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चलो नाना-मामा के घर

चलो नाना-मामा के घर

by मुकेश जोशी
in अप्रैल -२०२४, ट्रेंडींग, सामाजिक, साहित्य
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साल भर पढ़ाई के बोझ से लदे हुए बच्चों को गर्मी की छुट्टियों का इंतजार रहता है। कब परीक्षाएं समाप्त हो और हम फ्री होकर अपने ननिहाल जा सके। बच्चे ही नहीं उनकी मम्मियों को भी बच्चों से ज्यादा इंतजार रहता है कि जल्दी से मायके जाने का। बच्चों को उनकी मां यह लालच देकर पढ़ाती हैं कि फटाफट पढ़ लो परीक्षा के बाद तुमको नाना-नानी के घर लेकर चलूंगी। बेचारे बच्चे हर दिन के थका देने वाले स्कूल व कोचिंग की रूटीन से परेशान ऊपर से इंग्लिश, मैथ्स, साइंस विषयों के बोझ। अपनी मम्मी के दबाव में आकर जैसे तैसे अपना कोर्स पूरा कर लेते हैं और सारी परीक्षाएं भी दे आते हैं रिजल्ट जो भी आए। वैसे आजकल की मां अपने बच्चों से 95 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने की उम्मीद करती हैं जिससे उनको आस पड़ोस, पार्टी फ्रेंडस और खासकर मायके में अपने बच्चों की उपलब्धियों का बखान करने को मिले।

कौन बच्चे होंगे जिन्हें छुट्टियों में नाना, मामा के घर जाना अच्छा नहीं लगता होगा। वे जमाने और थे जब पढ़ाई के नाम पर ज्यादातर सरकारी स्कूल ही हुआ करते थे। इक्का दुक्का प्राइवेट स्कूल हुए भी तो उसमें बड़े लोगों उद्योगपतियों, कारोबारियों, बड़े अधिकारियों के बच्चे ही पढ़ते थे। मध्यमवर्गीय या निम्न मध्यम वर्ग के बच्चे तो सरकारी स्कूलों की ही शान होते थे तब गर्मी की छुट्टियां, पूरी दो महीनों की मौज मस्ती, जैसा हमारे बचपन में हुआ करता था। परीक्षा के बाद जो बस्ता (स्कूल बैग) बंद करके धरा तो पूरे दो महीने बाद ही उसकी धूल झाड़ी जाती थी तब आज के जैसा हर साल बच्चों को नए बैग खरीदने का प्रावधान नहीं होता था।

अब नई शिक्षा नीति में पूरी दो महीने की छुट्टियां नहीं मिलती बच्चों को, पर जितनी भी छुट्टियां मिलती हैं उसमें वो नाना-मामा के यहां जाना चाहते हैं। पहले बच्चे नाना-मामा के यहां एकदम बेफिक्र होकर जाते थे। अब स्कूल का टेंशन वहां भी पीछा नहीं छोड़ता। स्कूल की कड़क मैडम छुट्टियों में भी होम वर्क देकर फंसा ही देती हैं। बेचारे बच्चे खेलना-कूदना छोड़कर, मम्मी के घर में भी होम वर्क की मगजमारी में उलझे रहते हैं। बच्चों को नाना मामा के यहां भरपूर लाड़ दुलार मिलता है और वे समर्थ होते हैं तो उन पर नाना-नानी जान लुटा देते हैं और नहीं भी तो अपने नाती, भांजे, भांजियों पर दिल खोलकर खर्च करते हैं। बड़े शहर में हो तो मॉल ले जाना, मार्केट ले जाना। गार्डन में घुमाना, मंदिर ले जाना लेकिन आजकल के बच्चों की दुनिया मोबाइल टीवी और वीडियो गेम्स में उलझ कर रह गई है। मेरे बचपन में तो गर्मी की छुट्टियों में गांव में भी नाना मामा के यहां जाकर अभावों में भी मस्ती हो जाती थी। तब बिना पैसों के गेम्स छुपा-छुपाई, पकड़ा बाटी, सितौलिया, गधा मार बच्चों के समूहों में दिन भर चलते थे और कब शाम हो जाती थी पता ही नहीं चलता था। दूध दही, छाछ, मक्खन इस मस्ती के बाद तैयार मिलते थे। आजकल के बच्चों को तो घर से बाहर निकलना ही नहीं और निकले भी तो किसी चायनीज फूड के आउटलेट या आइसक्रीम पार्लर तक जाते हुए मिल जाएंगे। क्योंकि ये अक्सर मॉल का ही हिस्सा होते हैं। पहले नाना मामा के यहां छतों पर लगे बिस्तरों पर मंद-मंद हवाओं में जो मस्त नींद आती थी। अब फ्लैट के बंद कमरों में चलते वो सुकून भरी नींद कहां से ला सकते हैं। आजकल के बच्चे पापा के यहां हो या मामा के यहां, वेबसीरीज के सीजन्स निपटाने में लगे रहते हैं। पापा तो रात भर टीवी देखने नहीं देते पर नाना मामा के लाडलो को उनके यहां बगैर पाबंदी के खुली छूट मिली होती है। इसीलिए हर बच्चे की चाहत होती है कि वो दुनिया भर की डांट फटकार से मुक्त होकर नाना मामा के यहां रहे।

 

मुकेश जोशी

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