इस समस्या को जड़मूल से खत्म किया, इसका यथार्थ चित्रण आर्टिकल 370 फिल्म में किया गया है।

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महाधिवेशन में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को सामूहिक हीन भावना से मुक्ति दिलाने के लिए काम किया है। कश्मीर से आर्टिकल 370 का हटाया जाना ऐसा ही एक काम माना जा सकता है, जिसने दुनिया भर में फैले भारतीयों को यह विश्वास दिलाया कि वे एक ऐसे देश के नागरिक हैं जो अपनी अखंडता और संप्रभुता की कीमत पर किसी भी समझौते को तैयार नहीं। जब जूनी हक्सर की तरह पूरी दुनिया मान रही थी कि कश्मीर इज ए लोस्ट केस, जब तक ये स्पेशल स्टेटस है, हम उन्हें हाथ भी नहीं लगा सकते और वो हमें आर्टिकल 370 को हाथ नहीं लगाने देंगे। तब देश का शीर्ष नेतृत्व 370 हटाने की अनेक संभावनाओं की खोज में लगा था। कांग्रेस ने अपने 54 वर्षों के अबाध शासन काल में 370 को सुरक्षित रखने के लिए कितनी बाधाएं खड़े कर रखी थी, जिसे ढूंढना और फिर दूर करना कितना कठिन था। 370 हटने के उत्साह में हमने न तो कभी जानने की कोशिश की और शायद न ही जान पाते। जबकि यह जानना जरुरी था कि कांग्रेस ने अपने वोट बैंक को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए किस तरह देश की संप्रभुता को दांव पर लगा रखा था। इस हद तक कि कश्मीर का एक वरिष्ठ नेता पुलिस अधिकारी से कहता है, तुम दिल्ली चले जाओ, इंडिया तुम्हारे लिए सेफ है, कश्मीर में पता नहीं कब क्या हो जाए। वास्तव में कांग्रेस ने कश्मीर में कभी यह मनवाने की या कहने की कोशिश ही नहीं की, तुम भारत हो। फिल्म देखते हुए अहसास होता है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए 370 हटाना सिर्फ एक चुनावी वादा भर नहीं था, देश के स्वाभिमान का मुद्दा था। इसलिए गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कहा था कि ‘पूरा का पूरा कश्मीर हमारा है, जान दे देंगे उसके लिए’।

आदित्य धर की फिल्म आर्टिकल 370 इसके हटने की पूर्वपीठिका के रुप में महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह वह सच सामने लाती है जो आमतौर पर पब्लिक डोमेन में नहीं है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भाषण के दौरान कहा भी, मैंने सुना टीवी पर कि एक फिल्म आर्टिकल 370 पर आ रही है, अच्छा है, अब लोगों को सही सूचना मिलेगी। ऐसे में यह जिज्ञासा स्वभाविक थी कि पूरी मीडिया, संसद की बहसें, सुप्रीम कोर्ट में इस केस की कार्यवाही और नेताओं के बयान आदि आर्टिकल 370 हटाने को लेकर लोगों को ऐसा क्या नहीं बता पाए जो ये फिल्म बताएगी? फिल्म देखने के बाद महसूस होता है कि किसी घटनाक्रम को सिलसिलेवार तरीके से जानना कितना आवश्यक होता है।

इस फिल्म की कहानी को छ: अध्यायों में बांटा गया हैं, शायद कहानी में एक लीप के लिए इसकी आवश्यकता समझी गई हो। फिल्म की कहानी एक खुफिया अधिकारी जूनी हक्सर (यामी गौतम) से शुरू होती है। जूनी हक्सर को आतंकवादी संगठन के युवा कमांडर बुरहान वानी के ठिकाने के बारे में पता चलता है और वह उसे मुठभेड़ में मार देती है। इस घटना से कश्मीर के राजनीतिक हल्के में खलबली मच जाती है। वहां की राजनीतिक पार्टियां इस मौत का इस्तेमाल कश्मीर को और भी अशांत करने में करना शुरु कर देते हैं। सीमा पार से फंडिंग शुरु हो जाती है। बच्चे-युवा पत्थरबाजी शुरू कर देते हैं। स्थानीय पुलिस प्रशासन भी इस अशांति के लिए जूनी हक्सर को जिम्मेवार मानता है और उसका ट्रांसफर दिल्ली कर दिया जाता है।

इस बीच राजनीतिक घटनाक्रम बदलते हैं और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है। प्रधान मंत्री कार्यालय वहां शांति बहाल करने के लिए एनआईए के माध्यम से पहल करती है। जूनी हक्सर की क्षमता को देखते हुए एनआईए में उसे एक बार फिर भेजा जाता है। वह मना कर देती है और कहती है जब तक उनके पास स्पेशल स्टेटस है कोई कुछ नहीं कर सकता। वह स्पष्ट कहती है, टेररिज्म इज ए बिजनेस… इट हैज नथिंग टू डू विथ ड्रामा आफ इंडिपेंडेंस… बट इट हैज एवरीथिंग टू डू विथ मनी। उसका मानना है कि आतंकवाद के प्रति सद्भाव से कभी नहीं निपटा जा सकता है। जब राजेश्वरी उससे पूछती है कि तुम्हें बुरहान का सामना करने का एक बार फिर मौका मिले तो क्या करोगी। वह बेहिचक कहती है, इस बार डेड बॉडी नहीं सौपूंगी। वास्तव में जब पुलवामा जैसी घटनाएं हो रही हो, कोई आतंकवादियों के प्रति सॉफ्ट होने की बात कैसे कर सकता है।

द कश्मीर फाइल्स में आतंकवाद और इस्लाम के गठजोड़ पर ज्यादा जोर था, यहां पहली बार कोई फिल्म आतंकवाद की कलई खोलती लगती है। यहां अल जिहाद भी सुनाई देता है, हर घर से निकलेगा बुरहान भी और लेकर रहेंगे आजादी भी। पत्थर बाज हैं, उनकी फंडिंग भी और उन पर नेताओं का गठजोड़ भी। जूनी कहती है, केंद्र सरकार ने सबसे अधिक फंड कश्मीर को दिए, जिससे नेताओं ने भर-भर कर पैसे बनाए हैं। कश्मीरी बच्चे सड़कों पर पत्थरबाजी कर रहे हैं और उनके बच्चे विदेशों के महंगे स्कूलों में पढ़ रहे हैं।

कहानी के दौरान यह भी पता चलता है कि किस तरह कश्मीर के एक पूर्व मुख्य मंत्री ने बैंकों में घोटाले किए और झूठे आरोप लगाकर बैंक प्रबंधक को आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया। यदि एक पंक्ति में कहें तो फिल्म यह कहने में कोई कोताही नहीं करती कि नेताओं, आतंकवादियों और आइएसआई का नेटवर्क 370 के सुरक्षा कवच में जम कर फलाफूला।

जाहिर है सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं था कि वह या तो कश्मीर को अपने हाल पर छोड़ दे या फिर आर्टिकल 370 हटाने का जोखिम उठाए। श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सपना आंखों में संजोए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की टीम ने जोखिम का रास्ता चुना। सरकार आर्टिकल 370 को निरस्त करने की दिशा में आगे बढ़ती है। पीएमओ सचिव राजेश्वरी स्वामीनाथन (प्रियमणि) अपनी एक टीम का गठन करती है। जूनी हक्सर घाटी में शांति और एकता बनाए रखने की यात्रा में भ्रष्ट स्थानीय नेताओं और उग्रवादियों द्वारा उत्पन्न बाधाओं से होकर गुजरती है। फिल्म में नोटबंदी की भी चर्चा है और आतंकियों ने फंडिंग के लिए उसका क्या तोड़ निकाला यह भी।

फिल्म सारे जोखिमों पर विस्तार से चर्चा करती है, जिसमें सबसे अहम 370 हटाने के संवैधानिक अधिकार को लेकर है। किस तरह उन संवैधानिक प्रावधानों को षडयंत्र के तहत देश से छिपा कर रखा गया, जिसके आधार पर 370 हटाया जा सकता था। फिल्म इस सनसनीखेज सच को भी रेखांकित करती है कि पब्लिक डोमेन में यही बातें रखी गई थी कि 370 हटाने की कोई व्यवस्था ही नहीं, जबकि मूल दस्तावेज को कश्मीर के ही पुस्तकालय में रख दिया गया, ताकि विशेष दर्जे के कारण वह देश की पहुंच से दूर रहे। फिल्म में किस तरह राजेश्वरी और जूनी की टीम उसे खोज निकालती है और 370 हटाने की जमीन तैयार हो जाती है।

उल्लेखनीय है कि फिल्म में दो ही मुख्य पात्र हैं और दोनों ही महिलाएं हैं। कहीं न कहीं कुछ वर्षों में देश में आए बदलाव का भी यह प्रतीक की तरह दिखता है। यह आदित्य धर का साहस ही कहा जाएगा कि नाम भले ही उन्होंने बदल दिए लेकिन फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को पहचानने में देर नहीं लगती। देश के प्रधान मंत्री और गृहमंत्री को भी पहचाना जा सकता है लेकिन निर्देशक ने नाम बदल दिए हैं। कुल मिलाकर कहे तो दर्शकों तक सच पहुंचाने में यह फिल्म सफल मानी जा सकती है। यह फिल्म आश्वस्त करती है हम ऐसे नेतृत्व के समय में हैं जिसके लिए देश की अखंडता और संप्रुभता सर्वोपरी है।

                                                                                                                                                                                      – विनोद अनुपम 

 

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