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विवादों के घेरे में  सेंसर बोर्ड?

विवादों के घेरे में सेंसर बोर्ड?

by अतुल गंगवार
in अगस्त-२०२३, ट्रेंडींग, फिल्म, फ़ैशन, विशेष, सामाजिक
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आदिपुरुष फिल्म के विवाद उपरांत सेंसर बोर्ड भी इसके लपेटे में आ गया है और उसके औचित्य पर प्रश्नचिह्न उठने लगे हैं। जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाने से नाराज इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली पर सवाल दागते हुए कहा कि सेंसर बोर्ड ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की? इस टिप्पणी को गम्भीरता से लेते हुए सरकार को भी चाहिए कि वह सेंसर बोर्ड में आवश्यक बदलाव, सुधार एवं परिवर्तन करे।

फिल्म आदिपुरुष के प्रदर्शन के बाद सीबीएफसी यानि सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन एक बार फिर से चर्चा में आ गया है। सिने प्रेमियों ने इस बात पर आपत्ति जताई है कि हिंदुओं की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली, उनकी आस्थाओं पर चोट करने वाली, राम कथा को विकृत करने वाली इस फिल्म को सर्टिफिकेट किस तरह से दिया गया है। यह विवाद चल ही रहा था कि फिल्म 72 हूरों के ट्रेलर पर आपत्ति जताते हुए उसको रोक दिया गया और उसमें निर्माता से कुछ परिवर्तन करने के लिए कहा गया। निर्माता का कहना था कि उसने वही दृश्य ट्रेलर में दिखाएं हैं जो फिल्म का हिस्सा हैं और अगर फिल्म में वो स्वीकृत हैं तो वह ट्रेलर में क्यों हटाए। इसके बाद उसने डिजीटल प्लेटफॉर्म का सहारा लेकर ट्रेलर वहां रिलीज कर दिया। ऐसा नहीं है कि ये सेंसर बोर्ड पहली बार विवादों में आया है, पहले भी उस पर विवाद खड़े होते रहें हैं।

इंडियन सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1920 में आस्तित्व में आया था। आरंभ में ये पुलिस प्रमुखों के नियंत्रण वाली स्वायत्त संस्था थी जिसके कार्यालय मद्रास (चेन्नई), बांबे (मुंबई), कलकत्ता (कोलकोता), लाहौर (अब पाकिस्तान) और रंगून (म्यानमार में यंगून) में थे। 1947 में स्वतंत्रता के बाद ये सारे अलग-अलग कार्यालय बॉम्बे बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर के अंतर्गत आ गए।

1952 में बने सिनेमेटोग्राफ एक्ट के तहत बाँबे बोर्ड को सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर में परिवर्तित कर दिया गया। 1983 में सिनेमेटोग्राफी नियमों में परिवर्तन करते हुए इसे सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन का नाम दिया गया। इसका काम 1952 में बने सिनेमेटोग्राफ एक्ट के अनुसार व्यवसायिक एवं जनता के बीच में सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शित होने वाली फिल्मों को प्रदर्शन की अनुमति देने का है। इसमें टेलिविजन और वीडियो भी शामिल है। प्रारंभ में ये सर्टिफिकेट यू एवं ए श्रेणी के होते थे। यू अर्थात परिवार के साथ देखने योग्य और ए केवल व्यस्कों के लिए अर्थात जिन फिल्मों में नग्नता या अधिक हिंसा होती थी उन्हें व्यस्क दर्शकों के लिए ही सर्टिफिकेट दिया जाता था।

वर्तमान में इसमें यू/ए और एस श्रेणी में भी फिल्मों को सर्टिफिकेट दिए जाते हैं। यू/ए में 12 साल से अधिक उम्र के बच्चे अपने माता-पिता के साथ फिल्म देख सकते हैं और एस श्रेणी की फिल्में वर्ग विशेष के लिए सर्टिफाइ होती हैं, उनका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया जाता।

वर्तमान में सेंसर बोर्ड में चेयरपर्सन के साथ 23 सदस्य होते हैं। इसका केंद्रीय कार्यालय मुंबई में और 9 क्षेत्रीय कार्यालय त्रिवेन्द्रम, चेन्नई, बेंगलूरु, मुंबई, कटक, गुवाहाटी, कोलकोता और नई दिल्ली में हैं।

आज मनोरंजन जगत के बदलते परिवेश में जब मनोरंजन के माध्यम बदल रहे हैं तो क्या सेंसर बोर्ड प्रासंगिक रह गया है इस पर भी चर्चा चल रही है। कुछ लोगों का मानना है कि भारतीय परिपे्रक्ष्य में जहां दर्शक वर्ग की मनोस्थिति या मानसिक परिपक्वता उतनी नहीं है जिससे वह अपने लिए सही विषयों का चयन कर सकें या फिर उनके संदर्भों को सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण कर सकें इसलिए सेंसर बोर्ड आवश्यक है। वहीं कुछ लोग इसे दर्शकों की समझ पर छोड़ना चाहते हैं कि वह स्वयं तय करे कि उन्हें क्या देखना है, क्या नहीं देखना है।

आज ओटीटी प्लेटफॉर्म पर बिना सेंसरशिप के जिस तरह का मनोरंजन परोसा जा रहा है उसको लेकर भी बहस छिड़ी हुई है। मनोरंजन जगत के कुछ लोग एक ओर सिनेमा को सेंसरशिप से मुक्त करने की मांग कर रहें हैं वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ओटीटी को भी सेंसर के दायरे में लाने की बात कर रहें हैं। एक अघोषित सेंसरशिप समाज के लोग भी चला रहें हैं। हाल ही में कई फिल्में जो किसी वर्ग विशेष को लगता था कि उसकी भावनाओं और विचारों के अनुरुप नहीं हैं उनका बहिष्कार किया गया। उनके सार्वजनिक प्रदर्शन में बाधाएं उत्पन्न की गई। कई राज्य सरकारों ने भावनाओं को ठेस पहुंचाने की आड़ में फिल्मों का प्रदर्शन अपने राज्यों में होने से रोका। कश्मीर फाईल्स, केरला स्टोरी इसका उदाहरण है। पहले भी पद्मावती, पृथ्वीराज चौहान, पठान जैसी कई फिल्मों को इसका सामना करना पड़ा था। स्वयंभू संगठन तो अक्सर ऐसा करते ही रहते हैं।

भारत के परिप्रेक्ष्य में सेंसर बोर्ड की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता। हालांकि सेंसर बोर्ड में किस तरह के लोग शामिल हों उनके स्तर पर चर्चा की जा सकती है। वह किस तरह से सेंसर बोर्ड के नियमों का पालन करवाते हैं यह देखना महत्वपूर्ण है। आदिपुरुष के संदर्भ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सेंसर बोर्ड पर भी सवाल किए। उन्होंने कहा कि सेंसर बोर्ड ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की? यह अच्छा है कि लोगों ने फिल्म देखने के बाद कानून-व्यवस्था की स्थिति को नुकसान नहीं पहुंचाया। भगवान हनुमान और सीता को ऐसे दिखाया गया है जैसे वे कुछ भी नहीं हैं। इन चीजों को शुरुआत से ही हटा दिया जाना चाहिए था। कुछ दृश्य एडल्ट श्रेणी में होना चाहिए। ऐसी फिल्में देखना बहुत मुश्किल है। यह बहुत ही गंभीर मामला है, सेंसर बोर्ड ने इस बारे में क्या किया। डिप्टी सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट को बताया कि फिल्म से आपत्तिजनक संवाद हटा दिए गए हैं, जिस पर कोर्ट ने डिप्टी एसजी से कहा कि वह सेंसर बोर्ड से पूछें कि वह क्या कर रहा है? कोर्ट ने कहा कि अकेले इतने से काम नहीं चलेगा। आप दृश्यों का क्या करेंगे? डायरेक्शन लें, हमको जो करना है वह हम जरूर करेंगे। अगर फिल्म का प्रदर्शन रोका गया तो यह उन लोगों के लिए राहत वाली बात होगी जिनकी भावनाएं आहत हुई है।

सेंसर बोर्ड पर अदालत की ये टिप्पणी अत्यंत गंभीर है। इसलिए सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इसमें ऐसे लोगों को भेजे जो अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन भलीभांति कर सकें। वह पहचान करे कि वो कौन से सदस्य थे जिन्होंने ये फिल्म पास की। उनके इस निर्णय से देश में अराजकता फैल सकती थी। आखिर जब सदस्यों का चुनाव सरकार करती है तो उनके निर्णयों की जवाबदेही भी सरकार की बनती है। सिनेमा मनोरंजन एवं शिक्षा को देने वाला एक प्रमुख माध्यम है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल कैसे करना है इस पर ध्यान रखना आवश्यक है और ऐसे माध्यम जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अभी सेंसरशिप से बचे हुए हैं उनकी भी मर्यादा तय हो, इसके लिए भी सरकार को सोचना चाहिए।

 

अतुल गंगवार

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